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गुरुवार, 24 नवंबर 2011

कभी कभी.....


कभी कभी भीड भरे मंजर में दिल तनहा रह जाता ,
कभी कभी चाह कर भी मन कुछ कह नही पाता ॥

कभी कभी दूर, बहुत दूर जाने को मन व्याकुल हो जाता,
कभी कभी खुद को भूला देने को, दिल बेकरार हो जाता ॥

कभी कभी बिन बात ही बेवजह ,आसूँ छलक जाता ,
कभी कभी खुद में सिमट के दिल रोने लग जाता ॥

कभी कभी दुनिया मे हर शख्स पराया सा हो जाता,
कभी कभी अपना वजूद भी बेगाना लगने लग जाता ॥

कभी कभी दिल कितना कुछ, चुपके से सह जाता
कभी कभी इक लफ्ज, विषबुझे तीर सा चुभ जाता ॥

कभी कभी लाख कोशिशों पर ,कुछ याद नही आता,
कभी कभी कोई लम्हा, उम्र भर भी भूल नही पाता ॥

कभी कभी इम्तेहां-ए जिन्दगी, खत्म नही होता ,
कभी कभी कोई खुद ही, इक इम्तेहां बन जाता ॥

कभी कभी सब पा कर भी, हाथ खाली रह जाता ,
कभी कभी सब लुटाने पर भी, दामन भर जाता ॥

कभी कभी सावन, निष्ठुर बन आग लगा जाता

कभी कभी तपता रेगिस्तां भी, ना बैरी बन पाता

कभी कभी ख्वाब, इक ख्वाब बन कर रह जाता,

कभी कभी तकदीर से, बहुत ज्यादा मिल जाता ॥

कभी कभी...........................

मंगलवार, 15 नवंबर 2011

अपना शहर ……


अजनबी शहर में अपना शहर याद आया |
उसकी हर गली हर एक मोड याद आया ||

जब देखा गली पे बच्चों को खेलते क्रिकेट,
और फिर अपने ही शीशे के टूटने की आवाज |

अपने बचपन का सुहाना दौर याद आया,
उसकी हर गली हर एक मोड याद आया ||


मिला सब यहाँ जो मिला ना था अब तक,

इस शहर ने हर सपने को बनाया हकीकत |

हर उडान पे वो पतंग का उडाना याद आया ,
उसकी हर गली हर एक मोड याद आया ||


घूमा बहुत मैं और देखी भी बहुत दुनिया,

सपनों की नगरी से लगे बहुत से नगर |
पर अपने शहर सा  कोई भी ना शहर पाया,

उसकी हर गली हर एक मोड याद आया ||


सोचते थे प्यार लोगों से होता है जगह से नही,

समझे तब जब उससे मीलों दूर हम आ बैठे |

उसकी मोहब्बत में खुद को जकडा पाया,

उसकी हर गली हर एक मोड याद आया ||

उसकी हर गली हर एक मोड याद आया ...........

रविवार, 13 नवंबर 2011

गलती या लावरवाही - निर्णय पाठक ही करेंगें ......




अपनी बात कहने से पहले आप सभी पाठकों से एक सवाल का उत्तर चाहूंगीं - अखबार में दिनांक का कितना महत्व होता है ?

हम तो यही समझते है कि अखबार तिथि के हिसाब से ही बिकता है , १ तारीख का अखबार २ तारीख को रद्दी बन जाता है , अगर हम कोई पुरानी खबर अखबार में ढूंढना चाह्ते है तो पहले यह ही सोचते है के फलां खबर किस दिन के अखबार में थी । जितना महत्व अखबार में किसी खबर का होता है , उससे कम महत्व उस अखबार में छपी तिथि का भी नही होता ।

अब जरा सोचिये अगर अखबार में तिथि ही गलत पडी हो तो ?
हिन्दुस्तान -भारत का एक प्रतिष्ठित हिन्दी दैनिक अखबार है । और यह देश ही नही विदेशों में भी पढा जाता है, जिससे की उसकी जिम्मेदारी और अधिक बढ जाती है ।
पिछले तीन दिनों से लगातार हम हिन्दुस्तान(कानपुर) अखबार में देख रहे है कि अखबार बहुत मेहनत और ईमानदारी से खबरें तो छाप रहा है, लेकिन शायद उसके लिये अखबार के पहले पन्ने पर छपने वाली तिथि पर ध्यान जा ही नही रहा । जिसका परिणाम यह हुआ कि मुझे ब्लाग के माध्यम से यह कहना पड रहा है, बहुत कोशिश के बावजूद हमे हिन्दुस्तान(कानपुर) के मुख्य सम्पादक का ई-मेल आई डी नही मिल पाया ,

