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मंगलवार, 31 अगस्त 2021

छुट्टी

 

ओ वसू, यार एक कप बढिया सी चाय पिला दो, आज ऑफिस में बहुत थक गया हूं। ऑफिस से साथ आई वसू फटाफट हाथ पैर धुल किचन में चाय चढा अभी ऊपर अपने कमरे की तरफ चेंज करने बढी ही थी कि आवाज आई- बहू कल से दो दिन नही आयगी तुलसी, कह रही थी उसके मामा की बिटिया की शादी है। बोझिल मन और थके तन से वो केवल इतना ही बोल पाई- अच्छा मां जी।

अभी सासू और सुनील को चाय का कप दे ही रही थी कि सुनील बोले क्या जी दो चार पकोडी छान लेती, बारिश के मौसम में पकौडी का अपना ही मजा है। अच्छा कहती हुयी वसू अपना चाय का कप ले  किचन की तरफ चल दी। वो जानती थी कि पकौडी का मतलब एक और चाय है, ये सोच उसने दूसरे चूल्हे पर दुबारा चाय चढा दी।

तभी कमरे से आवाज आई – बहू मै कह रही थी कि दो दिन के लिये तुम ऑफिस से छुट्टी ले लो,  मेरे से नहीं संभलेगी तुम्हारी ये रसोई वसोई, ये पोछा वोछा। इससे पहले कि मै कुछ कहती , सुनील मां की बात का समर्थन करते हुये बोले - अरे मां आप क्यों चिंता कर रहीं है, वसू ले लेगी ना छुट्टी, आप तो बस आराम से पक़ौडिया खाइये, अरे वसू बन गयी क्या .........

और किचन से पकौडियां लाती हुयी वसू सोचने लगी कि क्या वाकई अगले दो दिन उसकी छुट्टी है?

शनिवार, 28 अगस्त 2021

शूल को फूल बनाया जा सकता नहीं

 


बीते लम्हों को बुलाया जा सकता नहीं

डूबी कश्ती को बचाया जा सकता नहीं

 

भरम है मेरा वो याद अब ना आयेगा

वो एक खास भुलाया जा सकता नहीं

 

बेहर था ना जगाते  अरमान दिल में

जगी रैन को सुलाया जा सकता नहीं

 

मिलते है नसीबों से, फिक्र करने वाले

लकीरों को तो मिटाया जा सकता नहीं

 

कई लोग  दिखावों में ही खुश रहते है

इश्क सबको सिखाया जा सकता नहीं

 

असर खामोशी का जरा आजमां के देख

उसके लफ्जों को दबाया जा सकता नहीं

 

सीख जाते हैं परिंदे भी साथ रह रह कर

मगरूरो को कुछ बताया जा सकता नहीं

 

साथ रहते हैं गुल के, मगर पैर चीरते हैं

हां शूल को फूल बनाया जा सकता नहीं


यकीन आज भी मां की परवरिशों पर

सच्चे बंदे को झुकाया जा  सकता नहीं

 

