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बुधवार, 15 जून 2011

बदलते इन्तजार



आज लगभग ४ महीने के बाद मै पुनः इस ब्लाग की दुनिया में वापस आ रही हूँ । इस बात की मुझे हार्दिक खुशी है कि एक दिन के लिये भी कभी आप लोगों ने मुझे अपने आप से दूर नही किया । सदैव मेरा उत्साह बढाया और लिखने के लिये प्रेरित करते रहे । यह आप सभी के अशीर्वाद और स्नेह का परिणाम ही है कि मै फिर से लिखने का साहस कर पा रही हूँ , इस विश्वास के साथ की पहले से कही अधिक आप सभी का सहयोग मुझे मिलेगा , मेरी त्रुटियों को सुधारने में अच्छे लेखन में आप मेरी मदद करेंगें ।

यह कहानी एक ऐसी औरत की है जो हमारे आपके आस पास जीती है । कभी आप इसे चाची कह कर पुराकते है कभी दादी । मै और मेरे आस पास के लोग इनको रुक्मी ताई के नाम से जानते है । रुक्मी ताई जो कभी पूरे मोहल्ले की जान हुआ करती थी , आज उनकी सांसे तो चल रही थी , मगर जीना भूल चुकी थी । आज मुझे वो समय याद आता है ,जब वो अपने हेमू में अपना भविष्य खोजती दिन रात काम में लगी रहती थी । किस तरह उन्होने एक साधारण से मकान को सुन्दर से घर में बदल दिया था । बस दिन रात उनकी आखों में यही सपना सजता था की कब उनका नन्हा सा हेमू (हेमन्त) बडा होगा और पढ लिखकर एक बडा आदमी बनेगा ।

जिस मुश्किल दौर को उन्होने देखा था वो उसकी परछाई भी उस पर नही से पडने देना चाहती थी । आखिर एक वो भी दिन आया जब उनकी बरसों की मेहनत और इन्तजार  सच्ची खुशियों के  रंग ले कर लौटे ।

देश के सबसे अच्छे इंजीनियरिंग कालेज में हेमू को आज दाखिला मिल गया था ।धीरे धीरे समय मन से भी तेज रफ्तार से चलने लगा । रुक्मी की आंखों मे उसकी एक अच्छी सी नौकरी का सपना पलने लगा था । ईश्वर ने भी जैसे उसके हर एक सपने को पूरा करने की ठान ली थी । उसको एक विदेशी कम्पनी में नौकरी मिली थी । रुक्मी ताई ने पूरे सवा पाँच किलो के बेसन के लड्डू का बजरंग बली जी को भोग चढाया था । उसके जाने की तैयारी में उन्होने दिन रात एक कर दिये थे । उनका बस चलता तो वो एक दो महीने के लिये खाने का सामान बना देती ।

फिर वो भी दिन आया जब वो घर में अकेली रह गयी । फिर भी मन में संतोष और आँखे खुशी के आंसुओं से भरी थी । हेमू से फोन पर हुयी पाँच - दस मिनट की बात को वह पूरे मोहल्ले में घंटों सुनाया करती थी । और फिर धीरे धीरे शुरू होने लगा वापस आने का इन्तजार ।

कई बार सोचती कि बडी गलती हुयी उनसे , हेमू की शादी कर देती तो ठीक रहता , कम से कम विदेश में उसको खाने की परेशानी तो नही उठानी पडती । फिर सोचती कि इस बार आने पर उसकी शादी जरूर कर देगीं । फिर तो उनका सारा दिन लडकी ढूंढने में ही निकलने लगा । एक रिश्ता उन्होने लगभग तय ही कर दिया था , बस इन्तजार था हेमू की हाँ का । आज दो साल बाद हेमू दीवाली पर घर आ रहा था या ये कहा जाय कि  रुक्मी ताई की दीवाली आज दो साल बाद ही आई थी । उनका राम सा बेटा आज अपने घर आया था , बस उनको अब इन्तजार था सीता सी बहू लाने का । मगर जब उनको पता चला कि उनके बेटे ने अपने लिये पत्नी देख ली है , तो पहले तो उन्हे थोडा दुख हुआ , दुख इस बात का नही था कि उसने लडकी स्वयं ही पसन्द कर ली थी , वो उनकी जाति की नही थी , मगर उन्होने इस दुःख को अपने चेहरे पर भी नही आने दिया था । खूब धूम धाम से शादी हुयी , हर किसी से कहते नही थकती कि मेरी बहू लाखों नही करोंडों में एक है , दूसरी जाति की है तो क्या , संस्कारों की उसमें कोई कमी नही ।  मै  मूरख तो सात जनम भी अपने हेमू के लिये ऐसी बहू नही ढूँढ पाती ।