अब जरा आप लोग भी इन चित्रों को जरा ध्यान से देखिये ...
13 nov 2011 (please see both red box)

14th oct 2011 (please again see both red box)


12th nov 2011
११ नवम्बर के अखबार के मुख्य पृष्ठ का चित्र कुछ कारणों से उपलब्ध नही कर सकी हूँ, किन्तु उस दिन भी यही गलती हुयी है ।

अखबार तिथि अंग्रेजी और हिन्दी दोनो ही हिसाब से छापता है, और ऐसा सभी हिन्दी अखबार करते है । शायद ऐसा करके वो किसी परम्परा को निभाते है । क्या अंग्रेजी हिसाब से सही तिथि का छपना ही पर्याप्त है , तो फिर हिन्दी हिसाब से तिथि को छापने का क्या उद्देश्य है ?

आप सभी सोच रहे होगें कि गलतियां किसी से भी हो सकती है, अखबार से भी यदि हो गयी हो यह कोई बहुत बडी बात तो नही हो जाती । हम आप सभी से पूर्णतः सहमत हैं, किन्तु गलती की पुनरावृत्ति हमारी लावरवाही को दर्शाती है । लगातार तीन दिनों से गलत तिथि का अखबार में छपना अखबार के छपने में कार्यरत पूरी टीम की लापरवाही को ही दिखाता है ।

हम इस ब्लाग के माधयम से हिन्दुस्तान(कानपुर) अखबार के माननीय सम्पादक महोदय से विनम्र निवेदन के साथ यह कहना चाहते है कि कृपया इस विषय पर उचित ध्यान दें और अगले संस्करण में इस भूल सुधार का उल्लेख अवश्य करें ।

उम्मीद करती हूँ अखबार इसको अन्यथा ना लेते हुये अपनी भूल अवश्य स्वीकार करेगा और भविष्य में इस प्रकार की लापरवाही ना करने का आश्वासन भी देगा ।

हिन्दुस्तान की पाठिका एवं शुभचिन्तक

सोमवार, 7 नवंबर 2011

अन्जाना गुनाह


मुझे नही मालूम की इसे प्यार कहा जाय , दीवानापन कहे या दिल की नादानी, मगर कभी कभी किसी को एक झलक देख कर ही हम उसे अपना दिल दे बैठते है , कभी कभी हम बिना कुछ जाने समझे ही लाखों सपने बुनने लगते हैं , और फिर जब उन सपनों के आसमां से हकीकत की जमीं पर आते हैं सब कुछ जानते हुये भी दिल कुछ समझना ही नही चाहता .........

