घनी जुल्फों की छाँव क्या मिली,
अंधेरों के कायल हो गये,
वरना तो अब तलक हम भी,
उजालों के तलबगार थे..........
अंधेरों के कायल हो गये,
वरना तो अब तलक हम भी,
उजालों के तलबगार थे..........
नजरें उनसे क्या चार हुयी
सादगी के कायल हो गये,
वरना तो अब तलक हम भी,
तितलियों के तलबगार थे..........
तितलियों के तलबगार थे..........
बलखा के चलते क्या देखा उन्हे
पायल के कायल हो गये,
पायल के कायल हो गये,
वरना तो अब तलक हम भी,
घुंघरुओं के तलबगार थे..........
घुंघरुओं के तलबगार थे..........
दिल में उनकी जो ख्वाइश जगी
मोहब्बत के कायल हो गये,
वरना तो अब तलक हम भी,
महफिलों के तलबगार थे..........
हम मिलकर उनसे बिछडे क्या
हम मिलकर उनसे बिछडे क्या
प्यासी शाम के कायल हो गये,
वरना तो अब तलक हम भी,
रात - ए - मैखानों के तलबगार थे..........
ऐसे ही होना था कायल !
जवाब देंहटाएंअच्छी ग़ज़ल !
सुंदर ।
जवाब देंहटाएंहम भी कायल हो गए..
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना .
हम भी कायल हो गए..
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना .
बहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंबहुत खूब ...
जवाब देंहटाएंबहुत खूब बेहतरीन
जवाब देंहटाएंबहुत सटीक पंक्तियाँ
जवाब देंहटाएंshandar....
जवाब देंहटाएंएकदम सटीक पंक्तियाँ
जवाब देंहटाएंये अंदाज पसंद आया