इतवार की सुबह थी, चाय नाश्ता हो चुका था, अखबार भी पढा जा चुका था। राधिका की कल से परीक्षा थीं इसलिये श्रीमती जी उसको पढानें में व्यस्त थी, भले ही वह फस्ट क्लास में थी मगर हमारी श्रीमती जी को इतनी चिंता थी जैसे उसकी बोर्ड की परीक्षा हो। ऐसे माहौल में टीवी चला लेना किसी गुनाह से कम ना था, डांट पढना संम्भावित नहीं, सुनिश्चित था। हम और मिंटू दोनो को ही कोई काम समझ नहीं आ रहा था। तभी मुझे सामने अलमारी में फूल और सब्जियों के बीज का पैकेट दिखा जो मै श्रीमती जी के कई बार कहने के बाद लाया था, और शायद कुछ व्यस्तता के कारण वो अभी तक इन्हे बो नहीं पाईं थीं। कोई और दिन होता तो मै भी यह उलाहना जरूर देता - कि जब तक बीज ना लाया था, लोगों ने कह कह कर मेरी नाक में दम कर दिया था, और अब लगता है रक्खे रक्खे ही फूल सब्जी उग आयेंगें। मगर मुझे तो अभी यह एक अवसर सा लगा, एक पंथ दो काज जैसा- मेरा थोडा समय भी कट जायेगा, और श्रीमती जी भी खुश हो जायेंगीं।
मैने मंटू से कहा- आओ बेटा हम लोग गार्डेन में चलते हैं। मंटू जो कुछ देर पहले ही शोर मचाने के कारण मां से डांट खाकर, सोफे पर उल्टा लेटा था, गार्डेन का नाम सुन कर मेरे साथ चल दिया।
दोनो पिता पुत्र ने चार गमले तैयार किये। मंटू बडे ध्यान और मन से मेरे साथ लगा हुआ था। मैने उसको मिट्टी में खाद को अच्छे से मिलाने का काम दिया था, और वह अपने नन्हे हाथों से खूब अच्छे से यह कर रहा था। जैसे ही मैने गमले में बीज डाल कर उनके ऊपर थोडी सी मिट्टी और पानी डाला, मंटू उदास होकर बोला- पापा आपने तो सब गडबड कर दी। मुझे समझ नहीं आया कि मैने क्या किया जिसके लिये मंटू अचानक से उदास भी हो गया और ऐसा क्यों बोल रहा है। मैने उसको अपने पास लाते हुये बोला- क्या हुआ बेटा, मैने क्या गडबड कर दी। ऐसा लगा जैसे मंटू को लगा कि उसके पापा ने जानबूझ कर गलती नहीं की जैसे अभी थोडी देर पहले जब वह पानी का ग्लास सिंक में रखने जा रहा मगर वह छूट कर गिर गया था और राधिका की किताब गीली हो गई थी और फिर मम्मी से उसको डांट पडी थी।
मासूमियत और समझदारी के मिश्रित लहजे में बोला- पापा आप तो कह रहे थे कि बीजों से पेड बनेगा, उसमें सुंदर सुंदर फूल आयेंगें मगर आपने तो इनको मिट्टी में दबा दिया, अब ये बेचारे तो अंदर मर जायेंगें, इनको तो हवा भी नहीं मिलेगी। फिर कैसे इसमे से फूल निकलेंगें?
मैं मिंटू के अंदर पनपे मानवीय गुण को देख रहा था। उसके मासूम से प्रश्न में असीम जिज्ञासा छिपी हुई थी।
मैने कहा- दरअसल ये बीज जब मिट्टी के अंदर जायेगा। तभी इससे अंकुर निकलेगा, फिर धीरे धीरे इसमें पत्तियां आयेंगी, फिर नन्ही सी कली और फिर निकलेगा एक दिन सुन्दर सा फूल।
मगर मंटू को शायद मेरी बात समझ नही आ सकी या मै मंटू की समझ तक जाकर उसको समझा नही पाया था।
मंटू का प्रश्न वहीं का वहीं था। बोला- लेकिन पापा मिट्टी के अंदर से ये कैसे बाहर आ पायेगा, इसके पास तो पैर भी नहीं हैं। और पापा ये अंकुर क्या होता है?
तभी मुझे याद आया कि शायद रसोई में कुछ अंकुरित मूंग अभी रखी हो, जो मै रोज सुबह लिया करता हूं।
मैने कहा- तुम यही रुको बेटा , मै बस एक मिनट में आता हूं।
सौभाग्य से रसोई में थोडी अंकुरित मूंग बची हुयी थी, मै अंकुरित मूंग के दाने लिये हुये जब गार्डेन आया तो देखा- मंटू बोये हुये फूलों के बीजों को मिट्टी से निकाल कर उन पर पानी दे रहा था।
मैने पूछा- बेटा आपने ये बीज क्यो निकाल दिये, और इन पर पानी क्यो डाल रहे हो?
मंटू- पापा इनकी ना सांस अंदर रुक गई होगी, मै इसलिये इनको पानी पिला रहा हूं।
मुझे मन ही मन उसकी इस मासूमियत पर हंसी आ रही थी, मगर मंटू बहुत गंभीर था।
मैने कहा- ये तो आपने अच्छा किया, मगर आपको कैसे पता कि इनकी सांस अंदर रुक गई थी।
बेटा दरअसल, मिट्टी तो इनका घर होता है, और हवा पानी वैसे ही होते है जैसे तुम्हारे लिये हम और मम्मी है।
मिट्टी के अंदर तो यह अपने मम्मी पापा के साथ रहेगा, और फिर धीरे धीरे बडा होकर वापस निकलेगा, वैसे ही जैसे पहले तुम जब बिल्कुल छोटे से थे, अपनी मम्मा की गोद में ही रहते थे, अब थोडा बडे हुये हो ना, तो अब तो आप नही रहते ना मम्मा की गोद में।
आओ तुमको कुछ और दिखाता हूं, फिर एक हाथ में लिये हुये मूंग केअंकुरित दाने मैने उसको दिखाये।
पापा- ये देखो मंटू इसको कहते हैं अंकुर, जिसका मतलब होता है नन्हा सा। जैसे तुम हमारे अंकुर हो और यह मूंग का। आओ हम लोग फिर से इन बीजों को इनके घर पहुंचा देते हैं।
मै फिर से मिट्टी में बीज डालने लगा, इतने में मंटू ने जोर जोर से कहा - मम्मा मम्मा प्लीज यहां आओ ना....
आवाज सुन कर श्रीमती जी के गार्डेन आते ही मंटू ने कहा - मम्मा मम्मा, आज से ना मै मंटू नहीं, अंकुर हूं, है ना पापा, और फिर मेरी तरफ मुड कर मेरी स्वीकृति की प्रतीक्षा करने लगा।
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