प्रशंसक

शनिवार, 29 जून 2019

मै स्त्री हूँ


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मै स्त्री हूँ
सजीव कल्पना की
परिधि का
केन्द्र बिन्दु
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मै स्त्री हूँ
फूल नही
चाहे जितना कुचलो
जी उठूंगी
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मै स्त्री हूँ
अदा की साम्राज्ञी
नही मुझे जरूरत 
किसी हथियार की
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मै स्त्री हूँ
मकान की पहचान,
पुरुष के नाम 
घर की इज्जत 
मेरे नाम।
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मै स्त्री हूँ
आभूषण मेरा नैसर्गिक प्रेम
और तुम मेरा
प्रथम आभूषण
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मै स्त्री हूँ
मेरा परिचय
ममता प्रेम और त्याग
विशेष आकार नही
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मै स्त्री हूँ
संवेदना की मूरत
मुझे प्रेम चाहिये
पूजा नही
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मै स्त्री हूँ
पुरुष परमेश्वर
उसे पूजा चाहिये
मुझे सिर्फ प्रेम
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मै स्त्री हूँ
एकक्षत्र स्वामिनी
जीवन की
चिर काल से चिर काल तक
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मै स्त्री हूँ
मेरी मुस्कान
कभी जीवन
कभी खंजर
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मै स्त्री हूँ
अर्धनारीश्वर शिव का, 
जप तप और प्रेम
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मै स्त्री हूँ
अश्रु की एक महीन बूँद
मेरा ब्रह्मास्त्र
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मै स्त्री हूँ
सर्ष्टि की
अबूझ पहेली
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मै स्त्री हूँ
नही कर सकती
नर सा बल प्रयोग
किसी भी युग में
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मै स्त्री हूँ
तुम्हारा ये भूलना ही है
समाज के पतन का कारण 
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गुरुवार, 27 जून 2019