क्यों करती हो पलाश इंतजार हर घडी

बुत में अहसास जगाया जा सकता नहीं

शुक्रवार, 27 अगस्त 2021

हमारी तरह

तू भी हमारी तरह

घिरा है अनगिनत तारों से

इनमें से कई हैं अंजाने

कुछ से हूं मै परिचित

मगर कोई एक है जो है

मेरे बहुत करीब 

मगर ये हाथ भर की दूरी

सदियों से अपनी जगह है

ना मैं छोड़ पा रही हूं, 

झूठा अभिमान

ना तुम भूल पा रहे हो, 

कड़वा अतीत

किन्तु टूटता भी नहीं

प्रेम का बन्धन

ना तुमने कोई और राह चुनी

ना मैं कहीं मुड़ कर गई

समय निरपेक्ष रूप से

करता रहा मूल्यांकन

हमारे भावों और स्वभावों का

और फिर कर दिया हमें, 

चेतन से जड़

अब चाह कर भी नहीं हो सकते

हम एक इकाई

बस चिरकाल तक

समय से बंधे, 

जड़त्व से बंधे

एक हाथ की इस दूरी से

निभाते जाना प्रेम 

तू भी हमारी तरह

गुरुवार, 26 अगस्त 2021

तोल के बोल



आज कक्षा में एक विद्यार्थी को डांटते हुये जब मैने ने कहा- कि तुम पढाई में बिल्कुल भी मन नही लगाते हो, तभी तुम्हारे अंक बिल्कुल भी अच्छे नहीं आते। खेल कूद के अलावा जरा पढाई पर भी ध्यान दो। तो वह नन्हा सा बच्चा मासूमियत से बोला- मैडम जी ये बिल्कुल भी क्या होता है? एक पल को तो मुझे बहुत गुस्सा आया, लगा जैसे मेरा मजाक बनाते हुये यह प्रश्न पूंछ रहा है, मगर दूसरे ही पल मेरे मन ने कहा- कौशल्या, जरा देख तो इसकी उम्र, क्या बहुत मुंकिन नही कि इस पांच् छः साल के बच्चे को वाकई इसका मतलब ना पता हो। 
तब हल्का सा मुस्कुराते हुये मैने कहा- रोहन जाओ तो अपना टिफ़िन ले कर आओ। 
रोहन जल्दी से अपनी सीट पर गया और टिफिन ला कर मुझे दे दिया। 
लंच का पीरियड इस क्लास के तुरंत बाद था। 
मैने रोहन का टिफिन खोलते हुये पूंछा- तुमने अभी कितना टिफिन खाया है?
रोहन को कुछ समझ नही आ रहा था कि उसकी टीचर ऐसा क्यों पूंछ रही हैं जबकि लंच तो इस क्लास के बाद होगा।
उसके चेहरे पर एक बडा सा प्रश्नवाचक तैर रहा था, उसी मनः स्थिति में उसने धीरे से कहा- मैडम जी, टिफिन तो लंच  पीरियड में खाता हूं ना, अभी तो मैने बिल्कुल भी नही खाया। 
मैने उसके सिर पर हाथ फेरते हुये कहा- हां रोहन जब किसी काम की हम शुरुआत ही नही करते, या कोई चीज़ होती ही नही है तब उसे कहते हैं बिल्कुल भी नही। 
ऐसा लगा जैसे रोहन इस बात को बहुत अच्छे से समझ गया हो, उसी भोलेपन से बोला- मैडम जी- तब तो आप बिल्कुल भी सही नहीं कह रहीं थी क्योकिं मै थोडा थोडा सा तो पढता हूं और थोडे थोडे से नंबर भी लाता हूं। 
तभी लंच की बेल बज गयी। रोहन मुझसे पूंछकर अपनी सीट पर जा कर टिफिन खोलने लगाऔर मै बिल्कुल भी नहीं का सही प्रयोग ढूंढते हुये क्लास से बाहर आ गयी। 

शुक्रवार, 20 अगस्त 2021

पराया अपना

 


बडी अजीब सी कशकमश में हूं

कैसे बनता है कोई अपना किसी का

और कौन से मापदंड है जो

परिभाषित करते है किसी को पराया

क्या मै ये मान लूं कि रक्त की बूंद ही है

जो एक शरीर को दूसरे शरीर से

अपने शब्द के बंधन में जोड देती है

फिर वो अदॄश्य सी बूंद किस चीज की है

जो मन पर गिरती है, और पिघलकर

जुड जाते है दो  पराये मन

क्या तब भी विलुप्त नही होती

परायेपन की दीवार

आखिर क्यों होता है ऐसा

कि जिसे मन अपने के रूप में करता है स्वीकार

समाज उसे पराये की संज्ञा देता है

और कई कई बार उम्र के अंतिम छोर तक

तन बंधा तो रहता है अपने शब्द की डोर से

मगर अंतर्मन हर पल उसे पराये से ही

करता रहता है संबोधित

काश किसी दिन कही से कोई आकर

बता जाये कोई ऐसा विकल्प

जिससे बन सकूं किसी का संपूर्ण अपना

या संपूर्ण पराया

कि ये आधे अपने आधे पराये

के बीच खोता झूलता

थकता जा रहा है मन

और मेरा स्वयं का अपना मन ही

होता जा रहा है मुझसे पराया

गुरुवार, 12 अगस्त 2021

बवाल हो जायेगा

रही खामोश तो सवाल हो जायेगा

कही जो बात तो बवाल हो जायेगा

आंख नम हो तो छुपा लेना चश्मे में

दिखीं उदास, तो बवाल हो जायेगा

बात दिल की पन्नो पे उतारिये ना

पढेगें अपने तो बवाल हो जायेगा

पलट के सोच ना अब बीती बातों को

ख्वाब फिर लिपटे तो बवाल हो जायगा

जो भी सामने है, बस वही मंजिल तेरी

काश की आस में ,बवाल हो जायेगा

तकदीर के रास्ते, तेरी हथेली में पलाश

पकड मेहनत की बांहे, बवाल हो जायेगा

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