उसे ना बहुत गोरी ही कहा जा सकता था ना ही सांवली।
हाँ कद काठी ऐसी थी कि एक बार मुड कर देखे बिना रुका ना सके, और सबसे बडा उसका आकर्षण
थे उसके नागिन से लम्बे सुर्ख काले बाल, जो लडकों के तो क्या लड्कियों तक के मुंह से
उफ्फ निकलवा देते।
पिछले दिनों ही मेरे पडोस में रहने आयी और चंद
ही दिनों में ऐसी दोस्ती हुयी कि लगता पिछले जनम में जरूर हम बहन ही रहे होंगें। एक
कारण यह भी था कि जब से मेरी नौकरी का ट्रांसफर हुआ मै भी बिल्कुल अकेली ही थी।
कई साल की नौकरी में कभी हास्टल रही कभी पीजी
मगर इस बार मन किया बिल्कुल अकेले रहा जाय। ऐसा नही था कि मैं अकेले किसी खास आजादी
के कारण रहना चाह रही थी, मगर इतने सालों के बाहर रहने के अनुभवों में एक बात तो समझ
आ गयी थी कि यदि अपनी सेहत और मन का खाना है तो अपने रसोई बनानी पडेगी, और फिर मकान
लेने का एक और फायदा था कि जब चाहे घर से कोई आ जा सकता था। मगर बहुत जल्द अकेले रहने
के नुकसान भी दिखने लगे, शुरु शुरु में तो खूब घर सजाया, खूब मन का बनाया, फिर धीरे
धीरे ऑफिस की थकान घर तक आने लगी, और कई कई दिन मैगी और ब्रेड पर निकलने लगे।
अभी कुछ दिनों पहले जब पडोस में नैना रहने आयी
तो लगा जिन्दगी अब कुछ मजे से कटने वाली है, और हुआ भी यही, यूं तो नैना उम्र में मुझसे
चार पाँच साल छोटी थी मगर दो चार मुलाकातों में ही उसने साफ साफ कह दिया, हम दोस्त
हैं ये दीदी वीदी हम तो नही मानने वाले, और मैने भी हंस कर उसकी दोस्ती को ही गले से
लगाया।
नैना की बातों से ही पता चला कि पडोस में रहने
वाले अग्रवाल जी की दूर की चचेरी बहन लगती है, और नौकरी ढूंढने के सिलसिले में यहाँ
आयी है। उन दिनों मेरे ऑफिस में भी निविदा पर जगह निकली थी ये सोचकर कि शायद नैना का
कुछ काम बन जाय, जब मैने उसको निकली हुयी जगह के बारे में बताया तो वो बोली- क्या तुमने
भी मुझे इतना छोटा समझ लिया, ऐसी छोटी नौकरी थोडे ही करूंगी, ये ही करना होता तो अपना
ही घर क्या बुरा था।
बात शायद नैना ने ठीक ही कही थी, मगर उसके कहने
में जिस गर्व का मुझे अनुभव हुआ वो कुछ चुभ सा गया। कौन सा मैने उसको सारी जिन्दगी
ये नौकरी करने को कहा था, मैने तो बस अपनेपन के नाते बताया ही था। खैर दिन जाते रहे,
नैना को आये करीब दो महीने हो रहे थे, मगर अभी कुछ काम बन सका था। छोटी नौकरी वो करने
को तैयार ना थी और बडी नौकरी उसे मिलती नही थी।
यूं तो रोज शाम को आने का उसका नियम ऐसा था जैसे
सूरज का ढलना और चाँद का निकलना मगर आज जब दो दिन हुये तो मुझे चिन्ता होने लगी। सोच
रही थी कितनी मूर्ख हूँ आज के मोबाइल के जमाने में भी उससे ना तो उसका नम्बर लिया ना
अपना दिया। ऑफिस से काफी थकी थी सो आलस करके लेट गयी, सोचा आती ही होगी। रात भूखी ही
सो गयी, सुबह फिर वही ऑफिस। आज ऑफिस में कुछ कम काम था सो दिन में कई बार नैना के बारे
में ख्याल आया। सोचा शाम को आज मै ही घर जाऊंगी, मगर अचानक एक हफ्ते का ट्रेनिंग का
प्रोगराम मुझे सौंप दिया गया क्योकिं जयंत (मेरे सीनियर) की वाइफ को अचानक दिल का दौरा
पड गया था। इस भागमभाग में नैना कही खो सी गयी। मगर मुंबई जाने से लेकर आने तक के रास्ते
भर बराबर नैना की याद आती रही। वापस सीधे ऑफिस रिपोर्ट करना था सो शाम को सीधे अग्रवाल
जी के घर ही गयी, उम्मीद थी कि गेटे पर ही नैना मिल जायगी तो उसको घर लेती आउंगी, और
फिर पूंछूंगी क्यो नही आयी इतने दिनों से, फिर मन में ही सोचा इतने दिन अरे आज मिला
कर तीन दिन होते, सच जब किसी से रोज का ही मिलना हो तो एक एक दिन भी महीनों सा बन जाता
है। डोर बेल बजायी तो अग्रवाल जी की मिसेजे ने गेट खोला, मिसेज अग्रवाल जिनकी ना तो
ऐसी उमर थी कि उनको आंटी कहा जा सकता था और ना दीदी जैसी उनसे आत्मीयता कभी जुड सकी
थी सो हमेशा आप से ही काम चला लेती थी। और आज तो उस आप का भी विलोप करते हुये सीधे
बोली- कई दिन से नैना नही आयी, कही गयी है क्या?
