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बुधवार, 31 दिसंबर 2014

कुंडली


एक अनसुलझा सा प्रश्न या सुलझा सा उत्तर ये कहना तो आसान नही। जन्म के साथ ही लिख दिया गया मेरा कर्म, वो कर्म जिसे मेरे नन्हे से हाथों ने अभी किया तो नही था मगर भविष्य के गर्भ में उसका अंकुर प्रस्फुटित हो चुका था। जन्म के सात दिन बाद ही मेरे जीवन काल की रेखा और उस पर सुख दुख के बिन्दुओं को आचार्य सत्यानन्द ने अपने काल के गणित से कुंडली की धरा पर चिन्हित कर दिया था।
अब यदि कुछ शेष बचा था तो वो था मेरा उन बिंदुओं को जोडते हुये अपने जीवल के पलों जीते हुये निर्धारित सभी सुख के पर्वतो पर चढते और दुख के बादलों में घिरते जूझते मृत्यु की चौखट तक पहुँचना। जब से होश संभाला, कुछ भी अच्छा हो जाने पर आचार्य सत्यानन्द जी की वाणी और विद्या को शत शत नमन किया जाता, और अशुभ होने पर समय की प्रबलता की व्याख्या की जाती।
स्वयं को इस विचारधारा से बहुत दूर रखने पर भी कई बार इसके भ्रमरजाल में खुद को जकडा पाती। आज पता नही सौभाग्य से कहूं या दुर्भाग्य से मुझे मेरी कुंडली मिल गयी जिसे माँ ने शायद बहुत जतन से ऐसे छुपा कर मेरी नजरों से दूर रखा था जैसे कोई कोई चिडिया अपने नन्हे से बच्चे को बिल्ली से बचा कर रखती है। उस कुंडली में मेरी आयु रेखा ३२ वर्ष निर्धारित की गयी थी। इस सावन की पूर्णिमा से मै ३१ सावन की गिनती पूरी करने वाली थी।
नानी की मोती की माला जो मुझे बहुत पसंद थी और जिसे माँ हमेशा देने से मना कर देती थी, आज उनकी अनुपस्थिति में खोजने लगी थी, और जिसे खोजते खोजते मुझे अपने जीवन की माला मिल गयी थी, जिसमें मात्र ३२ मोती थे। मैं चाह कर भी माँ के विश्वास को जीतता हुआ नही देखना चाहती थी, इसलिये नही कि प्रश्न मेरे जीवन या मरण का था, बल्कि इसलिये की प्रश्न था उस काल का जिसे कोई भी नही देख सकता था , उसे कैसे कोई भविष्यवक्ता अपनी गणित के गुणा भाग से संख्या में बदल सकता था।
मगर क्या वाकई मैं माँ के अटूट विश्वास को हरा सकी थी। एक वर्ष बाद जब मैं घर से मीलों दूर बैठी थी, मेरी ऐसी मानसिक स्थिति हुयी कि मुझे माँ को पत्र लिखना ही पडा - आपकी बेटी कल तक आपसे मीलों दूर थी, किन्तु फिर भी आपसे मिलने की उम्मीद थी, आज आपकी सारी उम्मीदों को तोड कर आपसे बहुत दूर जा रही हूँ, जहाँ आपसे मिल पाने की सारी सम्भावनायें क्षीण हो जाती है
पत्र पढकर माँ की ह्दय गति यदि नही रुकी होगी तो सम्भवतः इसीलिये क्योंकि काल के दर्पण में घटित होने वाली इस दुर्घटना का प्रतिबिम्ब उन्हे बहुत पहले ही मेरी कुडंली में दिख गया था, जिसे वो सदैव मेरी नजरों से ओझल रखना चाहती थी कि कही उनकी कोमल हदया बेटी का हदय अपनी म्रूत्यु की छाया को देख कर समयपूर्व ही उदासीन मृत्यु का वरण ना कर ले।
