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शनिवार, 30 दिसंबर 2017

जिन्दगी वादा है तुमसे नये वर्ष का

जिन्दगी
वादा है तुमसे,
इस वर्ष
नही दूंगी तेरी आंखों में आंसू
नही सिसकेगी तू चुपके चुपके
रात में तकिये के नीचे
नही मरेगी तिल तिल
किसी अत्याचारी के हाथ
नही होने दूंगी उदास
किसी वीरान कोने में चुपचाप
जिन्दगी रहूंगी
प्रतिपल तेरे ही साथ इस साल
बांटूंगी ढेरों खुशियां
ले चलूंगी तुझे 
उन लोगो के बीच
जो हार चुके है तुझसे
हम मिलक भरेंगे उनमें
उम्मीद की नयी रोशनी
जगायेगें उनमें
जीने का हुनर
जो जीते जी, जी रहे है
कभी घुट घुट कर कभी मर मर कर
तेरे साथ मिल कर करना है
मुझे एक यज्ञ
जिसमें दूंगी आहुति
अहंकार क्रोध और द्वेश की
जीतने को जीवन संग्राम
भस्म कर दूंगी
निराशा कुंठा और ईर्ष्या 
जो ले जाती हैं मुझे तुमसे दूर
जिन्दगी
वादा है तुमसे
दूंगी तुम्हे कुछ ऐसा इस साल
करेगी तू नाज
कभी खुद पर कभी मुझ पर
रहूंगी इस वर्ष
प्रतिपल तेरे ही साथ
हर सुख में हर दुख में
समरूपता से सम भाव से

गुरुवार, 21 दिसंबर 2017

अपने अपने कर्म या अपने अपने भाग्य

कॉलेज की सीढियां उतर रही थी, मेरे नीचे की सीढियों पर दो गर्भवती स्त्रियां थी- एक मेरे साथ की ही अध्यापिका थीं और दूसरी थी कॉलेज में काम करने वाली एक मजदूर औरत। एक सम्भल सम्भल कर उतर रही थी, तो दूसरी अपने सिर पर रखी मौरंग की बोरी को ज्यादा सम्भाल कर उतर रही थी या अपने गर्भ में पल रही संतान को कहना मुश्किल था। एक बच्चे को भरपूर फल जूस और मेवे मिल रहे थे और दूसरे को सिर्फ माँ का रक्त। तभी सुबह पढी रामायण की चौपाई याद आ गयी
कर्म प्रधान विश्व रचि राखा, जो जस करई सो तसि फल चाखा।
मन में एक अजीब सा द्वन्द होने लगा। कौन सा कर्म किया है अलग अलग गर्भ में पल रही संतानों ने। क्या एक जन्म में ये मजदूर की संतान भर पायेगी इस भाग्य की खाई को?
और सोचने लगी कर्म बडा या भाग्य