अन्जाने में आज हमसे इक गुनाह हो गया ,

उनकी इजाजत के बिना उनसे प्यार हो गया

वो छुपाते रहे खुद को रेशमीं चिलमन में,

मगर मेरी नजरों को उनका दीदार हो गया

कल तक हसँते थे हीर मजनूं की दास्तां पे,

नाम अपना भी दीवानों में अब शुमार हो गया

गुजरते गुजरते मोहब्बत के साहिलों से दिल,

इश्क के दरिया में डूबने को बेकरार हो गया

ना नाम ही जाना , ना पता ही घर के उनका,

बस इस मोड से गुजरने का इन्तजार हो गया

उनकी नजरों ने नजर भर भी ना देखा हमको,

उन्हे भी प्यार है हमसे, ये हमे ऐतबार हो गया

इक हसीं सी हँसी ही सुनी, आज तलक उनकी,

हम समझने लगे मोहब्बत का इकरार हो गया

वो जो आये कुछ देर से किसी और के साथ,

गुल खिलने से पहले ही गुलशन उजाड हो गया

बुधवार, 26 अक्तूबर 2011

एक दीवाली ऐसी भी


दिल्ली की पाशॅ कालोनी मयूर बिहार से सटी हुयी है, राधे की झोपडी। पूरी कालोनी दुल्हन सी सजी हुयी है । और ठीक चिराग तले अंधेरा की कहावत को चरित्रार्थ कर रही थी उसकी छोटी सी झोपडी जिसमें सारी दुनिया का अंधकार समाया हुआ था । राधे और सुखमयी की दीवाली तब शुरु होती थी जब सारी कालोनी त्योहार मना कर थक कर सो जाती थी , तब रात ढले दोनो कालोनी की गलियों में निकलते और बुझी हयी मकान पर लगी मोमबत्ती , दिये बिनते , पटाखों के बिखरे हुये कागजों में बिन जले पटाखे और आधी जली छुछुरियां ढूँढने की कोशिश करते । आज भी जब पूरी कालोनी दीवाली के जश्न में डूबी हुयी थी, सुखमयी अपने दोनो बच्चों को ये कह कर सुला रही थी , कि अभी तुम लोग सो जाओ, जब ये इन सब लोगों के पटाखे खत्म हो जायेगे तब हम लोग पटाखे छुडायेगें, दिये जलायेगें, अभी तो लक्ष्मी जी भी किस किस के घर जायेगी, मगर तब जब सिर्फ अपने घर में दिये जलेगे तो अपने ही घर आ कर रुकेंगीं । मगर क्या पता था कि आज की रात उनको ऐसी भी दीवाली नसीब नही होगी। वो अपनी गली से निकल कर सडकों पर अपने बच्चो की दीवाली ढूँढ ही रहे थे , कि तभी सुखमयी की नजर एक मकान की बालकनी पर रखे बिन जले अनार पर पड गयी , उसे लगा जैसे उसने अपने बच्चों के लिये कोई खजाना देख लिया, आज ही तो दिन में , मुनेर(उसके छोटे लडके) ने कहा था अम्मा इस बार एक अनार ला देना ना , अम्मा उसमे बहुत सारा उजाला होता है ,और उससे  तारे भी निकलते है । उसने अभी अनार उठाया ही था कि मकान के अंदर से एक आदमी चिल्लाया चोर चोर , उसका शोर मचाना था कि मकान के सभी लोग निकल आये , शोर सुन कर मोहल्ले वाले भी जमा हो गये , और देखते ही देखते भीड ने उन्हे अपने जश्न का एक और साधन समझ उनको लहूलुहान कर डाला । उस भीड में एक भी व्यक्ति उसकी बात सुनने वाला ना था , या शायद उस गरीब की आवाज में इतना दम नही था जो उन रहीसों के कानों तक जा पाती ।
भीड उस पर अपना जोर दिखाती रही और मकान की मुडेर पर रखा अनार बेबसी से सब देखता रहा, और सोचता रहा कि काश वो मुनेर के घर जा पाता, और उस मासूम को कुछ खुशियां दे पाता ..........



दीप जल रहे है गली गली
आंगन आंगन सजी रंगोली
हर मन मे खिले खुशहाली
आओ ऐसे मनाये दीवाली

सोमवार, 10 अक्तूबर 2011

अह्सास की आवाज


दो घडी गुजारी थी मोहब्बत में कभी ,

बैचैन हुआ था ये दिल भी कभी,
 
अह्सासों के आगोश में हम भी खोये थे कभी,

जिन्दगी खूबसूरत सी लगी थी कभी,

वक्त को थमते देखा था कभी,

जमीं आसमां मे मिलते नजर आयी थी कभी,

तपती धूप भी भली लगी थी कभी,

इन होठों पे मुस्कान खिली थी कभी,

दुआओं के लिये हाथ उठे थे कभी,

हर रंग में इश्क बसा लगता था कभी

तनहाई भी ना तन्हा लगती थी कभी

इक नाम ही जुबां पे रहता था कभी

सब कुछ वैसा ही तो है आज भी मगर

तेरे होने ना होने का फर्क साफ नजर आता है

कहती नही किसी से , और कहूँ भी तो क्यों

जब तेरे सिवा कौन मुझको समझ पाता है

धूप की तपिश आज भी महसूस नही होती

हर रंग में तेरा प्यार नजर आता है

वक्त वही थम गया सा लगता है

तेरे अह्सास में ही दिल खोया रहता है

लोग कहते है दुनिया हर पल बदलती रहती है

मुझे तो कुछ भी बदला नजर नही आता

कल भी तुम ही रहते थे निगाहों में मेरी

आज भी नजरों को सिर्फ तू ही नजर आता है
सिर्फ तू ही नजर आता है ..................




रविवार, 11 सितंबर 2011

कभी- कभी तन्हाई भी भाती है .........


कभी कभी अकेलेपन का ,साथ भी मन को भाता है ।
तन्हाई में ही तो मन ,दिल की कही सुन पाता है ॥

एकान्त में इक अलग से, सुकून का अनुभव होता है । 
ऐसे में ही तो मन अपनी, अच्छाई बुराई गिन पाता है ॥

कुछ ऐसे पल जब हम, बस खुद के लिये जीते है ।
समझ आता है मन को कि, मेरा मुझसे भी इक नाता है ॥

कितने अनसुलझे रहस्यों की, ग्रन्थियां खुद-ब-खुद खुल जाती है ।
जीवन की नदिया को अक्सर, इक नया आयाम मिल जाता है ॥

उलझे से मन की हर इक, धुंधली धुंध तब छट सी जाती है ।

बीता वक्त चुपके से आ, जीवन का नव-स्वप्न बुन जाता है ॥

कभी कभी अकेलेपन का , साथ भी मन को भाता है ।
तन्हाई में ही तो मन , दिल की कही सुन पाता है ॥

शुक्रवार, 2 सितंबर 2011

दिल कहता है...........


