वो चाह रही थी जीना
वो जिन्दगी
जिसमें ना पहनना पडे
कोई मुखौटा
तलाश रही थी
चंद खुशी के पल
जो दे सकें सुकून
ठंडी रेत सा
तडप छुपी थी
उसके अंतस में कही
जैसे वो हो मछली
बिन पानी की
भरे थे हाथ
खुशियों से
फिर भी दूर दूर तक
खुशी लापता थी
अपने थे उसके
दायें बाये और सामने
मगर फिर भी थी
तन्हा अकेली सहमी
निगाहों में थी तलाश
उस आग की
जो जला दे
उथल पुथल उसके मन की
दो पल दो घडी ही सही
वो जीना चाहती थी
एक स्वच्छंद हंसी
चंद खुशी के पल
जो दे सकें सुकून
ठंडी रेत सा
तडप छुपी थी
उसके अंतस में कही
जैसे वो हो मछली
बिन पानी की
भरे थे हाथ
खुशियों से
फिर भी दूर दूर तक
खुशी लापता थी
अपने थे उसके
दायें बाये और सामने
मगर फिर भी थी
तन्हा अकेली सहमी
निगाहों में थी तलाश
उस आग की
जो जला दे
उथल पुथल उसके मन की
दो पल दो घडी ही सही
वो जीना चाहती थी
एक स्वच्छंद हंसी
आकाश सी
एक सच्ची खुशी
बचपन सी
एक निस्वार्थ साथ
कान्हा सा
एक अन्नत पल
ईश्वर सा
एक जिन्दगी
बिन मुखौटे की
बिन मुखौटे की
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 15-01-2015 को चर्चा मंच पर दोगलापन सबसे बुरा है ( चर्चा - 1859 ) में दिया गया है ।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
SUNDAR :)
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर ।
जवाब देंहटाएंमकर संक्रान्ति की शुभकामनायें
दो पल दो घडी ही सही
जवाब देंहटाएंवो जीना चाहती थी
एक स्वच्छंद हंसी
आकाश सी
एक सच्ची खुशी
बचपन सी
एक निस्वार्थ साथ
कान्हा सा
एक अन्नत पल
ईश्वर सा
बहुत सुन्दर ।