मिसेज अग्रवाल ने मेरे उत्तर के प्रतियुत्तर
में मुझे अन्दर आने का निमंत्रण देते हुये कहा- लगता है अभी सीधे ऑफिस से आ रही हो,
देखो गरमी भी तो कितनी ज्यादा हो रही है, आओ अंदर आ जाओ। गरमी की बात सुनते ही मुझे
भी अनुभव हुआ कि वाकई गरमी बहुत थी और शायद मेरे चहरे की थकन देखकर उन्हे पहले मुझे
पानी देना ज्यादा जरूरी लगा होगा। एक ही सांस में पूरा ग्लास पानी पी गयी, शायद तभी
उन्होने मुस्कराकर कहा- और लाऊं क्या। थोडा सा खुद पर झिझक भी हुयी, कि इतनी आतुरता
से पानी पीने कि क्या जरूरत थी मगर शायद गरमी में सूखा गला नही समझ सकता था और वो सूखी
मिट्टी में पडी बारिश की हर बूंद को सोखता चला गया।
खाली पानी के ग्लास को मेरे हाथ से लेकर मेज
पर रखते हुये मिसेज अग्रवाल बोली- नैना अपने घर चली गयी है, चली गयी है क्या मतलब था
इसका क्या अब उसको वापस नही आना था, क्या उसको नौकरी मिल गयी थी या घर में कोई समस्या
आ गयी थी, कई सारे सवाल मन में ऐसे आ गये जैसे पटरी पर माल गाडी के डिब्बे पलक झपकते
ही निकल जाते हैं, मगर मिसेज अग्रवाल बहुत ही संयत थी। कही मेरे सवालों को वह अन्यथा
ना ले, मैने खुद को बहुत नियन्त्रित करते हुये पूंछा- चली गयी मतलब, उसको कही नौकरी
मिल गयी क्या?
मन ही मन गुस्सा तो आ रहा था कि ऐसे भी कोई जाता
है क्या, कम से कम मिल कर तो जाती, उसकी खुशी से मुझे बहुत खुशी होती, मगर गुस्से को
मन में ही रखना उचित था। तभी मिसेज अग्रवाल ने कहा- नही नौकरी कहाँ मिली, वो तो हम
सबको छोड कर जाने कहाँ चली गयी। उसका फोन उसका सामान उसकी डिग्री सब यही पडे हैं, दो
तारीख की सुबह निकली थी, कह रही थी – भाभी आप सबको बहुत परेशान किया, अब नही करूंगी,
आज चाहे जैसी नौकरी मिले छोटी या बडी कर लूंगी। आज पूरे तेरह दिन हो गये नैना का कही
पता नही, ना कही से कोई दुर्घटना की खबर ना किसी रिश्तेदारी में। दो महीने पहले एक
एक्सीडेंट में माँ बाप नही रहे थे, ये उसको अपने साथ ले आये थे, मै बेऔलाद क्या जानती
थी कि मेरे नसीब में तो औलाद का सुख था ही नही।
उफ्फ कितना कुछ समेटी थी खुद में , कभी कुछ नही
बताया, और मै समझती थी कि हम एक माँ से जायी बहन से हैं जिनके बीच कोई बात अकेली नही।
तो क्या वो सिर्फ मुझे ही खुशी देने आयी थी। मन में सैकडों सवाल हर रात उठते हैं और
दब जाते हैं। बस तब से लेकर हर शाम जब घर लौटती हूँ तो मन में एक ही आस रहती है वो
कही से आ जाय, और मुझसे कहे- ऐसी छोटी नौकरी थोडे ही करूंगी।
कुछ लोग अपने आप में रह कर भी छाप छोड़ जाते हैं.
जवाब देंहटाएंआपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन ’ओ बुद्ध! एक बार फिर मुस्कुराओ : ब्लॉग बुलेटिन’ में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा. कभी हमारे ब्लॉग पर भी आइये.
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