एक अबला आकार
कहते जिसे नारी,
दो मात्राओं से
नर पर है भारी।
वैसे तो है ये
जीवन का आधार,
मगर पुरुष मानता
इसे निराधार।
पत्थरों में पूजता
शक्ति के रूप में,
बल से चोट करता
छाया या धूप में।
मिटाना चाह रहा
हमारा अस्तित्व,
जाने कैसे बचायेगा
अपना व्यक्तिव।
ललकारती हूँ आज
ऐ बली नर तुझे,
मिटा कर रख दे
आज बस अभी मुझे।
कम से कम धरा से
जीवन तो खत्म हो,
एक स्वस्थ स्रुष्टि की
शायद रचना तब हो।
सार्थक सशक्त रचना ! बहुत सुन्दर !
जवाब देंहटाएंमिटाएगा नहीं ,अपनी प्रभुता दिखाने को कुछ भी करने से झिझकेगा भी नहीं -अहंकारी जीव है सीधे से रास्ते पर आएगा नहीं !
जवाब देंहटाएंनारी कभी न हारी
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर
बढ़िया जी
जवाब देंहटाएंरचना अच्छी लगी ।
जवाब देंहटाएंwaah kya bat hai bahut hi sundar
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