हर दिन की तरह उस दिन भी सूरज निकला, हर दिन की तरह मै भी तैयार हो कर काम के लिये निकल गई, हर दिन की तरह उस दिन भी मां ने कहा बेटा, अपना खयाल रखना, संभल कर जाना जमाना बहुत खराब है, मगर उस दिन वो हो गया था जिसे कभी भी नही होना चाहिये था, किसी के भी साथ नही होना चाहिये था। वो दिन अमावस की रात से भी ज्यादा काला हो गया था मेरे लिये, ऐसा कालापन जिसमें हजारों सूरज भी उजाला नहीं भर सकते थे। दुनिया के लिये मैं एक खबर बन गई थी, कुछ लोगों के लिये कैंडिल मार्च का एक मौका, समाज के लिये कलंक, मां बाबू जी के लिये नासूर और खुद के लिये एक बोझ।
उस दिन के बाद से नौ महीने मैने कैसे निकाले, ये या तो मै जानती थी या मेरा विधाता। मां बनना मेरे लिये अभिशाप था, और जन्म देते ही मै इस अभिशाप से मुक्त हो जाना चाहती थी। मगर जिंदगी को हम जैसा देखते है, वैसी कभी भी नही होती, मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ।
अस्पताल
में बच्चे को जन्म देने के बाद, मै बिना बच्चे को देखे अस्पताल से बाहर निकल आई थी,
मुझे नही पता वो लडका था या लडकी, और उस समय मुझे यह जानने की बिल्कुल इच्छा भी नहीं
हुई थी। उस समय तो ऐसा लगा था जैसे कोई अनचाही चीज जिसे मै अपने साथ ढो रही थी, उससे
मुक्त हुई थी।
आज
हर चीज से बाहर आ गई थी, नये शहर में नई नौकरी कर अपनी नई पहचान बनाने की कोशिश करने
लगी थी। पुरानी हर चीज को भूलने का मुझे यही एकमात्र रास्ता दिखा था
एक
रविवार, सुबह एक चाय पी चुकी थी, हल्की हल्की से ठंड शुरु हो चुकी थी, रेवती बर्तन
साफ करके जाने को थी, तभी मैने कहा- जाने की जल्दी ना हो तो दो कप चाय बना लो। मैं
कुर्सी पर बैठी कब सो गई पता नही, रेवती की आवाज - दीदी चाय से अचानक लगा जैसे बहुत
देर से सोई हुई थी।
रेवती
भी वही पास ही बैठ गई। कुछ बात करने के लिहाज से मैने पूछा- और घर में कौन कौन है?
रेवती-
दीदी हम, हमारा आदमी दो मन के और दो अनचाहे बच्चे।
“अनचाहे
बच्चे” ये शब्द मेरे कानों में गरम सीसे सा पडा, फिर भी खुद को संयत करते हुये बोली-
ऐसा क्यो कह रही है, अनचाहे से क्या मतलब है तेरा?