गुरुवार, 14 दिसंबर 2017

कागज की टीस

लैपटाप पर करते करते काम
एकदिन अचानक
आया मुझे याद  
लिखना कागज पर
बैठ गया लेकर
अपना फेवरेट
पुराना लेटर पैड 
और बॉलपेन
जिसके पीले पन्ने
दे रहे थे गवाही
मेरे और उसके
रिश्ते की उम्र की
लिखना
शुरु भी न किया
विचारों का तूफान
हिलाने लगा मस्तिष्क को
नाना प्रकार के ख्याल
घेरने लगे मन को
तभी कानों में आयी
करुण आवाज
इधर उधर देखा
कही किसी को न पाया
सोचा लगता हुयी कोई शंका
बनाने लगा
कोई शेर गजल या कविता
जैसे ही कलम ने
स्पर्श कागज का पाया
फिर से ठ्हरों का स्वर
कानों से टकराया
मै हूँ तुम्हारे लेटर पैड का
पीला पड गया पन्ना
कर ही दी तुमने आज पूरी
मेरी अधूरी तमन्ना
चाह रहा हूँ करना
मित्र तुम्हारा धन्यवाद
अरसे बाद की सही
आयी तो तुम्हे मेरी याद
हर दीवाली जब करते थे तुम
अलमारी की सफाई
मुझे लगता था इस बार तो
मेरी शामत आई
करने लगता था कोशिश छुपने की
किताबों के बीच
डरता था बेंच न दो 
कबाड के बीच
किन्तु मुझ पर जमी धूल
पोंछ कर कुछ सोच कर
जब रख देते थे रैक में
इतरा जाता था झूम कर
तुम्हारी गोद में रखा लैपटाप
हर दिन मुझे चिढाता था
मुझे जलन नही होती
बस खुद पर खेद हो जाता था
कि नही हूँ मैं गतिमान
आधुनिक तकनीक सा
सामर्थ्य भी है सीमित
विस्तॄत भी नही नोट्पैड सा
फिर भी करता हूँ तुमसे
छोटा सा निवेदन
तोडना न कभी
मुझसे अपना बन्धन
चाहे लिखना
पीड़ा मन की
या लिख लेना
याद भूली बिसरी 
चाहे जितना
मुझे काटना 
या मिटाना
मगर
न फेंकना फाड कर
किसी कूडेदान में
बस रख देना सहेज कर
पुनः किताबों के बीच में
यदि सम्भव हो तो मान लेना
मेरी छोटी सी विनती
यूं ही दिखा दिया करो
यदा कदा धूप हवा रोशनी
क्षीण होते शरीर में
आ जायगी कुछ श्वांस
जी उठेगा मुझमें भी
जीवित होने का अहसास
देता हूँ मै भी तुम्हे ये वचन
भले वक्त के कारन
पड जाऊँ धुंधला
किन्तु शब्दों के साथ
सहेजे रहूंगा 
वो सारे अहसास
जो बांटोंगे आज
लिखते लिखते मेरे साथ

गुरुवार, 7 दिसंबर 2017

मै और मेरा वक्त


देखा है
वक्त को
सावन सा बरसते
कभी बूँद बूँद रिसते हुये
देखा है
वक्त को
बच्चे सा भागते
कभी हांफते कदमों से रेंगते हुये
देखा है 
वक्त को
रेत सा फिसलते
कभी बर्फ सा पिघलते हुये
देखा है
वक्त को
नॄतकी सा थिरकते
कभी गुमसुम सुबकते हुये
देखा है 
वक्त को
प्रेमी सा रूठते 
कभी प्रियतम सा उपहार देते हुये
देखा है
वक्त को
साथ साथ चलते
अपना हिस्सा बनते हुये

वो वक्त ही तो है
जो रोया था मेरे साथ
और मेरी हंसी पर हंसा था
वो वक्त ही तो है
जब कोई न था मेरे साथ
तब भी मेरे आस पास था
वो वक्त ही तो है
जो तब भी न गया छोड के मुझे
जब कहा इसे भला बुरा
वो वक्त ही तो है
जिसे कोसा मगर उसने दिया
मुझे विश्वास, हौसला जीने का
वो वक्त ही तो है
जो जन्मा है मेरे साथ
जो छोड देगा जहाँ मेरे साथ 

मंगलवार, 5 दिसंबर 2017

उफ ये बडे आदमी


सुना था
बहुत बडे आदमी थे तुम
फिर क्यों फर्क पढ गया तुम्हे
गर मुझ जैसे छोटे से व्यक्ति ने
नही किया सलाम तुम्हे झुक कर
क्यों रात भेज अपने चार आदमी
बुलवा कर अपनी कोठी
झुका कर अपने पैरों
तुम्हे बताना पडा
तुम वाकई में हो 
बहुत बडे आदमी

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शहर में
शोर है
धूमधाम है
कि जन्मदिन है आज
नेता जी का
लोग कहते हैं जिन्हे
बडे सरकार
जी जान लगा रहे हैं कार्यकर्ता
इन्ताम है
विदेशी सुरा और सुन्दरी का
दिखने को दिख रहा है
उत्साह
मगर
इस उल्लास के पीछे
सहमा है
एक डर
दुबक रही है
एक दहशत
आंखों में सभी की
तैर रहा है
पिछला साल
कैसे एक छोटी सी चूक
के परिणाम में
काटा गया था
रग्घू का सर
केक के बाद

