प्रशंसक

गुरुवार, 7 दिसंबर 2017

मै और मेरा वक्त


देखा है
वक्त को
सावन सा बरसते
कभी बूँद बूँद रिसते हुये
देखा है
वक्त को
बच्चे सा भागते
कभी हांफते कदमों से रेंगते हुये
देखा है 
वक्त को
रेत सा फिसलते
कभी बर्फ सा पिघलते हुये
देखा है
वक्त को
नॄतकी सा थिरकते
कभी गुमसुम सुबकते हुये
देखा है 
वक्त को
प्रेमी सा रूठते 
कभी प्रियतम सा उपहार देते हुये
देखा है
वक्त को
साथ साथ चलते
अपना हिस्सा बनते हुये

वो वक्त ही तो है
जो रोया था मेरे साथ
और मेरी हंसी पर हंसा था
वो वक्त ही तो है
जब कोई न था मेरे साथ
तब भी मेरे आस पास था
वो वक्त ही तो है
जो तब भी न गया छोड के मुझे
जब कहा इसे भला बुरा
वो वक्त ही तो है
जिसे कोसा मगर उसने दिया
मुझे विश्वास, हौसला जीने का
वो वक्त ही तो है
जो जन्मा है मेरे साथ
जो छोड देगा जहाँ मेरे साथ 

8 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत हृदयस्पर्शी रचना है ये, मानो सबकुछ सामने ही घट रहा हो...

    जवाब देंहटाएं
  2. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द" में सोमवार ११ दिसंबर २०१७ को लिंक की गई है.................. http://halchalwith5links.blogspot.com आप सादर आमंत्रित हैं ,धन्यवाद! "एकलव्य"

    जवाब देंहटाएं
  3. सुंदर रचना अर्पणा जी ।
    मन की पाती जी - मैंने भी एक इसी विषय पर कविता लिखी थी परंतु यह मेरे द्वारा लिखी कविता नही है । हो सकता है कविता को पढ़ते हुए आपको ऐसा लगा लेकिन मेरा कर्तब्य है कि मैं ऐसे क्लियर करूं ।
    धन्यवाद आप सभी साहित्यकारों का

    जवाब देंहटाएं
  4. अति सुंदर जीवन दर्शन आदरणीय अपर्णा जी !! सस्नेह शुभकामना |

    जवाब देंहटाएं

आपकी राय , आपके विचार अनमोल हैं
और लेखन को सुधारने के लिये आवश्यक

GreenEarth