दिल कहता है , देश मेरा आजाद होगा एक दिन
हर एक बुराई से
जाति धर्म की लडाई से
दिल कहता है .................

ना होगा कोई छोटा बडा
ना होंगे कुरीतियों के बन्धन
ना होगी आनर किलिंग
ना बिछडेंगें दो व्याकुल मन
दिल कहता है , देश मेरा आजाद होगा एक दिन
नफरत की आग से
खोखले रूढिवाद से
दिल कहता है ...................

सोच मे विस्तार होगा ,
प्रीत का व्यवहार होगा
नष्ट भ्रष्टाचार होगा
खेतों का विस्तार होगा
दिल कहता है , देश मेरा आजाद होगा एक दिन
असंतुलित पर्यावरण से
दहेज के  दूषित आवरण से
दिल कहता है ..........................

सोने की चिडिया फिर से देश होगा
नारी होना ना कोई दोष होगा
जय हिन्दी जय भारत जय जण गन
बस हर तरफ यही उद्घोष होगा
दिल कहता है , देश मेरा आजाद होगा एक दिन
महँगाई के भार से
घर घर होते दुराचार से
दिल कहता है ......................

दिल कहता है , देश मेरा आजाद होगा एक दिन
हर एक बुराई से
जाति धर्म की लडाई से
दिल कहता है .................


शनिवार, 27 अगस्त 2011

आखिर क्यों हो रही है कसमकसाहट ???




क्यों पनप रही है मन में ये कडवाहट ,
क्यों अब भली लगती नही तेरी मुस्कराहट।
कल तक तेरे जिस अंदाज पे मिटते थे हम
क्यों झलकने लगी उसमें थोडी बनावट ॥

बन्द आँखों से भरोसा किया था कभी

ले गये तुम हमे चाहे किसी भी जगह ।

बात कुछ भी हो , मानी थी हमने सदा,

ये ना सोचा कभी क्या है इसकी वजह ॥

अब आने लगी तेरी हर बात में

क्यों दिल को मेरे साजिशों की आहट

क्यों अब भली लगती नही तेरी मुस्कराहट...........


जिन बाँहों में आने को मचलता था दिल ,

वो ही अब हमको सृपीली लगने लगी ।

दिन गुजरने का पता ना चलता था कभी,

अब दो घडी भी बोझिल सी होने लगी ॥

जिस बन्धन में बंधने की मांगी थी दुआ

क्यों हो रही है फिर उड जाने की छटपटाहट

क्यों अब भली लगती नही तेरी मुस्कराहट.......

 बसते थे जिन आँखों में हम हर घडी,

मिलता उनमें नही कोई मेरा निशां ।

कल तलक लगता था अपना सारा जहाँ,

धुंधली धुंधली सी है, आज हर इक दिशा ॥

डरते ना थे कभी घने अंधेरों से भी हम

क्यों उजालों से भी आज होने लगी घबराहट

क्यों अब भली लगती नही तेरी मुस्कराहट.......


रविवार, 21 अगस्त 2011

क्या आप सच में अन्ना हैं ??





१६ अगस्त को देश में एक क्रान्ति की शुरुआत हुयी , अन्ना जी ने आहवान किया और लोगो ने भरपूर समर्थन भी दिया । लाखों लोग आज यह कहते सुने जा सकते है कि " मै अन्ना हूँ "। मगर यह सुनकर मेरे मन में कई सवाल उठते है जिनके सटीक उत्तर शायद आप लोगों से ही मिल सके ....

यह लडाई क्या बिल के पास हो जाने से समाप्त हो जायगी ?

क्या वाकई में देश को नये बिल की जरूरत है ?

क्या एक बिल हमारी मनोवृत्तियां बदल देगा ?

क्या वो आम आदमी जो अन्ना जी के साथ होने का दावा कर रहा है , वो किसी भी मायने मे भ्रष्ट नही है ?

हम भ्रष्टाचार किसे मानते है - सिर्फ घूसखोरी , काला धन जोडना , धोटाला .... ?

क्या सच मे आज आम आदमी भ्रष्टाचार करना नही चाहता  ?

क्या हम ईमानदारी से कह सकते है कि हम ईमानदार हैं ?