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साहब
आप देवता है
आपकी दया चाहिये
कर रहा हूँ बिटिया की शादी
जो सम्भव ही नही
आपकी मदद के बिना
देवता ने प्रसन्न हो
देखा
चरणों में पडे मनसुख को
चेहरे पर खेल गयी
बहुअर्थीय मुस्कान
शब्द गूंजे
मैं देवता हूँ
तो कहो
क्या लाये हो प्रसाद में
बेचारा मनसुख
पड गया सोच में
आंखों में आ गया
अपनी कुंवारी बेटी का चेहरा
देखा एक बार फिर
आस भरी नजरों से
शायद कुछ हो जाय
वो मानव जिसे बनाया गया था
देवता 
था तो एक मानव ही
आ ही गयी उसे दया
ओढ मुख मंडल पर 
गम्भीर गम्भीरता
दिया आदेश
ठीक है
रात में भेज देना बिटिया को

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बडे लोग ही देख सकते हैं
बडे भव्य सपने
छोटे लोगो के हिस्से तो
सिर्फ आते हैं
सपने
कल की रोटी के

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दरबान
सुबह से रात तक
सैकडों को
करता है
झुक कर सलाम
और आंक लेता है
इंसान के अंदर का इंसान
अंदर जाने वाले के
सलाम को लेने भर के अंदाज से

*************


बडे मजबूर होते हैं
अक्सर बडे लोग
बडी मुश्किल में रहते हैं
अक्सर बडे लोग
बडी आसानी से ले सकते है
किसी की भी जान
फिर उस मामूली जान की
चुका एक बडी कीमत
कमाते है बडा नाम
बन जाते हैं

कुछ और बडे 

शुक्रवार, 1 दिसंबर 2017

एक सुबह ऐसी भी…….



