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बुधवार, 28 जनवरी 2015

नही चाहिये एक दिवस


कल गणतंत्र दिवस था, सोचा घर पर बैठे रहने से तो अच्छा है कि किसी समारोह में शामिल हो लिया जाय, किन्तु सर्दी बहुत ज्यादा होने के कारण दिल्ली तक जाने की हिम्मत नही जुटा सकी, सो सोचा पास के ही किसी संस्थान में चलते हैं, किसी सरकारी दफ्तर में जाने की इच्छा नही थी, तो पास के ही एक विश्वविघालय में चली गयी। विश्वविघालय की सजावट देख कर लग रहा था कि यहाँ कोई भव्य समारोह होने वाला है। अभी मैं सबसे पीछे की सीट पर बैठी ही थी कि कुलपति महोदय कुछ विशिष्ट अथितियों के साथ वहाँ उपस्थित हुये, ध्वजारोहण के उपरान्त उन्होने भाषण देना शुरु किया, परम्परा का निर्वाह मात्र करते हुये,बहुत ही संक्षिप्त शब्दों में अपनी बात को खत्म करते हुये विश्वविघालय की उन्नति में सभी से सहभागी होने का आहवाहन किया। जैसी की मुझे आशा थी कि देश की आजादी में मेरी भूमिका का वो जिक्र भी नही करेंगें, वैसा ही हुआ भी। तदुपरान्त गणतंत्र दिवस पर कुछ प्रकाश डालने के लिये एक छात्र के आने की घोषणा की गयी। इस छात्र के आने की घोषणा सुनकर मेरी उम्मीद जगी कि शायद ये मेरा जिक्र जरूर करे। नवयुवकों से सदैव ही पुरानी पीढी को आशायें होयी हैं। देश की प्रगति का भार उन पर ही है।
मगर ये क्या, यहाँ भी मेरा जिक्र नही, अब तो मेरे सब्र की इम्तेहां भी खत्म हो चली थी, धीरे से चुपचाप मैं निकल ली। 
बाहर निकलते निकलते मेरे कानों में स्वर गूँज रहे थे 
जहाँ डाल डल पर सोने की चिडियां करती है बसेरा वो भारत देश है मेरा
दुखी मन को थोडी सी राहत मिली कि अभी भी मेरी थोडी सी जगह तो बची है- भले ही वह पुराने गीत क्यो ना हो!
फिर भी मन बार बार यही सोच रहा था कि आज कोई मेरा नाम तक नही लेना चाहता, कभी मुझे देश का गौरव कहा जाता था, और आज मेरी ये दुर्दशा।
जब आज के दिन भी मेरा गुणगान नही, तो फिर क्यो सरकारी कागजों पर मेरे लिये एक दिन घोषित कर दिया गया। ये दिन मेरे विस्तार के आहवाहन के लिये है या सिर्फ मुझे लोग इस एक दिन तक सीमित कर देना चाहते हैं। शायद लोग अभी तक मेरी शक्ति से परिचित नही, इसीलिये मेरा नाम लेने में उन्हे शर्म महसूस होती है।

कभी मेरी लिये मैथिली शरण जी ने कहा था
जिसको ना निज देश तथा निज भाषा का सम्मान है
वो नर नही है पशु निरा, और मृतक समान है 

शायद आप समझ ही गये होंगे कि मै कौन हूँ ? क्या ! अभी भी नही पहचाना मुझे, 
मै हिन्दी हूँ, भारत माँ की सन्तान, जिसे यदि भारत माँ के दिल से निकालने की आप कोशिश करेंगे तो देश भी नही रहेगा, कैसे एक माँ अपनी सन्तान के बिना जीवित रह पायेगी।
मुझे किसी से कोई बैर नही, अंग्रेजी हो, जर्मन हो, फ्रेंच हो ये सब मेरे अतिथि है, मै सबका स्वागत करती हूँ, मगर क्या अतिथि को हम अपने घर की बागडोर सौंप देते हैं नही।
और यदि आप सबको मुझे प्रयोग करने में शर्म , अपमान या झिझक आती है, तो आप सभी से अनुरोध है मत दीजिये मुझे अपना अमूल्य दिन- मुझे नही चहिये जिन्दगी एक दिवस की।


3 टिप्‍पणियां:

  1. आप का कहना कुछ हद तक सही से परे नहीं माना जा सकता | आज लाखों-लाख समारोहों आदि पर खर्च हो रहे हैं ,पर हम राष्ट्र भाषा हिन्दी को घोषित नहीं कर सके ,अभी हाल में अमेरिका से डा ० नंदलालसिंह काशी आकर बोले कि अमेरिका में हिन्दी पढ़ाने हेतु , पोष्ट ग्रेजुएट कॉलेजों में जॉब की संभावना है, पर शुद्ध हिन्दी!
    के जानकारों की! ......खैर हमने हिन्दी हेतु "हिन्दी विकी" "आल पोयट्री" गूगल + फेशबुक आदि -आदि के माध्यम से यत्न किया है | जिसे साइटों पर मेरा नाम सर्च करके पढ़ा जा सकेगा | आप को धन्यवाद जो हमे
    अपने लेख को पढ़ने का मौका दिया |

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  2. बेहतरीन सोच और अभिव्यक्ति

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