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बुधवार, 6 अगस्त 2014

नारी


एक अबला आकार
कहते जिसे नारी,
दो मात्राओं से
नर पर है भारी।
वैसे तो है ये
जीवन का आधार,
मगर पुरुष मानता
इसे निराधार।
पत्थरों में पूजता
शक्ति के रूप में,
बल से चोट करता
छाया या धूप में।
मिटाना चाह रहा
हमारा अस्तित्व,
जाने कैसे बचायेगा
अपना व्यक्तिव।
ललकारती हूँ आज
ऐ बली नर तुझे,
मिटा कर रख दे
आज बस अभी मुझे।
कम से कम धरा से
जीवन तो खत्म हो,
एक स्वस्थ स्रुष्टि की

शायद रचना तब हो।

शुक्रवार, 1 अगस्त 2014

सखी मोहे सावन मन भायो

बीते सोमवार की शाम् मेरी भाभी का फोन आया - तुम हिन्दुस्तान अखबार के लिये सावन पर एक लेख लिखोगी क्या? मैने बिना ज्यादा सोचे समझे हाँ कर दी तो उन्होने कहा कल आज रात तक या कल सुबह जितनी जल्दी हो भेज देना। हम उस समय एक सप्ताह की छुट्टियां मनाने के लिये अपने छोटे भाई के पास दुर्ग से करीब १०० किलोमीटर दूर दल्लीराजरा आये हुये थे, सारे काम निपटाते हुये रात ढाई बजे लिखना शुरु किया, जीवन में पहली बार अखबार के लिये लिखने का पहला अनुभव था, मन में उत्साह भी था, और खुशी भी। सुबह के साढे पाँच बजे लिख तैयार हुआ।

जितना मुझे अंदाजा था उससे भी ज्यादा खुशी मुझे तब मिली जब अगले दिन के अखबार में माँ - पापा ने उसे पढ कर हमे फोन किया, बधाई दी और आशीर्वाद भी मिला जीवन में निरन्तर आगे बढने का।
आप सभी से वो लेख बाँट रही हूँ, सुना है खुशियां बांटने से ही बढती हैं ........


सखी री देखो सावन आयो,
बदरा मोहे डरायो,
बिनु प्रियतम मोहे अगन लगाने
क्यूँ यह बैरी आयो ।
वहीं दूसरी तरफ एक सखी कहती है,
सखी मोहे सावन मन भायो,
पिय ने अंग लगायो,
शिव ने सुन ली अरज हमारी,
बरखा प्यास बुझायो ॥
और कभी कभी तो ये सावन एक ऐसा दूत बन जाता है, जिसका खाली हाथ आना प्रेमिका को नागवार गुजरता है और वो कहती है---

लौटा देंगें सावन तुमको, बिन बरसे हम घर से ।
पियतम बिन जो आये तुम, सूखी बरखा लेकर के ॥

