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बुधवार, 23 जुलाई 2014

जली रोटी


चूल्हे में रोटी बनाने की वो बिल्कुल भी अभ्यस्त नही थी, तकलीफ उसे चूल्हे से उठ्ने वाले धुंये से नही थी, बल्कि दिल इस बात से दुखी हो रहा था कि बहुत कोशिश करने के बाद भी रोटियां जल जा रहीं थी आज पहली बार वो बसंत को अपने हाथ से बना खाना बना कर खिलायेगी, वो भी ऐसा ! बसन्त शायद तभी बार बार उसे मना कर रहा था कि वो बना लेगा। जब पहली रोटी जली तो उसने ये सोच लिया कि ये हम खा लेगें दूसरी और तीसरी जलने पर भी उसने यही सोच कर मन को समझा लिया, जब चौथी जली तो सोचा कि बाकी की सावधानी से बनायेगी। मगर एक एक करके सभी लगभग एक जैसी ही बनी। अब वो क्या करे?
वो सारी जली रोटियों मे से वो छाँटने लगी जो कम जली थी, कि तभी बसन्त आया और बोला - जल्दी से खाना लगा दो, बडी भूख लग रही है, आज बरसों बाद रोटियां बनी बनाई मिल रही है। छः बरस पहले जबसे माँ गुजरी, खुद की ही बनाई खायी अब तो माँ के हाथ का स्वाद लेके बस मुँह में पानी और आंखों में आसूँ ही आते है। अपनी बनाई से पेट तो जैसे तैसे भर जाता है, पर आत्मा नही भरती।
लाओ अब जल्दी से थाली लगा दो, पता है आज कारखाने में धीरज मुझसे क्या कह रहा था , बोला - भैया कुछ भी कहो मगर शादी करके कम से कम तुम्हारा एक तो फायदा हुआ, अब घर जा कर थाली परसी हुयी मिलेगी।
तभी बसन्त ने देखा माधवी मिटेटी की सी बुत बनी बस रोटी के कटोरदान की तरफ देखे जा रही थी
बसन्त ने उसको थोडा सा हिलाते हुये मुस्करा कर कहा- क्या हुआ, कहाँ खोई हुयी हो, घर की याद  रही है क्या? तुम भी सोच रही होगी, किस गरीब से पाला पड गया तेरे मायके में तो गैस है ना  और यहाँ गैस की कौन कहे एक स्टोव तक नही। पर तुम चिन्ता मत करो, अब जब तक मैं गैस नही ला पाता रोटी मै बना लिया करूँगा, तुम सब्जी वगैरह पका लिया करना मिलजुल कर जिन्दगी की गाडी धीरे धीरे चल ही जायगी।
बसन्त की बात सुनने सुनते माधवी सिसकने लगी। बसन्त उसके रोने पर घबरा के बोला - अरे क्या हुआ? कही हाथ वाथ तो नही जल गया। और उसका हाथ अपने हाथ मे ले कर देखने लगा। तभी माधुरी एकदम बिफर पडी और रोते रोते बोली - मैं एक अच्छी पत्नी नही, मैं तो आपको दो अच्छी रोटियां भी बना के नही दे सकती। मैने सारी की सारी रोटियां जला दी। वो कुछ और कहती इससे पहले बसन्त ने एक हाथ से कटोरदान से एक रोटी और दूसरे से उसके आंसुओं को मोती की तरह अपनी उंगली पर लेते हुये कहा - अरे इसको तुम जली हुयी कह रही हो, ये तो बहुत अच्छी हैं, आज से छः बरस पहले तुमने देखा होता तब जानती जली रोटी किसे कहते हैं।
और फिर पगली, पेट से ज्यादा जरूरी होता है मन का भरना, आत्मा का भरना, और वो तो तुमने मेरी जिन्दगी में आते ही भर दिया।

मुझे रसोई संभालने वाली से ज्यादा मेरी जिन्दगी संवारने वाली की जरूरत थी।

मंगलवार, 22 जुलाई 2014

वरना तो अब तलक .........


घनी जुल्फों की छाँव क्या मिली, 
अंधेरों के कायल हो गये, 
वरना तो अब तलक हम भी,
उजालों के तलबगार थे..........

नजरें उनसे क्या चार हुयी
सादगी के कायल हो गये,
वरना तो अब तलक हम भी,
तितलियों के तलबगार थे..........