गिद्ध



कभी सोचा नही था, जीवन मेरे लिये इस कदर दुष्कर हो जायगा। मेरे जैसे आत्मसंतुष्ट व्यक्ति के जीवन की परिणित आत्महत्या तक पहुँच जायगी। सामान्यतयः लोग अपने सुसाइड नोट में लोग स्वयं को अपनी मॄत्यु का उत्तरदायी बताते हैं, ताकि उनके बाद उसके किसी अपने को आरोपित न किया जाय। मेरे लिये इस नोट को लिखने की ऐसी कोई आवश्यकता इसलिये नही कि  रिश्तों की गिनती मेरे लिये शून्य से शुरु और शून्य पर ही समाप्त हो जाती थी, तदापि लिखना अनिवार्य है। मृत्यु को कंठ लगाने से मैं चाहता हूँ कि आपको वहाँ ले चलूं जहाँ स्वयं मैने अपनी मॄत्यु का बीज बोया था।
करीब बीस वर्ष पूर्व, जब मैं अपने जीवन में कुछ बनने के संघर्ष से जूझ रहा था, मेरे पास पिता की पैतॄक सम्पत्ति तो क्या, पिता का नाम तक नही था। पूंजी के रूप में सिर्फ मेरे पास थी मेरी माँ, जिसने तमाम कठिनाइयों के बीच मुझे इतना बडा कर लिया था, जहाँ से मै जिन्दगी का सामना कर सकता था। फोटोग्राफी का हुनर मुझे मेरे पिता की विरासत के रूप में मिला था। और इसे ही मैने अपनी जीविका का साधन बनाने का निश्चय किया था। खुशियों की तस्वीरों को खींचने से ज्यादा मुझे दर्द और तकलीफों की तस्वीरे खींचने में आनन्द आता था, शायद ऐसा इसलिये भी हुआ कि दुनिया के बाजार में चीख, आँसू या दर्द की तस्वीरों की ज्यादा कीमत मिलती है।
मैं अक्सर ऐसे ही लोगों की खोज में रहता। गरीबी, भुखमरी, लाचारी देख मैं प्रसन्न होता, कि मेरे कैमरे को एक और खूब बिकने वाली चीज मिली और मुझे पेट भरने के लिये रोटी। धीरे धीरे मेरा नाम और काम दोनो बडने लगे। आज मेरी स्वयं की एक पहचान थी, मेरी मेहनत ने मेरा भाग्य बदल दिया था मगर मेरी तस्वीरों का विषय नही बदला था। शायद लोगों के बीच मेरी पहचान एक ऐसे फोटोग्राफर की बन गयी थी, जो समाज को दर्द और लाचारी की तस्वीर दिखाता था। 
करीब तीन महीने, मेरे मन में प्रसिद्धि की ऐसी भूख जागी कि मै दिन रात ऐसे मंजर की तलाश करने लगा, जो मुझे व मेरे मन को शान्त कर सकता। और फिर एक दिन अपने काम की खोज करते करते मै अफ्रीका के वीरान जंगलों में पहुँच गया। वहाँ मेरे सामने था, एक वीरान सूखा जंगल, एक गिद्ध और एक सात आठ महीने का भूख से बिलखता लगभग मरणासन्न बालक। गिद्ध की आँखें टकटकी लगाये उस बच्चे की मॄत्यु की प्रतीक्षा कर रही थी। ये एक ऐसा दॄश्य था कि इन्सान तो क्या दानव के भी हदय को भी पिघला देता। मुझे लगा ये एक विलक्षण दृश्य है, मैने बिना समय गंवाये यह चित्र अपने कैमरे में कैद किया। अगले ही पल मेरे मन में उसको जल्द से जल्द कागज पर उतार कर लोगों के सामने लाने और उनकी प्रशंसा सुनने की ऐसी प्रबल इच्छा हुयी कि मै विघुत गति से लौटा। और जैसी मैने अपेक्षा की थी, वह चित्र मेरे जीवन का सबसे प्रसिद्ध चित्र सिद्ध हुआ। इस चित्र के लिये मुझे फोटोग्रेफी की दुनिया का सर्वश्रेष्ठ पुरस्कार दिया गया। मेरी सफलता पर एक प्रेस कांफ्रेंस हुयी। उस सभा में एक रिपोर्टर ने मुझसे ऐसा सवाल किया जिसने उस  क्षण के बाद से अभी तक हर क्षण मुझे जीवन यात्रा को समाप्त करने का ही आदेश दिया। उसने मुझसे कहा- जिस चित्र को देख कर हर किसी का हदय दुखी हो जाता है, उस जगह से आप वापस कैसे आ सके, क्यूं आपको उस बच्चे को बचाने का विचार नही आया, फिर थोडा रुक कर बोला- सर, आपके चित्र में भले ही हर किसी को एक गिद्ध दिख रहा हो, मुझे तो दो दीखते है।
वह एक संघर्षरत रिपोर्टर था और मै दुनिया की नजरों में एक महान फोटोग्राफर। लोगों ने उसे कडी नजरों से देखा शायद वो कुछ और भी कहता मगर वो चुप  हो गया। वह तो चुप हो गया, मगर मेरा अन्तर्मन उस पल से अभी तक के पल में मुझे धिक्कारता रहा। हर पल मैं अपनी नजरों से स्वयं को गिद्ध ही देखता रहा हूँ, दिन प्रतिदिन अपराधबोध से ग्रसित होता जा रहा हूँ, और अब मुझमें स्वयं को देखने की शक्ति नही। जिस पुरस्कार को पाकर एक दिन मैने जीवन की सबसे बडी खुशी का अनुभव किया था, आज वह मुझे काल के समान दिखता है। आज सोच पा रहा हूँ कैसे ऐसे संदेवनहीन चित्र को पुरस्कृत किया जा सकता है। मेरे जिस कर्म के लिये मुझे धिक्कारा जाना चाहिये था, उसके लिये कैसे कोई पुरस्कृत कर सकता है। आह! क्या हमारा समाज अनगिनत अदृश्य गिद्धों से भरा हुआ है। मगर मैं किसी को कुछ कहने का अधिकारी नही। 
बस जाने से पहले इस दुनिया से कहना चाहता हूँ जीवन के मार्ग पर चलते हुये हर पल यह अवश्य देखिये- कही आप भी गिद्ध तो नही बन रहे। मेरी मॄत्यु तो उसी क्षण हो गयी थी जब उस भूख से विलखते बच्चे को एक गिद्ध की भूख मिटाने को सौंप आया था, आज तो मै केवल उस शरीर का त्याग करने जा रहा हूँ जिसने विलासिता अर्जित करने के मार्ग में मानवता के प्राणों की आहुति दे दी। आज मुझे इस मानव शरीर से घृणा हो रही है, आत्मग्लानि की अग्नि में मेरी आत्मा जल रही है और मेरे लिये प्रायश्चित के जल से उस अग्नि को शान्त कर पाना भी असम्भव हो चला है।
* केविन कार्टर के जीवन पर आधारित