मगर समय के पटल पर क्या लिखा है इसे शायद अक्षरशः कोई महाज्ञानी भी शायद नही पढ सकता ।
उस दिन मेरी मत्यु तो हुयी मगर साथ ही जीवन दान भी मिला, एक अक्षय जीवन जिस पर कोई ग्रहों या उसकी दशाओं के बिन्दु नही खींच सकता था।
मृत्यु हुयी थी मेरी आशंकाओं की, जिसमें ना चाहते हुये भी मैं उलझ गयी थी, डर गयी थी, और अपने इसी डर को माँ से छुपाने के लिये मै दूसरे शहर नौकरी का बहाना लिये आ गयी थी। यहाँ कोई नही था जो मेरे मन में स्थायी घर बना लेने वाले मेरे भय को देख सकता। जैसे जैसे मेरा ये वर्ष बीत रहा था मुझे मेरा जीवन चक्र समाप्त होता दिख रहा था। मुझे नही मालूम कैसे अनन्त ने मेरी आंखों, मेरे रोम रोम में बसे मेरे डर को पहचान लिया। और एक दिन मुझसे सब कुछ जानने के बाद मेरे सामने शादी का प्रस्ताव रखा। मैं विवाह करना तो दूर उसके बारे में सोच भी नही सकती थी। ये सुख तो मेरी कुंडली में लिखा ही नही गया था। फिर कैसे मैं पल पल मृत्यु के निकट जाते जीवन को सप्तपदी के पवित्र मार्ग से ले जा सकती थी। घरवालों के सामने यह प्रस्ताव रख पाना तो मेरे लिये रेगिस्तान में केसर की फसल उगाने जैसा था। मगर अन्नत तो आज जैसे ध्रुव सा अटल विश्वास ले विवाहवेदी की अग्नि में मेरे भय की आहुति देने ही आया था।
मेरे हाथ में अपना अपना हाथ लेते हुये उसने कहा- मुझे अपना शेष जीवन दे दो। वो याचक सा मेरे सामने खडा था। मुझमें अपने माता- पिता को यह दुख देने का साहस नही था। हाँ ये जानती थी कि नित्यप्रति मेरी दीर्घायु की कामना और प्रार्थना करने वाली माँ जानती है कि उसकी पुत्री की आयुरेखा अपने अन्तिम बिन्दु की ओर प्रस्थान कर चुकी है। बस यही सोचते हुये उन्हे संक्षिप्त पत्र लिख कर अपनी निकट आती मृत्यु की सूचना इस तरह दी कि जैसे मै इस दुनिया से प्रस्थान कर चुकी हूँ।
पता नही अन्नत मुझे सत्यवान मान, मेरे लिये स्वयं को सावित्री बना ईश्वर से मेरे लियी अक्षय जीवन मांग कर लाये थे या आचार्य सत्यवान की गणना में कही कोई त्रुटि हुयी थी, आज विवाह के दो साल बाद मैं अपने पति और पुत्र के साथ उस घर में जा रहे थे जहाँ मेरी आज भी मेरे विछोह में मेरी माँ की आंखे नम हो जाती होंगी। जहाँ मेरे काल्पनिक क्रियाकर्म में मेरी कुडंली को जलप्रवाहित कर दिया गया होगा।
जहाँ शायद अब अपने नवासे को देख कर उसकी नानी अपने नैनिहाल नाती की कुडंली बनवाने किसी आचार्य सत्यानन्द के पास नही जायगी।


