बुआ
जी बुआ जी, देखो ना कितनी देर से मै ये गांठ खोलने की कोशिश कर रहा हूँ, मगर ये खुल
ही नही रही। प्लीज आप खोल दो ना। पाँच साल का टुक्कू मेरे पास एक मोटा धागा लेकर आया
था। तब तक पीछे से दौडती हुयी प्रीती आयी और बोली नही बुआ जी आप ना खोलियेगा, हम लोग
खेल खेल रहे है, टुक्कू ये तुमको ही खोलनी है, नो चीटिंग और हाँ धागा टूटना नही चाहिये,
अगर टूट गया तो तुम हार जाओगे। ओके ओके पता है मुझे कहते हुये बेचारा टुक्कू दुबारा
से गाँठ खोलने की कोशिश करने लगा।
मेरे
सामने चार महीने पहले की अविनाश के कहे शब्द कानों में सुनाई देने लगे- श्रुति प्यार
के धागे में कभी गाँठ नही लगनी चाहिये, और अगर कभी लग भी जाय तो उसे पति पत्नी को मिल
कर खोल लेना चाहिये। धागे के टूट जाने में हम दोनो की ही हार है। मगर श्रुति अविनाश
की किसी भी बात को सुने बिना अपनी माँ के पास चली आयी थी। यहाँ पर भी सभी ने तो उसको
समझाया था, मगर जब श्रुति ने कहा कि ठीक है मै चली जाती हूँ यहाँ से , मगर अविनाश के
पास दुबारा नही जाऊंगी, इतनी बडी दुनिया है कही भी चली जाऊंगी, पर अब आप लोगो पर बोझ नही बनूंगी, उसके बाद से सबने कुछ भी उससे ना कहने का निश्चय कर लिया था।
आज नन्हे
से बच्चों के खेल ने श्रुति के मन पर पडे पर्दे को एकाएक हटा दिया, और वो चल दी अपनी
गाँठ सुलझाने अपने अविनाश के पास।
लोहड़ी की हार्दिक मंगलकामनाओं के आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा कल सोमवार (13-04-2015) को "विश्व युवा लेखक प्रोत्साहन दिवस" {चर्चा - 1946} पर भी होगी!
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंमेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है अगर पसंद आये तो कृपयाफॉलो कर मार्गदर्शन करे
धागे के टूट जाने में हम दोनो की ही हार है।
जवाब देंहटाएंरिश्तों को परिभाषित करती सार्थक पोस्ट !