नींद हल्की हल्की सी खुली थी, घडी का पहला अलार्म बजा था, अलार्म बन्द करके सो गयी सोचा आज तो इतवार है, और इतवार का तो मतलब ही है देर से उठना। अभी दुबारा ठीक से सो भी नही पायी थी कि फोन की घंटी बजी- ध्यान आया कि शायद निम्मी की ट्रेन आ गयी होगी। निम्मी मेरी बुआ जी की बडी बेटी। उसका पीसीएस मेन्स क्लिअर हो गया था और उसे इन्टरव्यू देने आना था। मै इलाहाबाद में थी सो मेरे पास आ रही थी। पहली बार आ रही थी तो मैने कह दिया था कि स्टेशन आ जाऊंगी। फोन देखा निम्मी का ही फोन था- दीदी ट्रेन दो घंटे लेट है, जब फाफामऊ आउंगी तब काल कर दूंगी, आप तब आ जाना। अभी आप सो लो। फोन रख कर मै सोचने लगी कि उसको मुझे जगा कर ये बताने की क्या वाकई जरूरत थी कि अभी सो लो। खैर उसने तो कह दिया सो लो मगर मेरी नींद उड चुकी थी सो किचन में जाकर एक कप चाय बनाई और अखबार लेकर बैठ गयी। घडी की तरफ देखा साढे सात बज रहे थे, अचानक से याद आया कभी बचपन में इस समय का कितनी बेसबरी से इन्तजार करते थे, रंगोली जो देखनी होती थी, अनायास ही हाथ पास मे पडे रिमोट पर चला गया और उंगलियां टी वी पर डी डी वन खोजने लगी। एक लम्बे अरसे बाद रंगोली के प्रति वही आकर्षण जाग उठा। रंगोली शुरु हो चुकी थी और गाना आ रहा था- मदहोश दिल की धडकन चुप सी ये तनहाई……..बहुत सी यादे आंखों के सामने तैर सी गयी, वो हर पल याद आने लगा जब मै और वो एक साथ थे, गाने में तो प्यार का फिल्मांकन था, हमने इस प्यार को जिया था। बस मन किया की पल भर में उड के उनके पास पहुँच जाऊँ। उडना तो असम्भव था, रिमोट को म्यूट किया और फोन मिला दिया। सोचा कहूंगी टी वी खोलो, दूर ही सही दोनो एक साथ फिर से इस गाने को एकसाथ सुनते हैं। पूरी कॉल चली गयी मगर फोन न उठा, एक एक करके दस बारह कॉल कर दी, मन में कुछ घबराहट सी होने लगी। रात में तो बात करके सोयी थी, आखिर क्या हो गया। कुछ समझ नही आ रहा था। सोचा अजीत को फोन मिला लूँ, फिर सोचा पता नही, इतनी सुबह उसको फोन करूं तो पता नही वो क्या समझे, एक बार बहुत कहने सुनने के बाद इन्होने अपने रूम पार्टनर अजीत का नम्बर दिया था, बस यही सोच कर लिया था कि साथ रहने वाले का नम्बर तो पास में होना ही चाहिये। तभी डोर बेल बजी, किशन दूध लाया था। दूध लेकर आयी फिर सोचा चलो एक बार और इन्हे कॉल करके देखती हूँ शायद उठ गये हों। सोचा शायद साईलेंट पर करके सो गये हों। कितनी बार कह चुकी कि फोन साइलेंट मोड में मत करके सोया करो मगर नही करनी तो अपने ही मन की है ना। कॉल करने को फोन उठाया ही था कि निम्मी का कॉल आ गया, आवाज आयी- दीदी हम फाफामऊ आ गये, आप आ जाओ। बेमन से स्कूटी निकाली, सोचा निम्मी को ले आती हूँ, शायद तब तक ये उठ ही जाये। भगवान से बस मनाती रही- हे भगवान बस ये सो ही रहे हो, सब ठीक हो। इलाहाबद में कुम्भ चल रहा था, वो रास्ता जो २० मिनट में कवर करती थी, करीब ४५ मिनट लग गये। सोच रही थी अभी तक इनका कॉल नही आया। स्टेशन पहुँची तो देखा बहुत से लोगों की भीड लगी हुयी है लोग भाग रहे थे, शायद कुछ देर पहले ही कोई दुर्घटना घटित हुयी थी। स्कूटी एक किनारे लगाई निम्मी को कॉल किया। फोन स्विच ऑफ। दिल बहुत तेज घबराने लगा। कही निम्मी को …. नही नही ऐसा कुछ नही हुआ होगा। खुद को सम्भालते हुये भीड से भिडते टकराते स्टेशन के अन्दर गयी। लोग पागलों की तरह इधर उधर भाग रहे थे। लोगो की बातों से अंदाजा हुआ कि आखिरी समय में ट्रेन का प्लेटफार्म बदलने के कारण भगदड मच गयी थी जिससे शायद एक व्यक्ति की मृत्यु हो गयी थी और कुछ लोग घायल भी हो गये थे। हर तरफ नजर दौडा ली निम्मी का कुछ पता नही चल रहा था। फोन लगातार स्विच ऑफ जा रहा था, तब तक एनाउन्समेंट हुआ, गोरखपुर से आने वाली गोरखपुर एक्सप्रेस अपने नियत समय से तीन घंटा लेट से चल रही है। गाडी कुछ ही देर में प्लेटफार्म नम्बर दो पर आ रही है। भगवान को थैन्क्स बोला कि चलो निम्मी ठीक है, मन की परेशानी शान्त हुयी मगर सहसा बगल से एक बुरी तरह से घायल व्यक्ति को ले जाते लोगों को देख कर अपने इस तरह से स्वार्थी होने पर मन लज्जा से भर गया। सोचने लगी कैसे हम लोग अपने आस पास की समस्याओं से संवेदना शून्य हो जाते हैं। तभी ट्रेन के आने की आवाज आयी। एक पल पहले मन मे आये लज्जा भाव को वही छोड आने वाले डिब्बों में निम्मी को ढूंढने लगी। धीरे धीरे निकलते ट्रेन के ड्ब्बों में से निम्मी दिखी, वो रो रही थी। एक बार फिर दिल घबरा गया, आखिर क्यों रो रही है, तभी ख्याल आया ओह शायद उसका मोबाइल चोरी हो गया है, अच्छा तभी फोन स्विच ऑफ जा रहा था। ट्रेन लगभग रूक गयी थी, मै निम्मी के ड्ब्बे की तरफ बडी। निम्मी ट्रेन से उतरते ही मेरे गले लग के रोने लगी। कोई चलती ट्रेन से उसका बैग ले कर कूद गया था। उसमें उसके सारे डॉकूमेन्ट्स थे। किसी तरफ से निम्मी को चुप करा कर घर लायी, मन में एक तरफ निम्मी के लिये दुख हो रहा था और दूसरी तरफ इनके लिये चिन्ता। ये कहना मुश्किल है मन किसके लिये ज्यादा परेशान था। किसी तरह उसे चुप करा किचन मे चाय बनाने गयी। सुबह का चाय का भगौना शिकायत करने लगा- सुबह चाय तो बडे मन से बनायी थी न,  देखो जाकर अभी भी मेज पर पडी रो रही है। फिर ख्याल आया निम्मी भी तो रो रही है, फटाफट चाय बनायी।
कल बडे मन से बिग बाजार से रेडीमेड आलू की टिक्की लायी थी निम्मी की फेवरेट जो थी, सोचा था सुबह नाश्ते मे फटाफट डी फ्राई कर दूंगी, मगर मै जानती थी कि अभी न तो निम्मी कुछ खा पायेगी और न मै सो सिर्फ नमकीन बिस्किट निकाल लिये।