गुरुवार, 25 दिसंबर 2014

काश और शायद


काश और शायद
शब्द हैं, कुछ ना हो पाने के
फर्क है, सिर्फ अहसासों का
एक में नाउम्मीदी का कफन
दूजे में उम्मीद की सूरत दिखती है

काश! मुझे वो मिल जाते
शायद, वो मुझको मिल जाये
एक में ना मिल पाने का दुख
दूजे में मिलने की आस झलकती है

काश ! ऐसा हो जाता
शायद ऐसा हो जाय
एक में हताशा निराशा
दूजे में कर्मठता की राह निकलती है

काश ! ये दिन बदल जाते
शायद ये दिन बदल जाये
एक में जीवन की अन्तता
दूजे में अनन्त जिन्दगी मिलती है

काश डुबाये अन्धकार में
शायद भोर का तारा है
एक काल चक्र में खोया
दूजे में गति की कल्पना संवरती है

काश है वो परछाई जो
पीछे पीछे चलती है
शायद ऐसा साया जिसमें
आगे बढने की इच्छा पलती है

काश और शायद तो
दो पहलू है जीवन जीने के
एक कहता और भरता आहे
दूजे में हौंसलों की पिटारी खुलती है

परिवर्तन


मनोहर भइया आज हमार जी मा बार बार रहि रहि के जाने काहे ई बिचार आ रहा है जइसन हम कउनो दगा करा है। हमका कुच्छौ समझ नही आ रहा, का सही है का गलत। अब आपै हमका रास्ता दिखाओ।
रहीम कल से राबर्ट कहलाने वाला था, गाँव में आये मिशनरी के लोगो से उसने घर की रोटियों के लिये धर्म परिवर्तन करने को हांमी तो भर दी थी, मगर अब उसकी आंखों से नींद कोसो दूर थी। मन में उथल पुथल थी, कि कल से जाने क्या क्या बदल जायगा। और अपनी इसी ऊहा पोह को शान्त करने के लिये अपने मित्र मनोहर जिसको वो अपने से भी ज्यादा मानता था, के पास आया था।
कुछ देर तक ऐसा सन्नाटा पसरा रहा कि अगर एक पत्ता भी गिरता तो उसकी आवाज भी दूर तक साफ सुनाई दे जाती। फिर उस सन्नाटे की चुप्पी को तोडते हुये मनोहर ने बहुत गम्भीर मुद्रा में रहीम से कहा- भैया हम गरीब लोगन का एक ही धरम है और वो है अपने परिवार का दुई बखत की रोटी देना। सुख सुबिधा तक तो हम सोच ही नही सकत। हमार नाम राम होय, रहीम होय या राबर्ट का फरक पडत हैं, ई सब तो अमीर लोगन की खातिर है। औ फिर हमका इक बात बताओ तुमहार नाम बदल जाय से का तुम्हार करम बदल जइहै, का तुम्हार भासा बदल जइहै, का तुम कल से इंगलिश मा गिटिर पिटिर करै लगिहो, का हमार तोहार रिशता बदल जइहै, का ई गाँव का हवा पानी बदल जइहै, का तुहार आतमा बदल जइहै | ना भइया कुच्छो ना बदली, कल भी तुम अइसै हमार साथ बैठियो, बतलइहो। बस फरक इत्तै होई कि तुम्हार घरवाली, तुम अउर तुमहार बच्चा भूखे पेट ना सोइहै। भैया हाथ मा चार पैसा आये का चाही। चाहे उई खुदा के घर से आवै, या ईशा के।
तुमका तो खुश होए का चाही कि कल से तुमका काम मिल रहा है। अब तुमहो इंसान हुई जइहो, नही तो गरीब मनई अउर कुकुर मा ज्यादा फरक नही।
अब जाओ और चैन से सो जाओ, अब तुहार दुख के दिन खतम, हाँ ई बात याद रख्खेओ हमार लिये तुम हमार रहीमै रहिहो।

बात तो सोचने की है, आखिर क्या बदल जाता है धर्म परिवर्तन से, क्या वाकई, ईश्वर, खुदा या गॉड गिनती करते होंगे, कि धरती पर कितने लोग है जो उनको मानने वाले हैं। क्या वाकई में कही सबकी अलग अलग सत्ता है, क्या गले में तुलसी की माला डाल कर कोई हिन्दू, या क्रास डाल कर कोई इसाई बन जाता है। क्या कल तक मस्जिद में सजदा करने वाला आज अपनी मुसीबत में, या अल्लाह, या खुदा की जगह ओह गॉड कह पायगा। क्या सुबह उठ कर हनुमान चालीसा पढने वाला, पाँच वक्त की नमाज अदा करते समय राम को याद नही करेगा। और अगर वो ऐसा करेगा तो क्या खुदा या भगवान उससे नाराज हो जायेंगें। हकीकत की जमीन पर क्या क्या बदलेगा धर्म परिवर्तन से.........



गुरुवार, 18 दिसंबर 2014

अब रक्त धरा पर और नही



चाह रहा मन आज लिखना
जो बचा सके इंसानियत
एक लकीर खींचना उन दिलों में
जो पूज रहे है हैवानियत
कैसे मैं समझाऊं उनको
ये नही खुदा की चाहत
खून बहा कर नही मिली है
कभी किसी को राहत

बहुत हो चुका, अब तो छोडो
बदले की आग में जलना
गोली बारुद के ढेरों पर
अब सौदे मौत के करना
जन्मा नही तुमको माँ ने
बेगुनाहों का रक्त बहाने को
क्यों दागदार फिर करते 
तुम उसके दूध पिलाने को

याद करों उन दिन को जब
तेरे रोने पर माँ रोई थी
तुझे सुलाने की खातिर
रात सारी नही वो सोई थी
बता भला, अब कैसे सोयें वो 
जिनके नन्हों को तूने सुलाया है 
कैसे खुदा बेहरबां हो तुझ पर
बेबस ममता को तुमने रुलाया है

है वक्त अभी भी, कुछ तो सोचो
कुछ तो सच्चे काम करो
छोडो ये बन्दूक तमंचे
इंसानियत का सम्मान करों

रो रो कर कह रहा अल्लाह
अब रक्त धरा पर और नही
मत मार जालिम मासूमों को
सब मेरे बच्चे हैं कोई गैर नही

शुक्रवार, 12 दिसंबर 2014

ये कैसी शिक्षा ??