सरकार हमसे कभी यह नही कहती कि हम भ्रष्टाचार करे , भ्रष्टाचार= भ्रष्ट + आचार । आचरण हमारी जीवन शैली है , हम कैसा व्यवहार करते है चाहे फिर वह परिवार के साथ हो समाज के साथ हो या देश के साथ । नियम कानून हमारे आचरण को कुछ हद कर रोक सकते है मगर हमारी सोच को नही बदल सकते । सोच स्वयं के निश्चय से बदलती है । आज हमे निश्चय की आवशयकता है , कोई हमे भ्रष्टाचार करने कि लिये मजबूर नही कर सकता जब तक हम खुद ना चाहे ।

हम खुद ही तो अपनी सहूलियतों के हिसाब से खुद को बदल लेते है , टिकट खिडकी पर जब आगे खडे है तो किसी को आगे नही आने देगें और अगर पीछे खडे है तो किसी भी तरह जल्दी टिकट लेने की कोशिश करते है ,तब सारे नियम भूल जाते है बस यही याद आता है कि कही ट्रेन ना छूट जाये ।
किसी आफिस मे अगर कोई काम कराना है तो सोचने लगते है कि कोई परिचित मिल जाये तो जल्दी काम करा लें ।

जनरल की टिकट ले कर स्लीपर में यह सोच कर बैठ जाते है कि टी . टी साहब को १०० - १५० दे देगें कभी नही सोचते की पेनाल्टी देगें ।

चार दिन की आफिस से छुट्टी ले लेते है यह सोच कर की ५० रुपये दे कर किसी डाक्टर से मेडिकल बनवालेगें

छात्र आये दिन पेपर आउट कराते है , क्या इसके लिये सरकार कहती है या देश का कानून कहता है

कितने लोग है जो ईमानदारी से टैक्स भरते है , कभी हमने सोचा हम क्यों ऐसा नही कर रहे ।

अन्त मे आखिरी सवाल हम देश में किसे आम आदमी मानते है ?? क्या खुद को देश का आम आदमी आप मानते है , यदि हाँ तो दो मिनट के लिये सोच कर देखिये क्या आप वाकई अन्ना है ? यदि नही तो क्यो ??

गुरुवार, 11 अगस्त 2011

आजादी की तैयारी


१५ अगस्त की तैयारियां बहुत जोर शोर से चल रही थी , शम्भू नाथ जी का मंत्री बनने के बाद अपने गाँव में पहला दौरा था . वो कुछ ऐसा करना चाह रहे थे जिसे बरसों याद रखा जाय ।
गाँव को खूब सजाया जा रहा था , मंत्री जी स्वयं तैयारियों का जायजा ले रहे थे । कि तभी उन्होने अपने सेकेट्री से कहा- हरिकिशन ये तो सब ठीक है लेकिन ये बताओ कल के लिये खास क्या है , वो बोला- सर आदेश कीजिये ।
हम सोच रहे है कि क्यों ना कल कबूतर उडा कर शान्ति का संदेश दिया जाय । क्यो कैसा रहेगा ?
जी सर बिल्कुल ठीक ,फिर धीरे से कुछ डरते डरते वो बोला- मगर सर इसमे नया ...... ।
              तभी मंत्री जी हसते हुये बोले - तुम भी ना रहोगे मूरख ही । अरे भई हम एक दो नही पूरे एक हजार कबूतर उडायेगे । अब जाइये आप और कबूतरों का इन्तजाम कीजिये , और हाँ ये बताइये हमारे लिये कबूतरी का इन्तजाम करने के लिये भी क्या आदेश की ही प्रतीक्षा कीजियेगा । कुछ तो खुद से कर लिया कीजिये ।

शनिवार, 6 अगस्त 2011

एक कविता : मित्रों के नाम

मित्र तुम्हे परिभाषित करने का

सामर्थ्य नही मेरी कलम में ।

ये तो जज्बातों का संगम है

जिसमें अविरल विश्वास की धारा बहती है॥




चाह रहा है आज मेरा मन
मित्र तुम्हे उपहार मै कुछ दूँ ।
कोई भौतिक वस्तु नही
अमिट असीमित प्यार तुम्हे दूँ ॥
..................
 बरसों पहले नन्हे पन में
बुना था, जो तुम संग सपना ,
नदी किनारे रेत का हमने
बनाया था छोटा सा घर अपना ,
सोच रहा हूँ, मिल कर फिर से
उन सपनों का विस्तार तुम्हे दूँ ॥
चाह रहा है आज...........................
इक सदी सी, गुजर गयी मिले हुये
दुनिया दारी की हैं, बहुत सी उलझन ,
मगर आज दिल कहता, जी ले फिर 
खोया हुआ वो, प्यारा अल्लड बचपन ,
धुँधला गये है जो ,यादों के घरौदें
मिलकर, एक नया आकार उन्हे दूँ ॥
चाह रहा है आज...........................
एक अनोखी अदभुद सी, पर दिल की
सुन बात बतलाता हूँ मै तुमको ,
सुख में, अनगिनत रिश्ते साथ थे पर
कठिनाइयों में बस, निकट पाया तुमको ,
दूर होकर भी तुमने, सदा बाँटी तकलीफे
आज अपनी खुशियों का संसार तुम्हे दूँ ॥
चाह रहा है आज...........................