तभी मोबाइल पर रिंग हुयी, मन ने कहा पक्का इनका ही फोन होगा। सोचा अब मै भी नही उठाती फोन, इनको भी तो समझ आये कि फोन न उठाने पर कितनी चिन्ता हो जाती है, मगर मन कहाँ मानने वाला था, फोन उठा लिया, मगर ये क्या अजीत की कॉल? एक पल में मन फिर से हजारों शंकाओं से घिर गया। फोन उठाया, चिरपरिचित आवाज आई- हैलो उठ गयी कि नही।कुछ समझ नही आया बस रो पडी, 
उधर से आवाज आयी- अरे क्या हुआ , कुछ तो बताओ, सब ठीक तो है ना, 
थोडा सम्भलते हुये शिकायत के लहजे में कहा- सुबह से कहाँ थे, कितनी बार कॉल कर चुकी, आप तो निश्चिन्त सो रहे थे और मै परेशान हो रही थी। 
अरे प्लीज रुको मेरी बात तो सुनो- कल रात तुमसे बात करने के बाद हम और अजीत छत पर गये, पता नही कैसे मेरा मोबाइल गिर गया और उसका डिस्प्ले खराब हो गया। और तुम तो जानती ही हो अकसर मै फोन साइलेंट पर रखता हूँ और फिर तुमने ही तो कल कहा था कि कल सनडे है ग्यारह बजे तक सोऊंगी सो मैने सोचा शायद अब उठ गयी हो इसलिये कॉल की। लेकिन हाँ आज एक प्रामिस करता हूँ अब से कभी मोबाइल साइलेंट पर करके नही सोऊंगा। अब तो हंस दो प्लीज। तभी याद आया कि चाय तो पक कर आधी हो चुकी होगी और निम्मी… 
अच्छा सुनो हम आज शाम नही मिल रहे, निम्मी आयी हुयी है, तुमको और भी बहुत कुछ बताना है, अभी रखती हूँ, फिर कॉल करूंगी। बॉय, और धीरे से आई लव यू जी कह फोन रख वापस चल दी किचन की ओर। मुडते हुये नजर म्यूट चल रहे टी वी पर पडी, स्टेशन पर घायल पडे लोगो को अस्पताल ले जने की तस्वीरे दिखायी जा रही थी। अचानक से वापस वो दर्द वो चीखें कानों में पडने लगी।
और मै सोचने लगी - आज सुबह से कितना कुछ हो गया............

सोमवार, 27 नवंबर 2017

आई एम सॉरी


लकड़ी से सहारे
भीड़ भरी 
फुटपाथहीन सडक पर
किनारे किनारे
धीरे धीरे चलते
वृद्ध से
टकराता है
एक सत्रह अठारह साल का
मोबाइल पर वयस्त
मार्ड्न युवक
सडक के कुछ बीच
जा गिरती है
लाठी
बिखर जाती है
दूसरे हाथ में
मजबूती से पकडी
कुछ दवाइयां
लडखडा जाते है पैर
युवक हल्का सा रुकता है
उतारता है
रेबन के सन ग्लास
कट करता है कॉल
कानों से निकलता है
इयरफोन
झुक कर देखता है
रीबोक की जींस पर
शायद पड गये दवा के दाग
तभी याद आता है उसे
अपना कर्तव्य
या क्लास की शिक्षा
देखता है वृद्ध की ओर
बोलता है
आई एम सॉरी
संतुष्ट भाव से
कानों पर लगा इयर फोन
चल देता है
वृद्ध
करता है कोशिश
उठने की
कुछ संभल कर
उठाता है गिर गयी लाठी,
जो फंस गयी है
आती जाती कारों और बाइक के बीच
समेटता है 
बिखरी दवाइयां
और मुड़ जाता है वापस
अपनी नियत चाल से कुछ तेज
वही सडक पर छोडकर 
भावहीन सॉरी