शिक्षा का बाजार बने है
ये विघा के मंदिर
शिक्षा छोड के सब मिलता है
देखो इसके अंदर


अब पहले से नही रहे
गुरुजन द्रोण के जैसे
ढूढे से भी ना मिलते  
शिष्य भी अर्जुन के जैसे 


हाथ में डिग्री उनके होती 
जिनकी जेब में पैसे 
जिसके पास नही हो पैसा
वो पढने को तरसे

विधार्थी बन रहे कस्टमर 
और टीचर बना इम्प्लाई
स्टूडेंट से कुछ कहे तो समझो 
उसकी जीविका पर बन आई 

बच्चो से ज्यादा रिजल्ट की चिंता 
रोज गुरुवर जी  को है सताती 
एक्साम के दिनों में यही सोच कर
गुरु  जी को नीद भी नहीं आती 

सुबह सवेरे मंदिर जाकर
मन्नत टीचर है  मांगे
और बरगद के पेड़ में जाकर 
मोटे धागे भी बांधे 

बिन शिक्षा के फल फूल रहा
देखो शिक्षा का व्यापार
बिन शिक्षित हुए लोग भी पा रहे 
मेडल नौकरी और उपहार 

शिक्षा का बाजार बने है
ये विघा के मंदिर
शिक्षा छोड के सब मिलता है
देखो इसके अंदर



चित्र के लिए गूगल का आभार 

रविवार, 7 दिसंबर 2014

कुछ रंग जिन्दगी के


जाने कैसे बना देते हैं लोग
ह्र्दय भी पाषाण का
पिघलना तो दूर
एक लकीर तक नही खिंचती मनुष्यता की

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कोई बना दे यंत्र
जो पहचान सके
सच्चे और झूठे जज्बात
कि बहुत लुटा चुका
सहद्यता के मोती
चील कौंवों  में

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वो क्या समझेंगें
मेरे होने ना होने का मतलब
जिनके लिये
प्यार एक उम्र नही
 है मात्र एक पल खुशी का

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जगह भी वही
मै भी हूँ वही
दिन रात सुबह शाम
सब कुछ तो है वैसा ही
जाने क्या बदला
मैं आदम से खुदा हो गया

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जिसे फेंक दिया
किसी ने
यूं ही कुछ सोचे बिना
कुछ और नही
किसी की जिन्दगी थी,
भूख थी
किसी तडपते
पेट की।
और थी आस,
एक रात जिन्दगी में
भरपेट खा कर सोने की






शनिवार, 29 नवंबर 2014

अधूरे स्वप्न


आज उम्र के साठ सावन देखने के बाद भी कभी कभी मन सोलह का हो जाता है, जाने क्या छोड आयी थी उस मोड पर जिसे जीने को मन बार बार व्याकुल है, जाने क्यो आज भी मन अतृप्त ही है, कितनी बार कितने तरीको से मन को टटोल कर उलट पलट कर देखा, मगर आज तक पा नही सकी उस खाली मन को, बस हमेशा एक हूक सी उठ जाती है, उस उम्र को जीने की।

      पता ही नही चला कब वो सब मुझसे छूट गया जिससे बनती थी मेरी परिभाषा। जाने कब मेरी आशाओं ने अपने को चुपचाप एक गठरी में बाँध लिया और ओ ली असीमित खामोशी की चादर।
      बारह साल की उमर जिसमें एक बचपन, लडके या लडकी की सीमा में नही बँधता, उसे तो दिखता है सिर्फ खुला आकाश जिसमें कभी वो पतंग उडाना चाहता है और कभी खुद उड जाना चाहता है। मगर आह रे मेरा भाग्य, ना मुझे आकाश मिला ना पतंग, सिर्फ डोर बन कर रह गयी, जिसे सबने तरह तरह से उडाया। जाने कितनो ने बाँधी इस पर अपनी हवस, लालसा, और वासना की पतंग। मेरे पिता ने मेरा भी कन्यादान किया मगर ये कन्यादान मुझे ससुराल नही बाजार ले गया, और मै दुल्हन की जगह बन के रह गयी एक बिकाऊ गुडिया।

