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शुक्रवार, 20 अगस्त 2021

पराया अपना

 


बडी अजीब सी कशकमश में हूं

कैसे बनता है कोई अपना किसी का

और कौन से मापदंड है जो

परिभाषित करते है किसी को पराया

क्या मै ये मान लूं कि रक्त की बूंद ही है

जो एक शरीर को दूसरे शरीर से

अपने शब्द के बंधन में जोड देती है

फिर वो अदॄश्य सी बूंद किस चीज की है

जो मन पर गिरती है, और पिघलकर

जुड जाते है दो  पराये मन

क्या तब भी विलुप्त नही होती

परायेपन की दीवार

आखिर क्यों होता है ऐसा

कि जिसे मन अपने के रूप में करता है स्वीकार

समाज उसे पराये की संज्ञा देता है

और कई कई बार उम्र के अंतिम छोर तक

तन बंधा तो रहता है अपने शब्द की डोर से

मगर अंतर्मन हर पल उसे पराये से ही

करता रहता है संबोधित

काश किसी दिन कही से कोई आकर

बता जाये कोई ऐसा विकल्प

जिससे बन सकूं किसी का संपूर्ण अपना

या संपूर्ण पराया

कि ये आधे अपने आधे पराये

के बीच खोता झूलता

थकता जा रहा है मन

और मेरा स्वयं का अपना मन ही

होता जा रहा है मुझसे पराया

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