बडी अजीब सी
कशकमश में हूं
कैसे बनता है
कोई अपना किसी का
और कौन से मापदंड
है जो
परिभाषित करते
है किसी को पराया
क्या मै ये
मान लूं कि रक्त की बूंद ही है
जो एक शरीर
को दूसरे शरीर से
अपने शब्द के
बंधन में जोड देती है
फिर वो अदॄश्य
सी बूंद किस चीज की है
जो मन पर गिरती
है, और पिघलकर
जुड जाते है
दो पराये मन
क्या तब भी
विलुप्त नही होती
परायेपन की
दीवार
आखिर क्यों
होता है ऐसा
कि जिसे मन
अपने के रूप में करता है स्वीकार
समाज उसे पराये
की संज्ञा देता है
और कई कई बार
उम्र के अंतिम छोर तक
तन बंधा तो
रहता है अपने शब्द की डोर से
मगर अंतर्मन
हर पल उसे पराये से ही
करता रहता है
संबोधित
काश किसी दिन
कही से कोई आकर
बता जाये कोई
ऐसा विकल्प
जिससे बन सकूं किसी का संपूर्ण अपना
या संपूर्ण
पराया
कि ये आधे अपने
आधे पराये
के बीच खोता
झूलता
थकता जा रहा
है मन
और मेरा स्वयं
का अपना मन ही
होता जा रहा है मुझसे पराया
बहुत ही सुन्दर
जवाब देंहटाएंThanks you sir. Pranam
हटाएंबड़ी कशमकश चल रही है । न जाने ये मन हर पल अपना प्राय क्यों ढूंढता रहता है ।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंPranam Maa'm, Thank you so much
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