      आज ये गुडिया, एक बुढिया बन चुकी है, समय चक्र ने मुझे उस जाल से तो निकाल दिया , जिसे मछली समझ कर कभी मुझ पर डाला गया था, मगर फिर भी नही निकाल सकी हूँ मन में बसे उस स्वप्न को जिसमें सारी दुनिया को अपनी डोर में बाँधे अपनी आशाओं की पतंग उडाती फिरती हूँ। कभी कभी पूरा जीवन ही एक ऐसा स्वप्न बन जाता है, जिसकी कोई सुबह नही होती।



गुरुवार, 20 नवंबर 2014

जाने कबसे


जाने कबसे इन आँखों में
तेरा ख्वाब सजाये बैठे हैं

बात करे, हम कुछ भी
तेरा जिक्र छुपाये बैठे हैं

जुल्फों की बदली में इक
सावन को बसाये बैठे हैं

हाथों की चंद लकीरों में
तेरा नाम लिखाये बैठे है

हथेली की हरी हिना में
खुशबू तेरी महकाये बैठे हैं

हर आती जाती सांसों में
तेरी आस लगाये बैठे हैं

पल पल बीत रहे लम्हों में
तेरी उम्मीद जगाये बैठे हैं

संग बिताये, चार पलों में
हम इक उम्र बिताये बैठे हैं

तनहा घनी अंधेरी रातों में
यादों के दिये जलाये बैठे हैं

क्या खबर तुझे, हम तुझमें
अपनी दुनिया बसाये बैठे हैं


शनिवार, 15 नवंबर 2014

थोडी सी धूप, थोडी सी बारिश दे दो


एक चीज मागूं
देखो मना मत करना
मुझे अपने हिस्से की
थोडी सी धूप दे दो 
चाहती हूँ उसमें
खुद को सेंकना
जिसमें तपा कर
तुमने खुद को
बना लिया है
कुन्दन
बनना चाहती हूँ
तुम सी
जानती हूँ
नही बन सकती तुम सी
फिर भी
एक कोशिश करनी है
तुझमें मिलना है मुझे
बन जाना है मुझे
तेरी परछाई
साथ चलना है बनकर
तुम्हारी हमकदम
बताओ क्या दे सकोगे मुझे
अपने हिस्से की धूप
बना सकोगे मुझे
अपनी छाया


XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX

सुनो, 
तुमने कहा था  एक बार
कुछ देने के लिये
आज मांगती हूँ,
मुझे चाहिये
तुम्हारी बारिश की 
चंद बूंदे
भिगोना है 
सूखा अतृप्त मन
उगानी है 
प्रीत की फसल
बंजर हो चली
आशाओं पर
देखनी है 
लहलहाती फसल
भावनाओं की
जिन्हे चाहिये
चंद बूंदे
तुम्हारी बारिश की

मंगलवार, 11 नवंबर 2014

जिन्दगी ये तो ना थी..............