सावन में कुछ तो है जहाँ एक तरफ मन्दिरों से चारो दिशाओं में “ऊँ नमः शिवाय” की ध्वनि गुंजायमान हो कर मन को आध्यात्मिक शीतलता प्रदान करती है वही दूसरी तरफ बिछडे प्रेमियों के लिये सावन की शीतल बूंदें अग्नि के समान हो जाती हैं। कभी तो ये सावन की बरखा विवहितों को पीहर की याद दिला जाती है तो कभी कुवांरियों के लिये सावन के झूले मन में अपने जीवन साथी के सपनों की उडान ले कर आते हैं। जीवन का कोई ऐसा रस नही जिसे सावन ने अपने में ना भिगोया हो – चाहे वो संयोग हो, विरह हो, भक्ति हो या भाई - बहन का स्नेह।
सावन का शिव और शिव का सावन से एक गहरा नाता है। ऐसी मान्यता है कि समुद्र मंथन में समुद्र से विष निकला था। इस हलाहल को पीने के लिए शिव जी आगे आए और उन्होंने विषपान कर लिया। जिस माह में शिवजी ने विष पिया था वह सावन मास था। विष पीने के बाद शिवजी के शरीर का  ताप बढ़ गया। शिवजी के विषपान से उत्पन्न ताप को शीतलता प्रदान करने के लिए मेघराज इन्द्र ने भी बहुत वर्षा की थी। इससे भगवान शिव को बहुत शांति मिली। इसी घटना के बाद सावन का महीना भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए मनाया जाता है। सारा सावन, विशेष रुप से सोमवार को, भगवान शिव को जल अर्पित किया जाता है। महाशिवरात्रि के बाद पूरे वर्ष में यह दूसरा अवसर होता है जब भगवान शिव की पूजा बडे़ ही धूमधाम से मनाई जाती है। सावन को भगवान शिव का माह मानने के पीछे एक और पौराणिक कथा है। इस कथा के अनुसार देवी सती ने अपने पिता दक्ष के घर में योगशक्ति से अपने शरीर का त्याग कर दिया था। अपने शरीर का त्याग करने से पूर्व देवी ने महादेव को हर जन्म में पति के रुप में पाने का प्रण किया था। अपने दूसरे जन्म में देवी सती ने पार्वती के नाम से हिमालय और रानी मैना के घर में जन्म लिया। इस जन्म में पार्वती ने युवावस्था में भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए सावन के माह में निराहार रहकर कठोर व्रत किया। भगवान शिव पार्वती से प्रसन्न हुए और बाद में यह व्रत सावन के माह में विशेष रुप से योग्य पति की कामना हेतु रखे जाने लगे। 
सावन के महीने का सिर्फ शिव ही नही साहित्य से भी गहरा सम्बन्ध रहा है। साहित्य की कोई ऐसी विधा नही, जिसमें सावन का उल्लेख ना हो, कोई सह्रदय कवि नही जिसकी लेखनी सावन की बरखा में भीगी ना हो, कोई ऐसा चित्रकार नही जिसने अपनी कूंची से सावन की बूंदों को रंगा ना हो और कोई ऐसा दशक नही जब फिल्मकारों ने सावन को फिल्मी परदे पर बरसाया ना हो।
१९४९ में राज कपूर ने फिल्म बरसात के गीत “ बरसात में हम तुमसे, तुम हमसे मिले बरसात में” से हिन्दी फिल्म जगत को जब फिल्मी सावन में भिगोया तो फिल्मकारों को जैसे एक नया विषय मिल गया । फिर १९५३ में विमल दा की फिल्म दो बीघा जमीन में लता और मन्ना डे जी की आवाज में गाये गीत “ हरियाला सावन ढोल बजाता आया” ने सावन के अलग ही रंग को दिखाया। जिसमें सावन को भारतीय खेती और किसानों की खुशी से जोडा गया। उसके बाद तो जैसे सावन के मौसम के बिन फिल्में सूखी सी होने लगीं। आज भी ऐसे बहुत से गीत है जो सावन के आते ही बरबस होठों पर आ जाते है। फिल्म जगत ने सावन के गीतों को मुख्यतः तीन रूपों में चित्रित किया है – मिलन के गीत, बिरह के गीत और सावन के आने पर खुशी से झूम उठते किसानों के गीत।
       सावन का एक और भी रंग है जो बहनों की हथेलियों पर मेंहदी और भाइयों की कलाइयों पर राखी बन कर आता है। सावन की पूर्णिमा अपने साथ ले कर आती है रक्षाबन्धन का त्योहार, जब हर भाई अपनी बहन से 
राखी के कच्चे धागे में बांधता है संकल्प अपनी बहन के मान सम्मान की रक्षा का।
सावन का महीना, अपने साथ सिर्फ पानी की बूंदें ही नही लाता, वो लेकर आता है पूरा जीवन, जिसे जो जैसे चाहे जी ले, चाहे कागज की नाव अपने आंगन की नदी में चलाये, चाहे सावन को बैरन समझ के अपनी जी जलाये, चाहे शिव के शिवत्व में भीग जाय या फिर बारिश की बूंदों से धरती के साथ साथ अपने अन्तस की तपिश को कम होता हुआ अनुभूत किया जाये। सम्भवतः इसीलिये सुमित्रानन्दन पंत ने सावन की खुमारी में झूमते हुये उसे जीवन में बारम्बार आने का न्योता दे डाला है-

पकड़ वारि की धार झूलता है मेरा मन,
आओ रे सब मुझे घेर कर गाओ सावन!
इन्द्रधनुष के झूले में झूलें मिल सब जन,
फिर फिर आए जीवन में सावन मन भावन!

इति
प्रस्तुतकर्त्री
अपर्णा त्रिपाठी “पलाश”



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