बलखा के चलते क्या देखा उन्हे
पायल के कायल हो गये,
वरना तो अब तलक हम भी,
घुंघरुओं के तलबगार थे..........

दिल में उनकी जो ख्वाइश जगी
मोहब्बत के कायल हो गये,
वरना तो अब तलक हम भी,
महफिलों के तलबगार थे..........

हम मिलकर उनसे बिछडे क्या 
प्यासी शाम के कायल हो गये,
वरना तो अब तलक हम भी,
रात - ए - मैखानों के तलबगार थे..........

रविवार, 20 जुलाई 2014

एक प्रश्न ?


पूज्य पिता जी
क्षमाप्रार्थी हूँ,  
कभी आपकी अनुमति के बिना मैं कही दूर तो क्या पडोस मे कमला चाची के घर भी नही गयी किन्तु आज जीवन में पहली बार आपसे आज्ञा और आशीष लिये बिना ही घर से निकल आई हूँ। और निकली भी हूँ तो एक ऐसी यात्रा पर जिसका ना तो मुझे गंतव्य मालूम है और ना ही रास्ता, ज्ञात है  तो सिर्फ अपना लक्ष्य। 
आपके दिये हुये इस जीवन में आपसे बहुत कुछ कुछ सीखा, संक्षेप में कहूँ तो आज जो थोडी बहुत बुद्दि और साहस मुझमें है तो वह आपके लालन पालन से ही है। माता जी का आँचल तो मुझ बदनसीब को जन्म से ही नही मिला किन्तु आपके स्नेह ने मुझे कभी ममता की कमी महसूस नही होने दी। आपसे मुझे जीवन की कठिन से कठिन लडाई को सच्चाई और मानवता के सहारे जीतने का पाठ मिला है।
आपने सदैव ही मेरी हर परेशानी को बहुत आसानी से सुलझाया है मगर आज मेरे सामने एक ऐसा प्रश्न खडा हो गया है, जिसका उत्तर आपके पास भी नही है और हम आपको अनुत्तरित होते देखने का साहस नही रखते, इसीलिये स्वंय ही उत्तर की खोज में निकल आयी हूँ
सदा से ही आपने सिखाया कि प्रेम से बडा कोई धर्म नही होता, प्रेम की कोई जाति नही होती। प्रेम तो बस प्रेम होता है, यदि प्रेम में भेद हो तो वह प्रेम नही बचपन से ही आपने इस बात को कभी रामायण के प्रसंगों से समझाया कभी कबीर और रहीम के पघों से सिखलाया। कल तक आप वैदिक से बहुत स्नेह रखते थे, किन्तु जब हमने आपसे यह स्वीकार किया कि हम और वैदिक विवाह सूत्र में बँधना चाहते है तब आपने कहा - बेटी विवाह स्वजाति , स्वधर्म में ही शोभा देता है, वैदिक का और हमारा कुल अलग है। तुम अपने मन में उसके प्रति जो लगाव है उसे स्थान मत दो।
कल रात भर हम आपकी बातों पर विचार करते रहे। मुझे समझ नही आया कि क्या दो लोगो का आपस मे विवाह लेने का निर्णय इस आधार पर नही हो सकता कि वह दोनो प्रेम धर्म को मामने वाले हैं? क्या आप जब वैदिक से स्नेह करते है तब यह बात क्यों नही आती कि दो विभिन्न धर्म के किन्तु एक लिंग के लोग भी आपस में प्रेम भाव नही रख सकते? आखिर क्यों दो प्रेम धर्म को मानने वाले प्राणियों को विवाह जैसी संस्था में प्रवेश की अनुमति नही मिलती
आशा करती हूँ, शायद समाज के बनाये नियमों के पीछे छिपे तर्को को मैं खोज निकलूंगी, शायद यह बात मैं समाज में स्थापित कर पाऊंगी कि प्रेम धर्म वाकई में सबसे बडा धर्म है और सफल विवाह की बुनियाद भी। समाज की रचना के लिये जैसे विवाह अनिवार्य है , वैसे ही विवाह के लिये प्रेम ना कि जाति , धर्म का मिलान जो हमारे समाज ने अपनी सहूलियतों के हिसाब से गढ लिये है।

आशीर्वाद की आकांक्षिणी
आपकी स्नेहिल पुत्री

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