कभी कभी सोचती हूँ कि जो मैं जी रही हूँ , क्या इसी को जिन्दगी कहते है? क्या इसी जिन्दगी को मैने ख्वाब में देखा था, तब से जब से जिन्दगी को जीने की कोशिश की थी। क्या सच में इसी को कहानीकार, दार्शनिक, लोग जिन्दगी कह गये हैं? क्या मेरी भी जिन्दगी बस चंद सांसों की डोर में बंधी ऐसी मोती की माला है, जिसकी डोर का एक दिन टूट जाना तय हैं? मेरी भी जिन्दगी के मोती एक दिन बिखर जायेगें और रह जायेगी टूटी डोर........
ये तो नही था मेरा सपना, मेरी सोच, मेरी आशा, मेरा विश्वास, मेरे जीने का आधार, मेरी तमन्नायें। कितना कुछ सोचा था मैने उसके साथ, कितने सारे रंग थे हमारी जिन्दगी में, कितनी उमंगें थी, कितनी ख्वाइशें थी, कितनी उम्मीदें थी उन ख्वाबों में, कितनी तरंगें थी उन उम्मीदों में और कितनी ऊर्जा थी उन तरंगों में और हर एक तरंग मे थे तुम।
आज समझ आ रहा है कि सब कुछ तुम्हारे ही हाथों में तो था, शायद तभी तो तुमसे नाता छूटते ही सब छूट गया, और रह गयीं हैं सिर्फ सूखी सांसे, जिन्हे सुनती और गिनती रहती हूँ अपनी तन्हाई में। हाँ आज भी सांसो के साथ रह जाती है एक उम्मीद, काश कभी एक बार मिल सके तुम्हारा साथ और मिल सके मुझे एक बार फिर मेरा हर खोया हुआ सपना, मिल सकें फिर से जिन्दगी के रंग, वो रंग जो इस वीरान सी हो गयी जिन्दगी के अंधेरों में कही खो गये हैं। वो अंधेरा जिसमें मैं खुद को भी नही देख पाती, बस बनाती रहती हूँ आभासी आकृति अपने खोये हुये सपनों की।
अब तो मेरे पास उतनी सांसे भी नही जितने सपने तुमने दिये थे मुझे, एक अनमोल सौगात की तरह। बस एक बार आ जाओ और ले जाओ अपने वो सारे सपने जो तुमने एक दिन चुपके से मेरी आंखों में रख दिये थे। क्योंकि मुझे कोई अधिकार नही कि तुम्हारे उन सपनों को भी मैं अपनी वीरान सी जिन्दगी के अंधेरों के हवाले कर दूँ। एक सैलाब सा बसा है मेरी आँखों में, मगर रोक रखा है उसे, क्योकि डरती हूँ कि उसमें वो सारे ख्वाब बह ना जाये जो तुम्हारी अमानत हैं। डरती हूँ कही जीवन की माला टूट गयी तो तुम्हारे सपने भी ना बिखर जाये। फिर भला कौन दे पायेगा तुमको तुम्हारी अमानत, क्योकि दुनिया वालों को तो सबसे ज्यादा खुशी मिलती है ख्वाबों को जलाने में, कही मेरे साथ साथ तुम्हारे सपनों को भी अग्नि के हावले ना कर दे ये दुनिया।

बस एक बार आ जाओ , और ले जाओ अपने सारे सपने क्योकि................

रविवार, 9 नवंबर 2014

नपुंसक.................


आफिस के लिये चाहे जितना सोचो कि समय से निकल जाऊँ, मगर रोज कुछ ना कुछ ऐसा हो ही जाता है कि घर से निकलते निकलते देर हो ही जाती है, , और उस पर ट्रैफिक से दो - चार होना। बस एक शनिवार ही होता है जब थोडा सा ट्रैफिक कम मिलता है, कारण ज्यादातर आफिस बन्द होते हैं, 
आज घर से दस मिनट पहले ही निकल गया, लगा कि आज तो समय से आफिस पहुँच ही जाऊंगा, मगर ये क्या, लगता है अभी अभी कोई एक्सीडेंट हुआ है, लोगो ने जाम लगा रख्खा है। लोग भी ना, उनके पास जाम लगाने का तो खूब समय होता है, मगर ये नही कि उस व्यक्ति को अस्पताल पहुंचा दे, ताकि किसी की जिन्दगी और बहुत से लोगों का समय बच सके। जाम में फंसी गाडी में बैठे बैठे ख्याल आया कि मै ही देख लेता हूँ कि क्या हुआ है फिर मेरे आफिस के रास्ते में अस्पताल भी पडता ही है, मै ही पहुँचा देता हूँ । उतर कर थोडा आगे बढा और एक सज्जन से पूँछा - अरे भाई साहब क्या हुआ है , बोले अरे एक नपुंसक मर गया है। तभी कानों में और भी लोगों की बाते कानों से टकराई, कोई कह रहा था - अरे अब कोई इसी की बिरादरी का आये तो उठाये इसको, कोई कह रहा था - और क्या इसको उठा कर कौन बवाल में पडे, कोई कह रहा था- अरे आज कल का तो जमाना ही नही कि किसी पचडे मे पडे और फिर इन लोगों के बीच.......
जितने लोग थे, उतनी बातें थीं
मै सोच रहा था - जो व्यक्ति हमसे कोई रिश्ता नाता ना होते हुये भी, हमेशा से हमारी खुशियों मे बिना बुलाये ही शरीक होता है , हमारे बच्चों को दुआयें देता है, हमारे सुखी जीवन के लिये ढेरों आशीष देता है, जिसके लिये हम कहते हैं कि इनकी दुआ कभी खाली नही जाती, आज मरने के बाद उसकी ये स्थिति की सडक पर लावारिश लाश की तरह पडा - अपनी बिरादरी के चार लोगों का इन्तजार कर रहा है, शायद लावारिश से भी बुरी स्थिति है इसके, लावारिश की मदद के लिये तो शायद कोई आगे आ भी जाय, या पुलिस को ही सूचना दे दे, मगर इसके लिये तो वो भी नही होने वाला कि कोई इसके साथ वाले को ही सूचना दे। नपुंसक वो नही , नपुंसक है हम,  हमारा समाज, हमारी सोच, जो जीवित को तो जाति, धर्म और लिंग में बांटती ही है, आज ऐसी सोच ने एक मृत शरीर को भी नही छोडा।
और फिर मै उस भीड को चीरते हुये, उस मत शरीर की तरफ बढ गया, उसे अन्तिम यात्रा पर ले जाने के लिये.... 