बुधवार, 19 जून 2019

कोशिश का मूल्यांकन


मधुर अपने विघालय का एक सीधा सादा, होनहार छात्र और माता पिता का आज्ञाकारी बेटा था, इसी वर्ष उसके पिता अपने परिवार सहित गाँव से शहर नौकरी के लिये आये थे। जब उसके पिता को अपने साथ काम करने वाले लोगो से पता चला कि सिटी मॉन्टेसरी लखनऊ के चुनिंदा विघालयों में से है तो उन्होने मधुर का दाखिला वहीं कराने का निश्चय किया। शायद मधुर का भाग्य प्रबल था या उसके पिता की इच्छा शक्ति, मधुर की माँ को जहाँ बर्तन सफाई का काम मिला वह सिटी मॉन्टेसरी की प्रधानाचार्या का घर था। एक दिन जब दोनो पति – पत्नी ने उनसे हाथ जोड कर विनम्र निवेदन किय तो उन्होने कहा- वृंदा, वैसे तो दाखिले का फार्म भरने की तारीख निकल चुकी है मगर मै फिर भी तुम्हारे बेटे के लिये फार्म दे दूंगी मगर यहाँ केवल फार्म भरने से दाखिला नही मिलता, उसके लिये इम्तेहान पास करना होता है। अगर तुम्हारा बेटा वो इम्तेहान पास कर लेता है तभी उसको दाखिला मिलेगा। और फिर वृंदा के पति को तरफ देखते हुये बोली, कल सुबह स्कूल आ जाना, मै फार्म दिला दूंगी।
उस रात पति पत्नी दोनो ही स्वप्न लोक में विचरण करते रहे क्योंकि ना तो वहाँ जाने के लिये कोई टिकट लेनी पडती है और न ही गति का बंधन होता हैं, मधुर के माता पिता भी आकांक्षाओ के रथ पर सवार हो अपने बेटे के उज्जवल भविषय की कल्पना करने लगे किन्तु मधुर छोटा होते हुये भी हकीकत से परिचित था, वह जानता था कि यह कोई आसान काम नही था, और उससे शाम को घर आते ही पिता जी ने कहा था - बच्चा सात रोज है, खूब मन लगा के पढ लेओ, मैडम जी के स्कूल में दाखिला मिल गया तो जिन्दगी बन जाई। भले ही उसने सिटी मॉन्टेसरी का नाम नही सुना था मगर उसे पता था कि गांव के मुखिया जी का लडका जिसे सारे गाँव में सबसे तेज मना जाता था उसे पिछले साल मुखिया जी ने शहर के स्कूल में दाखिले के लिये पूरे छः महीने कोचिंग कराई थी, मगर फिर भी उसे कही दाखिला नही मिला था, और फिर उसे वही गाँव के स्कूल में भर्ती कराया गया था। फिर भी मधुर ने हार न मानने का निश्चय करते हुये अपनी पढाई शुरु की। वह अपने माता पिता की कोशिश को व्यर्थ जाने नही दे सकता था।
परीक्षा देने के बाद मधुर कुछ कुछ आश्वस्त तो था किन्तु पूर्णतया विश्वस्त नही। अक्सर वह अपनी माँ के साथ ही चला जाता था, व घरों में काम करते माँ का यथासम्भव हाथ बटाता था। परीक्षा के बाद का एक एक दिन सब लोग गिन गिन कर काट रहे थे। उसकी माँ रोज सोचती की आज बडी मैडम से वह पूछेगी कि परिणाम कब आया, मगर फिर सोचती कि कही उनको बुरा न लगे, वो जब आयगा तो खुद ही बता देंगी। आज जब वॄंदा काम करके घर जाने लगी तो अरुन्धती ने रोकते हुये कहा- वॄंदा आज तुम्हारे मधुर का रिजल्ट आ गया। बडी उत्सुकता से वॄंदा बोली मैडम जी मिल