शादी के १० -१५ दिन बाद जब वो दोनो घूम कर लौटे , तब माँ के मन में आस जगी कि कुछ दिन दोनो उसके पास रहे , मगर हेमू ने कहा- माँ सारी छुट्टियां खत्म हो चुकी है , लेकिन माँ अब हम साल मे एक बार पूरे एक महीने के लिये आपके पास आया करेंगें । मगर ना साल बीता ना वो महीना आया । आँखे रास्ता देखती रहीं , खबरें मिलती रहीं , रिश्ते बढने लगे  , अब वो एक माँ से दादी बन चुकी थीं । पोते के चेहरे को तरसती आँखों में भी खुशी की चमक थी । इस खुशी मे उन्होने कितनों को कितनी मिठाई खिला दी थी , इसका हिसाब तो ब्रह्मा जी भी नही रख सके होंगें । वादे होते रहे मगर सिर्फ टूटने के लिये । अब उसमें अपने दर्द को आचंल में बाँध कर रखने की क्षमता खत्म सी हो चली थी , और दर्द ने आँखों के किनारों से निकलनें का रास्ता देख लिया था । पुत्र विछोह उनकी आँखों के आइने में साफ नजर आता था । मगर आस थी कि नदी के किनारे की तरह नदी के बहाव का साथ दिये थी ।

मुझे याद है वो दिन जब मै उनके घर पर ही थी , कि हेमू का फोन आया था । ताई जी कह रही थी - बेटा बस चाहती हूँ मरने से पहले एक बार अपने पोते को देख लेती । मगर शायद हेमू उस दर्द को महसूस नही कर पा रहा था जिसे मैं पराई होकर भी देख रही थी , हँस कर बोला - माँ आप भी ना हमेशा मरने की ही बात क्यों करती हो , मै आने की कोशिश कर रहा हूँ , मगर यहाँ से आना इतना आसान नही होता | आप ऐसा क्यों सोचती हैं कि मै आना नही चाहता , माँ मुझे बहुत दुख हो रहा है कि एक माँ ने ही अपने बेटे की मजबूरी को नही समझा ।

उस दिन की बात के बाद तो रुक्मी ताई बिल्कुल अनमनी सी रहने लगी , जैसे जीने की इच्छा ही खत्म हो गयी हो , शायद अब उनका हर इन्तजार खत्म हो गया था । तीन दिन बाद ही उन्होने प्राण त्याग दिये । जाने से एक दिन पहले उन्होने मुझे बुला कर कहा था - बेटी मेरे मरने की खबर हेमू को ना देना , वो बेचारा परेशान हो जायगा , और फिर इतनी दूर से तुरन्त आना मुंकिन भी नही होगा । बस तुम मेरे जाने के बाद इस घर में रोज दिया - बाती कर दिया करना । हेमू के आने तक मै उसका इन्तजार इसी घर में करूगीं । मुझे विश्वास है वो समय मिलते ही अपनी माँ से मिलने जरूर आयगा और फिर   तब मैं हमेशा के लिये उसी के पास जा कर रहूंगीं ।

क्या वाकई मरने के बाद भी इन्तजार खत्म नही होते ? क्यों इन्तजार कभी कभी इतना बेदर्द हो जाता है कि जीवन को उसके सामने घुटने टेकने पड जाते हैं ? क्यों हम ऐसा इन्तजार करते है ? ये कुछ ऐसे प्रश्न है जिनके जवाब मैं आज तक ढूँढती हूँ , मगर आज तक अनुत्तरित ही हूँ । बस इन्तजार है कि शायद कभी मुझे मेरे सवालों के जवाब मिल जायें ।


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