बुधवार, 22 नवंबर 2017

रंगे सियार


भरोसा उठने सा लगा
जमाने में लोगों से
जिससे भी दो बात की
वो बेअदब होने लगा

रख सका लिहाज
उम्र का या ओहदे का
मदद की आड में
वो बेशरम होने लगा

नकाब ओढ़ा तो बहुत
सलीकों, तहजीबों का
करगुजारियों से अपनी
बेनकाब होने लगा

बहुत संभल के पेश की
उसने शख्सियत अपनी
चंद पलों में उसका रंग
बदरंग होने लगा

न रख सका आबरू
उस इज्जत की जो हमने दी
तमीजदारों की महफिल में
बदतमीज होने लगा

जिधर भी देखा 
हर शहर जंगल सा हुआ
शेर की आड में आदमी
रंगा सियार होने लगा

मंगलवार, 21 नवंबर 2017

रिक्शेवाली की बेटी


वसुधा जब से स्कूल से आयी, बस रोये जा रही थी। तुलसी ने उसको चुप कराने की सारी कोशिश करके देख ली, मगर वसुधा का रोना ही नही बन्द हो रहा था। तभी तुलसी को याद आया कि वसुधा पिछले एक हफ्ते से चाकलेट की जिद कर रही थी, मगर उसकी गरीब माँ जानती थी कि एक चाकलेट के पैसों से एक वह पूरे एक हफ्ते की सब्जी ला सकती है, उस पर वो डरती भी थी कि एक बार उसकी बेटी जब चाकलेट का स्वाद जान जायगी तब वह रोज रोज जिद करेगी, मगर वसुधा को चुप करा पाने में असमर्थ तुलसी ने चाकलेट ले ही आने का निर्णय लिया, और दाल के डिब्बे में छुपाया बीस के उस नोट को निकाला जो उसने यह सोच कर रखा था कि कभी जरूरत पडने पर इससे वह अपनी बेटी के लिये दवा ला सकेगी, उस नोट से चाकलेट खरीदने को उठते हुये बोली- वसू चुप हो जा मेरी प्यारी बिटिया, चलो अच्छा आज तुम्हारी चाकलेट ले आते हैं। सिसकते हुये वसू बोली- नही हमको कुछ नही चाहिये, चाकलेट भी नही चाहिये, और फिर रोने लगी। और रोते रोते थक कर माँ की गोद में कब सो गयी। वो अबोध क्या जाने कि उसकी माँ अन्दर ही अन्दर खुद को कितना असहाय महसूस कर रही थी, हजारों सवाल मन में उठ रहे थे, आखिर उसकी सात साल की बेटी क्यों इतना रो रही है, आज नये स्कूल में उसका पहला दिन था, पहले ही दिन आखिर ऐसा क्या हो गया? फिर सोचने लगी चलो अच्छा हुआ सो गयी, उठेगी तब तक शायद बता पाय।
शाम तक बसू सोती ही रही, रग्घू जब घर आया तो उसकी आवाज से वसू जग गयी, उठते ही रग्घू से लिपट गयी- और फिर रोने लगी। तुलसी और रग्घू दोनो ही कुछ समझ नही पा रहे थे। रग्घू ने उसको गोद में उठा लिया, आसूं पोछ लाड से बोला- क्या हुआ, मेरी बिटिया रानी ने कोई सपना देखा क्या- वसू सिसकते हुये बोली- नही, फिर कुछ रुक कर बोली- पापा आज स्कूल में सब मुझे रिक्शेवाली की लडकी कह कर चिडा रहे थे, क्लास में कोई मेरे साथ वाली सीट पर नही बैठा, कोई मेरे साथ खेला भी नही, सब लडकियां कह रही थी – ये रिक्शेवाली की लडकी है, इसके पापा को हम पैसे देते है, तभी तो ये पढने स्कूल आयी है। पापा मै कल से स्कूल नही जाऊंगी।