जायगा न मधुर को दाखिला। वॄंदा की आंखों में उभर आयी चमक को देखकर प्रिन्सिपल मैडम जो विघालय में एक तेज तर्राक, और हदयहीना महिला समझी जाती थी, यह साहस नही कर पा रही थी कि कैसे मै इस माँ और बच्चे की आशाओं के दिये को अपने निर्मम उत्तर से बुझा दूँ। तभी उस अनपढ वॄंदा को समझ आ गया कि उसके सपनों के पंख कट चुके है, बहुत धीरे से अपने बेटे के सर पर हाथ सहलाती हुयी बोली- मैडम जी क्या बहुत खराब परचा किया था मेरे बेटे ने। नही वॄंदा खराब नही किया था, तुम्हारा बेटा होशियार है, मगर हम अपने स्कूल के नियम नही तोड सकते, मघुर को परीक्षा में जितने नम्बर चाहिये था, उसमे एक नम्बर कम रह गया। तुम चिन्ता मत करो, मै किसी और स्कूल मे तुम्हारे बेटे का दाखिला करवा दूंगी। मधुर चुपचाप खडा बाते सुन रहा था, उसका मन भी निराश हो गया था, इस बात से नही कि वह परीक्षा पास नही कर सका था , उसे इस बात पर खेद हो रहा था कि उसने अपने माता पिता की कोशिश बेकार कर दी, तभी उसकी आंखे चमक उठी, वह प्रिन्सिपल मैडम थोडा निकट जा कर बोला- मैडम जी क्या आप एक नम्बर मेरी कोशिश को भी नही दे सकती। अरुन्धती उस बच्चे की बात का मतलब न समझ पाई- बोली बेटा कोशिश तो सभी बच्चे करते है न, मगर नम्बर तो कॉपी में लिखने के मिलते है न।
मधुर ने भी जैसे आखिरी तक हार न मानने का निश्चय कर लिया था- बोला जी मैडम जी आप सही कह रही है, मगर बहुत सारे बच्चों ने तो इस इम्तेहान के लिये कोचिंग की थी, उनमे से कई बहुत से अच्छे स्कूलों से पढकर भी आये थे, और मैडम जी अगर मै गाँव से एक महीने पहले भी आ जाता न, तो मै सच कहता हूँ, मै और अच्छे नम्बर ले कर आता। और फिर बिल्कुल रुआसा सा होकर बोला- मैडम जी मेरे पास तो पढने के लिये अच्छी वाली किताबे भी नही थी।
अरुन्धती अब तक समझ चुकी थी कि ये नन्हा सा मधुर उसे वो बात समझा चुका था जो वह स्वयं अपने जीवन के पचपन बर्षो से भी नही समझ सकी थी।
बस इतना बोली- वॄंदा तुहारा बच्चा वाकई होनहार भी है और समझदार भी, और ऐसे बच्चे को मै जरूर अपने स्कूल में पढाउंगी।

शुक्रवार, 14 जून 2019

बचपन



जीवन की आपाधापी में
बरसों के आने जाने में
बहुत कुछ बदलता है लेकिन
जो नही बदलता, वो बचपन है
बदल जाते है, रंग खुशी के
बदल जाते है, संग सभी के 
बदल जाते है, चेहरे मोहरे
बदल जाते है, मन भी थोडे
मौसम के आने जाने में
जमानों के गुजर जाने में
दिन रात बदलते है लेकिन
जो नही बदलता, वो बचपन है
बदल जाते है, रिश्ते नाते
बदल जाते है, दहजीज दुआरे
बदल जाते है,किस्मत के तारे
बदल जाते है, ख्वाब भी सारे
लोगो के आने जाने में
दुनिया के ताने बाने में
बदल जाते है रास्ते लेकिन
जो नही बदलता, वो बचपन है
जीवन की आपाधापी में
बरसों के आने जाने में
बहुत कुछ बदलता है लेकिन
जो नही बदलता, वो बचपन है

