दो से देखो वो एक हो गये, चलते चलते
राही अंजान हमसफर हुये, चलते चलते
मौसम तो आये कई मुश्किलों के मगर
कोयले से खरा कुंदन हुये जलते जलते
बडी आजमाइशे की मुकद्दर ने तो क्या
मंजिले पा ही गये शाम के ढलते ढलते
फासले मिटाने को हंसके गले मिलते रहे
आखिर दुश्मन थक ही गये छलते छलते
फंदे पाबंदियों के छुडा, छू लिया आसमां
और रह गये लोग बस हाथ मलते मलते
क्या डराते हो तुम आंधियों के मिजाजों से
चलना सीखा हमने तूफानों में पलते पलते
जो भी है दिल में पलाश आज ही कह दो
बात बन जाती है फ़साना यूं टलते टलते
वाह , लाजवाब ग़ज़ल .....
जवाब देंहटाएंजिजीविषा को कहती हुई ।।
नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (21-02-2022 ) को 'सत्य-अहिंसा की राहों पर, चलना है आसान नहीं' (चर्चा अंक 4347) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:30 AM के बाद प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।
चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
#रवीन्द्र_सिंह_यादव
वाह! बहुत ही शानदार प्रस्तुति..
जवाब देंहटाएंक्या डराते हो तुम आंधियों के मिजाजों से
जवाब देंहटाएंचलना सीखा हमने तूफानों में पलते पलते... वाह!
बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर...गहन अर्थ समेटे..बेहतरीन!!
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