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गुरुवार, 29 जनवरी 2015

अरुणिमा भाग - ३

आज बहुत दिनों के बाद, दो वर्ष पुराने अधूरे काम को पूरा करने का मन हुआ, पिछले वर्षो की व्यस्तता ने मुझे उस काम से दूर रखा जिसे पूर्ण होते देख मुझसे ज्यादा खुशी किसी और को होने वाली थी।अपने पिछले दो अंकों जो मैने लिखा उनका संदर्भ यहाँ दे रही हूँ ताकि पाठ्क रुचिपूर्वक पढ सकें।
अरुणिमा भाग १
अरुणिमा भाग २

गतांक से आगे....
अरुणिमा को हम अपने साथ ले तो आये थे, मगर वो यहाँ होकर भी यहाँ नही थी। इस नन्ही सी उम्र में उसको जो दुख मिल रहे थे, उसके बारे में सोच कर भी मैं काँप जाती थी मगर उसने तो पता नही कहाँ से बडों सी समझ पायी थी, किसी बात के लिये कोई जिद नही करती, कभी गुमसुम सी बैठी किसी चाज को एकटक ताकती रहती तो कभी माँ के साथ कुछ ना कुछ काम करने लगती। मेरे कारन उसने अपने पिता को खोया था मगर फिर भी उसकी आँखो के किसी भी कोने में मेरे लिये कोई दुर्भाव नही था, पर मेरे मन में बहुत बोझ था, उसके पास जाने में भी डर लगता था।
एक दिन मैने स्कूल से वापस आ कर देखा माँ रसोई में खाना बना रहीं थीं और अरुणिमा हमारे बगीचे के एक कोने में सिमटी सी बैठी एकटक गुलाब को निहार रही थी। मैने धीरे से उसके पास जा कर कहा- अरुणिमा ये फूल चाहिये क्या, और ये कहते हुये मैने फूल तोडने को हाथ बढाया ही था कि एक झटके से उठते हुये उसने मेरा हाथ पकडते हुये कहा - नही दीदी, हमको फूल नही चाहिये, इसको ना तोडियेगा, इसको बहुत दर्द होगा। ये पेड तो इसके लिये माई बापू है ना, इनसे अलग होके ईका बहुत तकलीफ होगी। और कहते कहते फूट फूट कर रोने लगी। मै जानती थी कि अरुणिमा किस तकलीफ से गुजर रही थी, उसकी तकलीफ को मैं किसी भी तरह से कम करना चाहती थी। मैने अपने बस्ते से चाकलेट निकाल कर उसके हाथ में रख दी। आज स्कूल में निम्मी का जन्म दिन था, और उसने सभी को टाफी दी थी, चूंकि मै उसकी सबसे अच्छी दोस्त थी तो उसने स्कूल से निकलते समय चुपके से मेरे हाथ में ये चाकलेट दी थी। और उसी समय मेरे मन में ये चाकलेट अरुणिमा को देने का खयाल आया था, इसलिये नही कि मुझे वो चाकलेट पसंद नही थी, बल्कि मै अब अरुणिमा को सबसे अच्छा दोस्त मानने लगी थी, उस समय बस मन में यही था कि कितनी जल्दी घर पहुँच कर मै उसको ये चाकलेट दे दूं, मगर यहाँ उसको ऐसे गुमसुम देख कर मेरी सारे हिम्मत, सारा हौसला ना जाने कहाँ छू मन्तर हो गया था। उसके आंसू देखकर मुझे कुछ भी नही सूझ रहा था कि उसी पल बस्ते में रखी चाकलेट याद आ गयी ।
सिसकते हुये उसने चाकलेट हाथ में ली और उसको खोल कर मेरी तरफ बढाते हुये बोली- दीदी आप पहले खाओ, मैं बाद में खा लूंगी, मेरी आखों के सामने उसकी वही छवि आ गयी जब वो ताजे ताजे फल अपने नन्हे से हाथों में भर कर मेरे लिये लाती थी, बस फर्क ये था कि आज उसकी चहचहाट गायब थी।
तभी माँ ने हमे खाने के लिये पुकारा तो मैं उसका हाथ पकड उसे अपने साथ ले कमरे की तरफ आ गयी।

शेष फिर.....

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