गुरुवार, 6 नवंबर 2014

इक पागलखाना चाहिये


जिन्दगी जीने के लिये
इक पागलखाना चाहिये

कोई बन्धन नही, रस्में नही
रीति नही, जाति नही
सफलताओं असफलताओं के
तराजू मे तौला हुआ इंसा नही
मन से मन मिल जाय
एक ऐसा पागल चाहिये
जिन्दगी जीने के लिये
इक पागलखाना चाहिये

अपने ही जहाँ अपने ना हो
पराये भी पर अपने से हो
अदृश्य सी दीवारे ना हो
बंधे हुये जहाँ सपने ना हो
बेफिक्र सी इस जिन्दगी को
पागल सा एक पल चाहिये
जिन्दगी जीने के लिये
इक पागलखाना चाहिये

जाने कितनी जंजीरों में
खुद को बाँधे हम रहे
जीते रहे सबके लिये
और खुद को ही खोते रहे
खामोश हो चले इस दिल को
पागल सी धडकन चाहिये     
जिन्दगी जीने के लिये
इक पागलखाना चाहिये

ये भला है, ये बुरा है
ये है नही तुम्हारे लिये
ऐसे अनगिनत धागों से ही
उलझी जिन्दगी बुनते रहे
खोलने को मन् की ग्रंथियां
थोडा पागलपन तो चाहिये
जिन्दगी जीने के लिये
इक पागलखाना चाहिये





बुधवार, 29 अक्तूबर 2014

सबसे बडा गुनाह


शायद उसने किसी का कत्ल भी कर दिया होता तो भी उसका परिवार उसको माफ कर देता, मगर उसका गुनाह तो इससे भी कही बडा था । एक ऐसा गुनाह जो उसके परिवार को आज समाज में सम्मान से जीने का अधिकार नही देता। पिता के सारे जीवन की पूंजी उनकी दौलत नही बल्कि उनकी कमाई हुयी इज्जत ही तो थी, और आज उनकी बेटी ने उसको ही मिट्टी में मिला दिया था। वो तो कहो समय रहते उन्हे हर बात मालूम हो गयी, और समाज में उनकी नजरे झुकने से बच गयी।
आखिर क्या अधिकार था निमिषा को ऐसा करने का। हमेशा से ही तो वो घर में सबकी लाडली थी। मां    हो , पापा हो या भाई, सभी उसकी हर ख्वाइश को पूरा कर देते थे। भाई ने निमिषा के लिये पिता जी को शायद पहली बार जवाब दिया था- पापा निमिषा अब मेरी जिम्मेदारी है, आप प्लीज उसको पढने भेज दीजिये। मगर प्रह्लाद को भी क्या पता था जिस लाडली बहन के लिये वो पापा से उलझ रहा है, वही एक दिन सबके लिये उलझन बन जायगी।
और ऐसा नही था कि उनका नाज करना गलत था, हर जगह ही तो वो अव्वल आती थी। जब उसकी पढाई पूरी हुयी तो उसके पापा ही उसको होस्टल से लिवाने गये थे, वहां सभी के मुंह से निमिषा की तारीफ सुन कर उसके पापा का सीना खुशी से चौडा हो गया था। और उसी भरोसे पर उन्होने उसको नौकरी के लिये बाहर जाने की खुशी खुशी आज्ञा दे दी थी, मगर वो क्या जानते थे कि कल यही निमिषा उनके लिये अपमान का विषय बन जायगी।
शायद जो गुनाह निमिषा ने किया, उसके कितने भयानक परिणाम हो सकते है , उसके बारे में उसने भी अनुमान नही लगाया होगा, काश वो समय रहते सोच पाती कि वो जिस रास्ते पर चल रही है वो मात्र फिल्मों में ही अन्तोगत्वा सफल हो जाता है, हकीकत में नही। उसे क्या अधिकार था कि एक उच्च ब्राहमण कुल में जन्म लेने के बाद वो एक शूद्र से प्रेम करे। क्या हुआ जो किताबों मे लिखा गया है कि प्रेम की कोई जाति या धर्म नही होता। वो पगली क्यो नही समझ सकी कि प्रेम भी जातीय होता है, तो क्या हुआ जो उसका मानव लाखों में एक था, क्या हुआ जो मानव सहदय होने के साथ साथ एक सफल साइंटिस्ट भी था, तो क्या हुआ जो उसने कभी निमिषा की लंबाई या चेहरे के दागों पर ध्यान ना देते हुये उसके गुणों की कद्र की। आखिर क्यों वो मानव के हाथों में अपनी तकदीर देखती रही, कैसे उसे मानव के हाथों में नीच कुल की रेखा नही दिखाई दी जो उसके उच्च्कुलीन पिता के कुल के लिये ग्रहण से कम नही थी। आज वो चाहे स्वीकार करे या ना करे मगर गुनाह तो वो कर ही चुकी थी।
अब तो बस बाकी थी इस गुनाह का प्रायश्चित - जो शायद एक कुलीन ब्राहमण पुत्र के साथ अग्नि के सात फेरे लेकर अपने मन की आहुति उस अग्निकुंड में देने से ही उसे पूरा करना था।



