हर एक जिंदगी
में, ना जाने कितने आखिर क्यों
हर मन को भेदता, कभी ना कभी आखिर क्यों
किसी का क्या बिगाडा था, हुआ जो साथ ये मेरे
किया जो होम तो फिर, जला ये हाथ आखिर क्यो
किसी को मिल गया पैसा, किसी के पास शोहरते
मेरे दामन में
ही कांटे, हजार आये है आखिर क्यों
जिसे बरसों से जाना था, फक्र उसके हुनर पर था
जिंदगी में
मेरी उसने, जहर घोला है आखिर क्यों
बचाया गुनहगारों को उनके रुतबों और बुलंदी ने
हुई मजबूर मरने को बेगुनाह मासूम आखिर क्यों
बहुत कमजोर हो चली है, याददाश्त इस बुढापें में
जिसे चाहा भुलाना वो, भूला पाये ना आखिर क्यों
कहां बेनकाब होती नियत, उजले चिकने चेहरों की
बाद धोखे के सोचे दिल, किया ऐतबार आखिर क्यों
ताकतों सत्ता और दौलत की, चमकतीं जब तलवारें
दफन हो जाते
कितने ही, बेबस लाचार आखिर क्यों
मौसम की तरह आते जाते हैं, पलाश गमों खुशियां
बदल जाती वजहें
पर, अटल रहता ये आखिर क्यों
जी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना शुक्रवार १९ नवंबर २०२१ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
Thank you so much Sweta Ji.
हटाएंताकतों सत्ता और दौलत की, चमकतीं जब तलवारें
जवाब देंहटाएंदफन हो जाते कितने ही, बेबस लाचार आखिर क्यों।
उम्दा अभिव्यक्ति, गहन भाव सुंदर ग़ज़ल।