चाहे कितने ही रिश्ते नाते
इस जग से सबको मिल जाये ।

पर मिले ना जब तक सच्चा साथी

कुछ कमी - कमी सी  रहती है ॥

शुक्रवार, 5 अगस्त 2011

पत्थर की इस नगरी में


पत्थर की इस नगरी में , इक दिल का मिलना मुश्किल है ।
भीड भरे इस मंजर में, इक मन का मिलना मुश्किल है


या मेरी चाहत सही नही, या दुनिया की हमको समझ नही ।
हम ही कुछ नादां से है , या दुनिया में अब ईमां ही नही ॥

काली अमावस की रातों में , मंजिल का दिखना मुश्किल है ।
पत्थर की इस नगरी......................................................


प्यार वफा की बातें तो , हर एक जुबां पर रहती हैं  ।
पर नजरें अब दीवानों की , कुछ और कहानी कहती हैं  ॥

ऐसी मोहब्बत की लहरों में ,डूब के उबरना मुश्किल है  ।
पत्थर की इस नगरी......................................................


बरसों जिसे तलाशा है , दुनिया के उलझे मेले में ।
बच बच के निकली हूँ अक्सर, घनघोर अंधेरें रेले से ॥

सुन पाते नही जब लोग कही, खामोशी को तो सुनना मुश्किल है ।
पत्थर की इस नगरी......................................................

रविवार, 24 जुलाई 2011

एक्स - प्यार


अरुण से मेरा रिश्ता किसी नाम का मोहताज नही था , मेरा मानना था कि प्यार दिल से किया और निभाया जाता  है , इसके लिये यह जरूरी नही कि हम किसी बंधन में बंधे ।

ऐसा नही था कि हम दोनो शादी करना नही चाहते थे , मगर अगर हमारे मिलने से हमारे अपनों को तकलीफ मिलती है तो इससे अच्छा है कि हम एक दूसरे से दूर ही हो जाये । अरुण के पिता ने अपना फैसला सुना दिया था - अगर तुम्हे दीप्ती से शादी करनी है तो फिर तुमको इस घर से जाना होगा । अरुण उस दिन अपने पापा से लडाई करके मेरे घर आया था , मुझसे कहने लगा कि मै घर छोड कर आया हूँ । तब बहुत मुश्किल से मैने उसे समझा कर उसे घर भेजा और पिता जी की मर्जी से शादी कर लेने की कसम भी दी थी । मुझे विश्वास था कि हमारा प्यार जैसा आज है कल भी रहेगा और हमेशा रहेगा । बहुत कोशिश करने के बाद अरुण ने दिवा से शादी की थी , आज उसकी शादी को दो महीने हो चुके थे , हमारे प्यार मे मुझे कभी कोई अंतर महसूस नही होता था ।

मै आफिस में बैठी अपने और अरुण के साथ बीते दिनों की याद में खोई सी थी कि तभी मल्होत्रा जी की आवाज मेरे कानों मे पडी - देखते है दुबे जी , अपने अरुण की तो लाटरी लग गयी दोनो हाथों से लड्डू खा रहे है , फिर मेरी तरफ हल्का सा इशारा करते हुये बोले यही तो है अपने अरूण का एक्स प्यार । शादी कर ली मगर आज भी ............... आगे के शब्द मेरे कानों को सुनाई नही दिये या मेरी सुनने की क्षमता ने जवाब दे दिया था । क्या दुनिया में प्यार की यही परिभाषा बची थी ।
अच्छा ही हुआ जो राधा इस कलियुग में नही जन्मी वरना लोग आज उनकी पूजा नही करते सिर्फ शब्दों मे बाण ही चलाते । कोई भला कैसे समझाये कि प्यार कभी एक्स नही होता , प्यार तो बस प्यार होता है । जो सिर्फ निभाया जाता है , जो बंधनों का मोहताज नही होता ।


गुरुवार, 21 जुलाई 2011

ऐसा क्यों हुआ ?????



सच्ची मोहब्बत एक आरजू बन कर ही रह गयी ।
उनकी यादें हमारी जिन्दगी की वजह बन गयी ॥


जिन आंखो में बसते थे तुम काजल बनकर ।
आज उन नैनों को अश्कों से ही चाहत हो गयी ॥


धडकता था दिल जिनके नाम लेने से ही कभी ।
आज धडकनों को दिल से ही बगावत हो गयी ॥


मेरे कदमों तले यूँ तो है जमाने भर की खुशी ।
मगर मेरे होठों को हंसी से ही नफरत हो गयी ॥


रात कहती है सजा ले कोई ख्वाब इन आँखों में ।
मगर आँखों को तो जागने की आदत हो गयी ॥


जख्म भर जाते है सभी इक दिन वक्त के मरहम से ।
मगर हमे जख्मों की हरियाली की ही हसरत हो गयी ॥


बुधवार, 13 जुलाई 2011

है चार दिन की जिन्दगी


है चार दिन की जिन्दगी
और करने हजारों काम है ,
फिर भी लोगों को सदा
दूजे के कामों से ही काम है .............