शुक्रवार, 17 अक्तूबर 2014

बस तुम ही हो मेरा जीवन....................


मै नही देती हक किसी को
मुझे जीता या हारा कहने का
मुझे नही होती खुशी
अपनी झूठी तारीफ सुन कर
मुझे तकलीफ भी नही होती
जब बेगाने इंगित करते है कमियां मेरी
मुझे नही मिलती राहत
परायी संत्वनाओं से किसी पल
नही बहते मेरे आंसू
जब खो जाती है मेरी कोई चीज
ऐसा नही मुझे खुशी या गम
महसूस नही होता
रो पडती हूँ देखकर
आंसुओ की आहट माँ की आंखो में
बेबस हो जाती हूँ ये सुनकर
जब वो कहती है
कैद कर लिया है मैने खुद को
घर की चार दीवार में
क्योकि नही दे पाती वो जवाब
जमाने के सवालों का
गुनाह बस उसका है इतना
नही कर पाई है वो हाथ पीले अपनी बिटिया के
नही बेच पाई वो अपने जिगर के टुकडे को
किसी योग्य वर के हाथों में
माँ कैसे यकीन दिलाऊं
मै खुश हूँ तेरे आंचल में
मुझे नही लगती कोई कमी
अपने इस खुशहाल जीवन में
मै खुश नसीब हूँ कि आज भी
मिलती है तेरे हाथ की रोटी
और आ जाती है सुकून की नींद
तेरी जन्नत सी गोद में...............

शुक्रवार, 10 अक्तूबर 2014

पिता जी


आज भी मेरे लिये
हिमालय पर्वत से हैं मेरे पापा
तो क्या हुआ जो पड गयी हैं
हाथों में चंद धुर्रियां
आज भी उनकी उंगली पकड
जब रास्ता पार करती हूँ
विश्वास होता है मन में
मैं सबसे मजबूत हाथों में हूँ
समय के साथ बढ गया है
चश्में का नम्बर, फिर भी
उनकी नजर पहचान लेती है
मेरी तरफ पडती
किसी भी बुरी निगाह को
उनकी तीक्ष्ण निगाह ही काफी होती है
ये कहने को कि अभी मै हूँ
उनकी उपस्थिति मात्र ही
बचा लेती है दुनिया की बलाओं से
आपके दिये वो एक - दो के सिक्के
मेरे लिये किसी खजाने से कम नही
आपकी खुशियों पर न्योछावर हैं
मेरे जीवन का हर सुख हर खुशी
आखिर क्या मायने है खुशी के
जिसमे आपकी मुस्कान शामिल ना हो
आपके नाम से ही
तो है मेरी पहचान
आपके साथ से ही है
मेरा मान- सम्मान
छोड कर दूर जाना
मेरी खुशी नही मजबूरी है
मै कही भी जाऊँ, कुछ भी कर लूं
मन छोड कर आती हूँ
हमेशा घर की दहलीज पर ही
और सजा लाती हूँ अपने माथे पर
आपके आशीर्वाद के छाप
सुकून की नींद और
खुशियों से पल्लवित हूं`
क्योकि पास है आपसा बागवान
जो हमें कभी मुरझाने नही देगा




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