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शनिवार, 31 जनवरी 2015

असर प्यार का........


आजकल बात कोई, बुरी लगती नही
धूप का मौसम भी, भला लगने लगा

रात हो दिन हो, या हो कोई भी पहर
रंग चेहरे का, गुलाबी सा लगने लगा 

था कल तलक जो अजनबी अंजाना
हमको साया, वो मेरा लगने लगा 

कुछ हुआ है मुझे, क्या मेरा हाल है
आइना भी ये हमसे, कहने लगा

खो गयीं हैं कहीं, तनहा तन्हाइयां
हर घडी तू मेरे साथ चलने लगा

नजरे मिली, सुकूं वो मेरा ले गया
कोई जादूगर सा तू लगने लगा 

बरसों गुजरें है मेरे, वीरानियों में
अब मुकद्दर हमारा सवंरने लगा

सजदा करने लगे, उनका हर घडी
वो खुदा मुझको मेरा लगने लगा

जब से पाया तुझे, ये यकीं हो चला
दुआओं का असर हमको दिखने लगा

गुरुवार, 29 जनवरी 2015

अरुणिमा भाग - ३

आज बहुत दिनों के बाद, दो वर्ष पुराने अधूरे काम को पूरा करने का मन हुआ, पिछले वर्षो की व्यस्तता ने मुझे उस काम से दूर रखा जिसे पूर्ण होते देख मुझसे ज्यादा खुशी किसी और को होने वाली थी।अपने पिछले दो अंकों जो मैने लिखा उनका संदर्भ यहाँ दे रही हूँ ताकि पाठ्क रुचिपूर्वक पढ सकें।
अरुणिमा भाग १
अरुणिमा भाग २

गतांक से आगे....
अरुणिमा को हम अपने साथ ले तो आये थे, मगर वो यहाँ होकर भी यहाँ नही थी। इस नन्ही सी उम्र में उसको जो दुख मिल रहे थे, उसके बारे में सोच कर भी मैं काँप जाती थी मगर उसने तो पता नही कहाँ से बडों सी समझ पायी थी, किसी बात के लिये कोई जिद नही करती, कभी गुमसुम सी बैठी किसी चाज को एकटक ताकती रहती तो कभी माँ के साथ कुछ ना कुछ काम करने लगती। मेरे कारन उसने अपने पिता को खोया था मगर फिर भी उसकी आँखो के किसी भी कोने में मेरे लिये कोई दुर्भाव नही था, पर मेरे मन में बहुत बोझ था, उसके पास जाने में भी डर लगता था।
एक दिन मैने स्कूल से वापस आ कर देखा माँ रसोई में खाना बना रहीं थीं और अरुणिमा हमारे बगीचे के एक कोने में सिमटी सी बैठी एकटक गुलाब को निहार रही थी। मैने धीरे से उसके पास जा कर कहा- अरुणिमा ये फूल चाहिये क्या, और ये कहते हुये मैने फूल तोडने को हाथ बढाया ही था कि एक झटके से उठते हुये उसने मेरा हाथ पकडते हुये कहा - नही दीदी, हमको फूल नही चाहिये, इसको ना तोडियेगा, इसको बहुत दर्द होगा। ये पेड तो इसके लिये माई बापू है ना, इनसे अलग होके ईका बहुत तकलीफ होगी। और कहते कहते फूट फूट कर रोने लगी। मै जानती थी कि अरुणिमा किस तकलीफ से गुजर रही थी, उसकी तकलीफ को मैं किसी भी तरह से कम करना चाहती थी। मैने अपने बस्ते से चाकलेट निकाल कर उसके हाथ में रख दी। आज स्कूल में निम्मी का जन्म दिन था, और उसने सभी को टाफी दी थी, चूंकि मै उसकी सबसे अच्छी दोस्त थी तो उसने स्कूल से निकलते समय चुपके से मेरे हाथ में ये चाकलेट दी थी। और उसी समय मेरे मन में ये चाकलेट अरुणिमा को देने का खयाल आया था, इसलिये नही कि मुझे वो चाकलेट पसंद नही थी, बल्कि मै अब अरुणिमा को सबसे अच्छा दोस्त मानने लगी थी, उस समय बस मन में यही था कि कितनी जल्दी घर पहुँच कर मै उसको ये चाकलेट दे दूं, मगर यहाँ उसको ऐसे गुमसुम देख कर मेरी सारे हिम्मत, सारा हौसला ना जाने कहाँ छू मन्तर हो गया था। उसके आंसू देखकर मुझे कुछ भी नही सूझ रहा था कि उसी पल बस्ते में रखी चाकलेट याद आ गयी ।
सिसकते हुये उसने चाकलेट हाथ में ली और उसको खोल कर मेरी तरफ बढाते हुये बोली- दीदी आप पहले खाओ, मैं बाद में खा लूंगी, मेरी आखों के सामने उसकी वही छवि आ गयी जब वो ताजे ताजे फल अपने नन्हे से हाथों में भर कर मेरे लिये लाती थी, बस फर्क ये था कि आज उसकी चहचहाट गायब थी।
तभी माँ ने हमे खाने के लिये पुकारा तो मैं उसका हाथ पकड उसे अपने साथ ले कमरे की तरफ आ गयी।

शेष फिर.....