रूठ कर मना लो उन्हे

जो प्यार करते है तुम्हे
कल के भरोसे में तो फिर

बस उदासी भरी कई शाम है...................

जाने कितना वक्त खोया तुने
अपने पराये को समझने में

पर एक ही पल में यहाँ
मिट जाते रिश्तों के नाम हैं.....................

खुशियों को पाने के लिये हैं खोई
जिन्दगी की लाखों खुशी

है हाथ खाली आज भी मगर

ढल गयी जिन्दगी की शाम है ........................
यूँ तो सब बिकता ही है

बेजान दुनिया के बाजार में
पर खरीद पाया कौन वफा

जो कीमती मगर बेदाम है ....................


बुधवार, 15 जून 2011

बदलते इन्तजार



आज लगभग ४ महीने के बाद मै पुनः इस ब्लाग की दुनिया में वापस आ रही हूँ । इस बात की मुझे हार्दिक खुशी है कि एक दिन के लिये भी कभी आप लोगों ने मुझे अपने आप से दूर नही किया । सदैव मेरा उत्साह बढाया और लिखने के लिये प्रेरित करते रहे । यह आप सभी के अशीर्वाद और स्नेह का परिणाम ही है कि मै फिर से लिखने का साहस कर पा रही हूँ , इस विश्वास के साथ की पहले से कही अधिक आप सभी का सहयोग मुझे मिलेगा , मेरी त्रुटियों को सुधारने में अच्छे लेखन में आप मेरी मदद करेंगें ।

यह कहानी एक ऐसी औरत की है जो हमारे आपके आस पास जीती है । कभी आप इसे चाची कह कर पुराकते है कभी दादी । मै और मेरे आस पास के लोग इनको रुक्मी ताई के नाम से जानते है । रुक्मी ताई जो कभी पूरे मोहल्ले की जान हुआ करती थी , आज उनकी सांसे तो चल रही थी , मगर जीना भूल चुकी थी । आज मुझे वो समय याद आता है ,जब वो अपने हेमू में अपना भविष्य खोजती दिन रात काम में लगी रहती थी । किस तरह उन्होने एक साधारण से मकान को सुन्दर से घर में बदल दिया था । बस दिन रात उनकी आखों में यही सपना सजता था की कब उनका नन्हा सा हेमू (हेमन्त) बडा होगा और पढ लिखकर एक बडा आदमी बनेगा ।

जिस मुश्किल दौर को उन्होने देखा था वो उसकी परछाई भी उस पर नही से पडने देना चाहती थी । आखिर एक वो भी दिन आया जब उनकी बरसों की मेहनत और इन्तजार  सच्ची खुशियों के  रंग ले कर लौटे ।

देश के सबसे अच्छे इंजीनियरिंग कालेज में हेमू को आज दाखिला मिल गया था ।धीरे धीरे समय मन से भी तेज रफ्तार से चलने लगा । रुक्मी की आंखों मे उसकी एक अच्छी सी नौकरी का सपना पलने लगा था । ईश्वर ने भी जैसे उसके हर एक सपने को पूरा करने की ठान ली थी । उसको एक विदेशी कम्पनी में नौकरी मिली थी । रुक्मी ताई ने पूरे सवा पाँच किलो के बेसन के लड्डू का बजरंग बली जी को भोग चढाया था । उसके जाने की तैयारी में उन्होने दिन रात एक कर दिये थे । उनका बस चलता तो वो एक दो महीने के लिये खाने का सामान बना देती ।

फिर वो भी दिन आया जब वो घर में अकेली रह गयी । फिर भी मन में संतोष और आँखे खुशी के आंसुओं से भरी थी । हेमू से फोन पर हुयी पाँच - दस मिनट की बात को वह पूरे मोहल्ले में घंटों सुनाया करती थी । और फिर धीरे धीरे शुरू होने लगा वापस आने का इन्तजार ।