रेवती-
दीदी जी अब आपसे भला क्या छुपाऊं। जब मेरी शादी हुई तब ही मैने मेरे मरद को बोल दिया
था कि हम दो से ज्यादा बच्चे नहीं करेंगें, तब तो उसने भी खुशी से हामीं भर दी थी कि
हां दो होंगें तो उनको अच्छा पढा लिखा कर अच्छा आदमी बना देंगें, वो मेरी तरह ट्रक
नही चलायेगा, और ना ही तेरी तरह घर घर काम करेगी।
तीन
साल में भगवान की दया से हमे एक लडका और और लडकी हो भी गये। मगर रग्घू अपनी बात
पर ना टिका रहा। आये दिन मुझसे एक और बच्चे के लिये कहता रहा। मेरे लाख मना करने के
बाद भी अपनी जोर जबरदस्ती से मेरे पेट में एक बार और बच्चा दे दिया। मैने खूब कहा सुना
– कि ये बच्चा गिरा देते हैं, तो उसने मुझे छोडने की धमकी दे दी। आखिरकार करती भी क्या,
जन दी एक और बच्चा।
कहते
कहते रेवती का मन और आवाज दोनो भारी हो गये। एकाएक वो चुप हो गयी।
और
मेरा मन गिनती में उलझ गया। मगर ये तो तीन बच्चे हुये, चौथा भी क्या ऐसे ही हो गया।
रेवती शायद अब कुछ नही कहना चाह रही थी, मगर मै आगे सुनने के लिये आतुर थी, मै उसके कंधे पर हाथ रख बोली- ऐसा ही तो होता है इस समाज में, स्त्री पैदा तो करती है, मगर उसकी अपनी मर्जी हो ये कहां जरूरी है। रग्घू को तू उसके बाद भी नहीं मना कर पाई थी क्या।
रेवती – नही दीदी, तीसरे के बाद तो मैने कसम खा ली थी, कि चाहे मुझे रग्घू से अलग ही
रहना पड जाय मगर अब मै अपना पेट नही चिरवाऊंगी।
मगर
जानती हो दीदी – रग्घू ने तो वो कर दिया, जो हम कभी सोच भी ना सकते थे।
थोडा रुक कर बोली - एक
बार वो ट्रक ले कर करीब एक महीने बाद लौटा। और उसके बाद से मुझसे कटा कटा रहने लगा।
पहले
तो मैने उसको मनाने की बडी कोशिशे की, फिर उसको उसके हाल पर छोड बच्चों के साथ लग गई,
पहले दो मकान थे, अब दो और पकड लिये थे, पैदा करने वाला तो अपनी ही दुनिया में था,
बच्चों का पेट पालने के लिये काम तो मुझे ही करना था।
और फिर करीब आठ साढे आठ महीने बाद, एक
दिन सुबह सुबह दरवाजे पर एक बच्चे के रोने की आवाज आई, मै उठ कर बाहर निकली तो देखा
एक सत्रह अठरह साल की लडकी, गोद में एक बच्चा लिये खडी थी।
मैने
पूछा- तुम कौन हो? तो बोली – रग्घू को उसका बच्चा देने आई हूं, कह कर मेरे हाथ में
बच्चा थमा, बिजली की तरह गायब हो गई। मैं गुमसुम सी दरवाजे पर तब तक खडी रही जब तक
रग्घू बच्चे के रोने की आवाज सुन कर दरवाजे पर नही आ गया। मेरे हाथ में बच्चा देख बोला-
अब ये कौन है, मेरे सबर का बांध टूट गया, मै बोली- ये मुझसे पूंछ रहा है, ये कौन है,
तू बता ये कौन है? रग्घू को काटो तो खून नही वाली स्थिति हो गई। कई घंटे हम लडते रहे,
बच्चा बिलबिलाता रहा, आखिरकार मेरे अंदर की मां ने एक और अनचाहा बच्चा स्वीकार कर लिया। बीते दिनों से लौटते हुये रेवती के चहरे पर एक संतोषजनक मुस्कान थी - हंस कर बोली, जानती हो दीदी, अपना मनवा वही बच्चा है, जो रोज मुझे लेने और छोडने आता है, सगी औलाद से भी ज्यादा माने है मुझे।
रेवती
की बातों ने मुझे अंदर तक हिला दिया। मुझे मेरी तकलीफें उस अबोध की तकलीफों के सामने
बहुत छोटी लगने लगीं। मै उस नन्ही सी जान को अस्पताल के हवाले करते समय यह क्यो नही
सोच पाई कि जिसने अभी दुनिया में आंख भी नही खोली थी उसको मै कैसे छोड आई। भले ही वो
अनचाहा था, मगर क्यों नही उसको अपनी ममता दे सकी।
रेवती आज मेरी नजर में किसी विदुषी से कम ना थी जिसमें ना सिर्फ जीवन सी सच्चाइयों का सामना करने की हिम्मत थी, बल्कि अपनी मेहनत और लगन से अनचाहे को मनचाहे में बदलने का हौसला भी था।आज एक सामान्य सी स्त्री ने मुझ पढी लिखी को इंसान और स्त्री होने के मायने समझा दिये थे, जिंदगी को अब मै एक नये नजरिये से देख पा रही थी और चाय का कप किचन में रख मैं भी अपने अनचाहे को मनचाहा बनाने का निर्णय कर चुकी थी।
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