बुधवार, 28 जनवरी 2015

नही चाहिये एक दिवस


कल गणतंत्र दिवस था, सोचा घर पर बैठे रहने से तो अच्छा है कि किसी समारोह में शामिल हो लिया जाय, किन्तु सर्दी बहुत ज्यादा होने के कारण दिल्ली तक जाने की हिम्मत नही जुटा सकी, सो सोचा पास के ही किसी संस्थान में चलते हैं, किसी सरकारी दफ्तर में जाने की इच्छा नही थी, तो पास के ही एक विश्वविघालय में चली गयी। विश्वविघालय की सजावट देख कर लग रहा था कि यहाँ कोई भव्य समारोह होने वाला है। अभी मैं सबसे पीछे की सीट पर बैठी ही थी कि कुलपति महोदय कुछ विशिष्ट अथितियों के साथ वहाँ उपस्थित हुये, ध्वजारोहण के उपरान्त उन्होने भाषण देना शुरु किया, परम्परा का निर्वाह मात्र करते हुये,बहुत ही संक्षिप्त शब्दों में अपनी बात को खत्म करते हुये विश्वविघालय की उन्नति में सभी से सहभागी होने का आहवाहन किया। जैसी की मुझे आशा थी कि देश की आजादी में मेरी भूमिका का वो जिक्र भी नही करेंगें, वैसा ही हुआ भी। तदुपरान्त गणतंत्र दिवस पर कुछ प्रकाश डालने के लिये एक छात्र के आने की घोषणा की गयी। इस छात्र के आने की घोषणा सुनकर मेरी उम्मीद जगी कि शायद ये मेरा जिक्र जरूर करे। नवयुवकों से सदैव ही पुरानी पीढी को आशायें होयी हैं। देश की प्रगति का भार उन पर ही है।
मगर ये क्या, यहाँ भी मेरा जिक्र नही, अब तो मेरे सब्र की इम्तेहां भी खत्म हो चली थी, धीरे से चुपचाप मैं निकल ली। 
बाहर निकलते निकलते मेरे कानों में स्वर गूँज रहे थे 
जहाँ डाल डल पर सोने की चिडियां करती है बसेरा वो भारत देश है मेरा
दुखी मन को थोडी सी राहत मिली कि अभी भी मेरी थोडी सी जगह तो बची है- भले ही वह पुराने गीत क्यो ना हो!
फिर भी मन बार बार यही सोच रहा था कि आज कोई मेरा नाम तक नही लेना चाहता, कभी मुझे देश का गौरव कहा जाता था, और आज मेरी ये दुर्दशा।
जब आज के दिन भी मेरा गुणगान नही, तो फिर क्यो सरकारी कागजों पर मेरे लिये एक दिन घोषित कर दिया गया। ये दिन मेरे विस्तार के आहवाहन के लिये है या सिर्फ मुझे लोग इस एक दिन तक सीमित कर देना चाहते हैं। शायद लोग अभी तक मेरी शक्ति से परिचित नही, इसीलिये मेरा नाम लेने में उन्हे शर्म महसूस होती है।

कभी मेरी लिये मैथिली शरण जी ने कहा था
जिसको ना निज देश तथा निज भाषा का सम्मान है
वो नर नही है पशु निरा, और मृतक समान है 

शायद आप समझ ही गये होंगे कि मै कौन हूँ ? क्या ! अभी भी नही पहचाना मुझे, 
मै हिन्दी हूँ, भारत माँ की सन्तान, जिसे यदि भारत माँ के दिल से निकालने की आप कोशिश करेंगे तो देश भी नही रहेगा, कैसे एक माँ अपनी सन्तान के बिना जीवित रह पायेगी।
मुझे किसी से कोई बैर नही, अंग्रेजी हो, जर्मन हो, फ्रेंच हो ये सब मेरे अतिथि है, मै सबका स्वागत करती हूँ, मगर क्या अतिथि को हम अपने घर की बागडोर सौंप देते हैं नही।
और यदि आप सबको मुझे प्रयोग करने में शर्म , अपमान या झिझक आती है, तो आप सभी से अनुरोध है मत दीजिये मुझे अपना अमूल्य दिन- मुझे नही चहिये जिन्दगी एक दिवस की।


शनिवार, 24 जनवरी 2015

वाकिफ इससे भी होने दो............