कई बार सोचती कि बडी गलती हुयी उनसे , हेमू की शादी कर देती तो ठीक रहता , कम से कम विदेश में उसको खाने की परेशानी तो नही उठानी पडती । फिर सोचती कि इस बार आने पर उसकी शादी जरूर कर देगीं । फिर तो उनका सारा दिन लडकी ढूंढने में ही निकलने लगा । एक रिश्ता उन्होने लगभग तय ही कर दिया था , बस इन्तजार था हेमू की हाँ का । आज दो साल बाद हेमू दीवाली पर घर आ रहा था या ये कहा जाय कि  रुक्मी ताई की दीवाली आज दो साल बाद ही आई थी । उनका राम सा बेटा आज अपने घर आया था , बस उनको अब इन्तजार था सीता सी बहू लाने का । मगर जब उनको पता चला कि उनके बेटे ने अपने लिये पत्नी देख ली है , तो पहले तो उन्हे थोडा दुख हुआ , दुख इस बात का नही था कि उसने लडकी स्वयं ही पसन्द कर ली थी , वो उनकी जाति की नही थी , मगर उन्होने इस दुःख को अपने चेहरे पर भी नही आने दिया था । खूब धूम धाम से शादी हुयी , हर किसी से कहते नही थकती कि मेरी बहू लाखों नही करोंडों में एक है , दूसरी जाति की है तो क्या , संस्कारों की उसमें कोई कमी नही ।  मै  मूरख तो सात जनम भी अपने हेमू के लिये ऐसी बहू नही ढूँढ पाती ।

शादी के १० -१५ दिन बाद जब वो दोनो घूम कर लौटे , तब माँ के मन में आस जगी कि कुछ दिन दोनो उसके पास रहे , मगर हेमू ने कहा- माँ सारी छुट्टियां खत्म हो चुकी है , लेकिन माँ अब हम साल मे एक बार पूरे एक महीने के लिये आपके पास आया करेंगें । मगर ना साल बीता ना वो महीना आया । आँखे रास्ता देखती रहीं , खबरें मिलती रहीं , रिश्ते बढने लगे  , अब वो एक माँ से दादी बन चुकी थीं । पोते के चेहरे को तरसती आँखों में भी खुशी की चमक थी । इस खुशी मे उन्होने कितनों को कितनी मिठाई खिला दी थी , इसका हिसाब तो ब्रह्मा जी भी नही रख सके होंगें । वादे होते रहे मगर सिर्फ टूटने के लिये । अब उसमें अपने दर्द को आचंल में बाँध कर रखने की क्षमता खत्म सी हो चली थी , और दर्द ने आँखों के किनारों से निकलनें का रास्ता देख लिया था । पुत्र विछोह उनकी आँखों के आइने में साफ नजर आता था । मगर आस थी कि नदी के किनारे की तरह नदी के बहाव का साथ दिये थी ।

मुझे याद है वो दिन जब मै उनके घर पर ही थी , कि हेमू का फोन आया था । ताई जी कह रही थी - बेटा बस चाहती हूँ मरने से पहले एक बार अपने पोते को देख लेती । मगर शायद हेमू उस दर्द को महसूस नही कर पा रहा था जिसे मैं पराई होकर भी देख रही थी , हँस कर बोला - माँ आप भी ना हमेशा मरने की ही बात क्यों करती हो , मै आने की कोशिश कर रहा हूँ , मगर यहाँ से आना इतना आसान नही होता | आप ऐसा क्यों सोचती हैं कि मै आना नही चाहता , माँ मुझे बहुत दुख हो रहा है कि एक माँ ने ही अपने बेटे की मजबूरी को नही समझा ।

उस दिन की बात के बाद तो रुक्मी ताई बिल्कुल अनमनी सी रहने लगी , जैसे जीने की इच्छा ही खत्म हो गयी हो , शायद अब उनका हर इन्तजार खत्म हो गया था । तीन दिन बाद ही उन्होने प्राण त्याग दिये । जाने से एक दिन पहले उन्होने मुझे बुला कर कहा था - बेटी मेरे मरने की खबर हेमू को ना देना , वो बेचारा परेशान हो जायगा , और फिर इतनी दूर से तुरन्त आना मुंकिन भी नही होगा । बस तुम मेरे जाने के बाद इस घर में रोज दिया - बाती कर दिया करना । हेमू के आने तक मै उसका इन्तजार इसी घर में करूगीं । मुझे विश्वास है वो समय मिलते ही अपनी माँ से मिलने जरूर आयगा और फिर   तब मैं हमेशा के लिये उसी के पास जा कर रहूंगीं ।

क्या वाकई मरने के बाद भी इन्तजार खत्म नही होते ? क्यों इन्तजार कभी कभी इतना बेदर्द हो जाता है कि जीवन को उसके सामने घुटने टेकने पड जाते हैं ? क्यों हम ऐसा इन्तजार करते है ? ये कुछ ऐसे प्रश्न है जिनके जवाब मैं आज तक ढूँढती हूँ , मगर आज तक अनुत्तरित ही हूँ । बस इन्तजार है कि शायद कभी मुझे मेरे सवालों के जवाब मिल जायें ।


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