रग्घू को समझ आ गया कि किसी ने उसे वसू के स्कूल में सुबह देख कर पहचान लिया होगा, स्कूल के किसी बच्चे के भाई या बहन को वह दूसरे स्कूल छोडता होगा। उनके लिये तो वह रिक्शेवाला ही है न कि वसू का पापा। तभी उसे याद आने लगा कि कितनी बार तुलसी ने उससे कहा था कि ऊंचे स्कूल में एडमीसन न कराओ, इत्ते बडे स्कूल में पढाने की हम लोगो की हैसियत नही है, और फिर अगर किसी तरह र पेट काट कर फीस जमा भी कर दी तब भी ऊंचे घर के बच्चों के बीच हमारी वसू दब कर रह जायगी। तुलसी समझती थी कि गरीब की लडकी को कोई सम्मान की निगाह से नही देखता, ये समाज गरीब की लडकी को नीच, चरित्रहीन और न जाने क्या क्या अपनेआप समझ लेता है। वो जानती थी कि अगर किसी तरह उसने अपनी लडकी को पढा भी लिया तो भी क्या, क्या कोई भले घर का आदमी एक रिक्शेवाले की बेटी को अपनी बहू बनायेगा। ऐसा नही था कि रग्घू इन सब बातों से अनजान था मगर उसके जीवन का एकमात्र सपना था- वसू को कलक्ट्ट्र बनाना। इसीलिये वह पढाई के साथ किसी भी तरह का समझौता करने को बिल्कुल भी तैयार न था।
रग्घू गरीब जरूर था मगर इरादों का पक्का था। अचानक रग्घू को याद आया सुबह जब वह वसू को रिक्शे से उतार रहा था, डॉक्टर श्रीवास्तव अपनी बेटी को कार से उतार रहे थे। उसने बडे प्यार से वसू को समझाया। बोला- बिटिया- लोगों की बात ठीक ही तो है- इस दुनिया में सब लोग एक दूसरे से काम लेते है और पैसा देते है ।  तुमको याद है जब तुमको बहुत बुखार आया था तब हम तुमको एक बडे डॉक्टर के पास ले गये थे। हमने उनको फीस भी दी थी, दी थी न, छोटी सी वसू ने पापा की हाँ में हाँ मिलाते हुये बोला- हाँ पापा आपने दो सौ रुपये दिये थे। रग्घू बोला – हाँ , और इन पैसों से उन्होने अपनी बेटी की स्कूल फीस दी होगी। जानती हो उनकी बेटी भी तुम्हारे ही स्कूल में पढती है।
बिटिया- ये दुनिया का चक्र ऐसे ही चलता है, हर कोई कुछ काम करता है और पैसा कमाता है। हम कुछ काम करते है तो पैसा मिलता है, ये पैसा हम किसी और को देते हैं उससे वो कोई काम करता है। अगर इस तरह किसी का बुरा मानोगी तो लोग तुमको और परेशान करेंगे।
अच्छा अब एक बात तुम बताओ- तुमको क्या मेरा रिक्शा चलाना बुरा लगता है? नही पापा, बसू ने स्पष्ट उत्तर दिया। रग्घू की आखें छलक आयी, उसे विश्वास हो रहा था कि उसकी नन्ही सी बिटिया एक दिन उसके सपने साकार करेगी।
बीस साल पहले घटी ये घटना ही वसु के जीवन को बना सकी थी। कहते हैं मन की सच्ची लगन और मेहनत कभी निष्फल नही जाते। रग्घू तुलसी और वसुधा को बरसों की मेहनत और आत्मविश्वास का परिणाम मिला था। आज के हर अखबार की हेड लाइन थी- रिक्शेवाली की बेटी बनी आई. ए. एस. टॉपर।

आज शहर का शायद ही कोई ऐसा बडा आदमी रहा होगा जिसे बसुधा को अपने घर की बहू बनाने से ऐतराज रहा हो। शायद ही कोई ऐसा हो जो वसू से बात न करना चाहता हो, आज हर कोई वसू को देख कर कह रहा था- देखो ये एक रिक्शेवाली की बेटी है मगर आज ये शब्द एक तंज नही मिसाल बन रहे थे।
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