ना सुलझा मेरी उलझन, थोडा बेचैन होने दो, 

ये भी रंग इश्क का  है, वाकिफ इससे भी होने दो


ना रोको मेरे अश्कों को, जरा बरसात होने दो

ये भी मौसम इश्क का  है, वाकिफ इससे भी होने दो


ना बोलो कुछ लबों से आज, इन्हे खामोश रहने दो

ये भी जुबां, इश्क की है, वाकिफ इससे भी होने दो


ना बैठो नजदीक इतने तुम, जरा दूरी सी रहने दो

ये भी इशारे, इश्क के हैं, वाकिफ इससे भी होने दो


ना उठाओ आज पर्दा तुम, फासले ऐसे भी रहने दो

ये भी नजारा, इश्क का है, वाकिफ इससे भी होने दो


ना लेना हाथ, हाथों में, तडप थोडी तो होने दो

ये भी कशिश इश्क में है, वाकिफ इससे भी होने दो


ना आना आज ख्वाबों में, तमाम रात जगने दो

ये भी तजुर्बे, इश्क के हैं, वाकिफ इससे भी होने दो

शुक्रवार, 16 जनवरी 2015

अनकही



एक बात कहूँ
जिसे आज तक नही कहा
दिल में एक ख्वाइश जगी है 
तुझे पढना चाहता हूँ

सुने हैं कई कई बार
तेरे खनकते अल्फाज
पढना चाहता हूँ
वो सब जो छुपा है 
तेरी झुकी नजर में
वो लफ्ज जो रुके है 
तेरे सुर्ख लबों पें
जिससे नही हटेगा
कभी शर्म का पर्दा

पढना चाहता हूँ
तेरी चूडियों की खनक
जिसे खनका के तुम 
जाने क्या क्या कह जाती हूँ
और उस धुन में ढूँढता हूँ
तुम्हारे प्रीत के मोती

पढना चाहता हूँ
तेरे पलकों के उठने और झुकने को
जिसे तुम बना लेती हो
माध्यम इनकार और इकरार का
जिसे समझता हूँ मै
सिर्फ एक अदा

पढना चाहता हूँ
तेरी ना और हाँ को 
कितनी बार तेरी ना
हो जाती है हाँ
तेरे कहने की अदा को 
मै देख नही पाता
समझ बैठता हूँ
तेरी ना को ना ही

पढना चाहता हूँ
तेरी उलझी सुलझी लटों को
जिसमें उलझा लेती हो
अपनी अनकही
कभी कांधे पर रखती 
कभी झटक देती हो 
अपने अधखुले केश
समझनी है 
तेरे केशुओं की भाषा



पढना चाहता हूँ
तेरी खामोशियों को
बस कुछ पल 
बैठी रहना यूं ही
कुछ भी ना कहना
झुका लेना कभी नैन
कभी लुल्फों को उलझाना
कभी हौले से मुस्कुरा देना
कभी कंगना खनका देना

मंगलवार, 13 जनवरी 2015

एक जिन्दगी - बिन मुखौटा..... An Unmasked Life


वो चाह रही थी जीना
वो जिन्दगी
जिसमें ना पहनना पडे
कोई मुखौटा
तलाश रही थी
चंद खुशी के पल
जो दे सकें सुकून
ठंडी रेत सा
तडप छुपी थी
उसके अंतस में कही
जैसे वो हो मछली
बिन पानी की
भरे थे हाथ
खुशियों से
फिर भी दूर दूर तक
खुशी लापता थी
अपने थे उसके
दायें बाये और सामने
मगर फिर भी थी
तन्हा अकेली सहमी
निगाहों में थी तलाश
उस आग की
जो जला दे
उथल पुथल उसके मन की
दो पल दो घडी ही सही
वो जीना चाहती थी
एक स्वच्छंद हंसी
आकाश सी
एक सच्ची खुशी
बचपन सी
एक निस्वार्थ साथ 
कान्हा सा
एक अन्नत पल 
ईश्वर सा

एक जिन्दगी
बिन मुखौटे की 

रविवार, 11 जनवरी 2015

कहने लगा

अब तो मुस्कराना भी गुनाह सा होने लगा,
कातिल मेरी हसीं को जमाना कहने लगा ।

जो खुली जुल्फ लिये आये महफिल में हम
कोई सावन की घटा कोई जंजीर कहने लगा ।

हौले से ही तो खनकी थी नांदा पायल मेरी,
जिसे देखिये इसे हुस्न की अदा कहने लगा ।

हवा के झोकें ने लहराया जो पीला आंचल,
भंवरा हो जाने को बेताब हर कोई होने लगा ।

ना पूंछा किसी ने हाले दिल पलाश से कभी,
रंग उसके चुरा सिर्फ मन अपना भरने लगा ।

गुरुवार, 1 जनवरी 2015

कुछ यूं आये साल नया




कुछ ख्वाब अधूरे हों पूरे
कुछ नयी उम्मीदें पलें दामन में
कुछ बिगडी बाते बन जायें
कुछ नये रिश्ते महके आंगन में
कुछ दर्द दिलों के राहत पायें
कुछ प्रीत बिखरे आंचल में
कडवाहट कम हो नफरत की
कुछ नये स्वर निकलें फिर पायल से
कुछ यूं आये नव वर्ष की सुबह
जैसे नव वधू उतरी हो आंगन में
मन झूम उठे यूं खुशियों से
जैसे मोर नांच उठता है सावन में

नूतन वर्ष का हर पल शुभ हो
इतनी सी अभिलाषा है, इस दिल में
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