शुक्रवार, 7 जून 2019

ऊष्मा


आज एक बार फिर लिखने बैठा हूं। एक समय था जब लिखे बिना तो नींद ही नही आती थी। प्यार भी कितनी अजीब  चीज है। किसी को शायर बना देता है किसी को काफिर और एक मै था, मेरे जैसे ठीक ठाक कवि के हाथ से ऐसे कलम छूटी कि आज करीब तीस साल बाद उसे छू रहा हूं।  यूं ही एक दिन मैं एक गजल लिखने की कोशिश कर रहा था, और मुझे दिखा ही नही कि वसू कबसे आ कर बैठी है, वो आई भी और चली भी गयी। अगले दिन जब मै उससे कालेज में मिला तो उसका गुस्सा सातवें आसमान पर था।और मै समझ नही पा रहा था कि वो किस बात पर अपनी नाराजगी दिखा रही थी, क्योकि मेरे हिसाब से मै कल उसका इंतजार करता रहा था, और वो आई नही थी। करीब एक हफ्ते तक उसकी नाराजगी खत्म न हुयी। मुझे लगा शायद किसी बात के कारन ही वो उस दिन मिलने भी नही आई, मुझे अपनी भूलने की आदत मालूम थी। इसलिये मै उससे किसी बहस में न उलझता था। अंत में बहुत मिन्नते करने के बाद उसने कहा- तुम या तो मुझे चुन लो या अपनी कलम को, फिर रो पडी और बोली अपने लिखने में तुम मुझे देखना तक भूल गये। ये भूल गये कि तुम मेरा इंतजार कर रहे थे तो फिर कैसे यकीन कर लू कि शादी के बाद अपनी जिम्मेदारियां याद रखोगे।छोटी सी मेरी गलती को उसने बहुत संजीदगी से लिया था, मै जाता था ये उसके प्रेम का ही रूप था। मैने उसे अपनी कलम देते हुये कहा- वसू आज से मेरे हाथों को सिर्फ तुम्हारे हाथ की जरूरत है। इन तीस सालों में कितनी ही बार वसू ने मुझे लिखने को कहा, किसी नाराजगी  के कारण नही मगर  मेरा कभी मन ही न किया, लिखने का। मुझे जिन्दगी भर इस बात पर अफसोस होता रहा कि जो गजल मै उसे खुश करने के लिये लिख रहा था वो उसके आसुओं की वजह बनी थी। मैने अपने अंदर के कवि को मारा नही था, बल्कि वो खुद ब खुद मेरे पास से चला गया था, जैसे तपती रेत में पानी गायब हो जाता है, वसू के प्रेम की ऊष्मा मे मुझे यह याद भी न रहा कि मेरा और कलम का कोई संबंध भी था।
मगर अपनी जिंदगी के आखिरी पल तक शायद बसू को भी ये बात सालती रही कि उसकी नाराजगी ने मेरी अंदर के कवि को दफन कर दिया, तभी उसने इस दुनिया से जाने से पहले मेरे हाथ मे वही कलम देते हुये कहा- नीरज मै जानती हूं तुम मुझसे सबसे ज्यादा प्यार करते हो, मगर अब मेरे हाथो मे तुम्हारा हाथ थामने की सामर्थ्य नही बची। वादा करो मेरे बाद अपने हाथो मे इस कलम को मेरी जगह दोगे।
मै चाह्ती हूं तुम वो गजल पूरी करो जो तीस साल पहले अधूरी रह गयी थी। समय रहा तो इसी जहां में नही तो उस जहां से तुमको पढूंगी।
आज कहने को तो हाथ मे कलम है मगर हाथ अभी भी वसू की ऊष्मा महसूस कर रहा है।
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