कामता
आज जब काम करने आयी तो उसके साथ करीब तीन साल की छोटी बच्ची भी थी। आते ही बोली- बीबी
जी ये मेरी बहन की बेटी है, इसी को लेने मै गांव गयी थी। इसके जनम के साथ ही मेरी बहन
मर गयी थी, और मेरा जीजा साल भीतर ही दूसरी को ब्याह लाया। पहले तो थोडा ठीक रहा ,
मगर अब तो इस बेचारी को दूध की तो कौन कहे, पानी पर भी जीने के लाले है। बिन माँ की
तो थी ही, अब तो बाप के रहते भी, बिन बाप की ही हो गयी। अब मै इसकी माँ तो नही मगर
माँ जैसी तो हूँ ही, आखिर मेरी बहन की आखिरी निशानी है, कइसे देख सकती थी, इस नन्ही
ही जान को मरते सो इसको ले आयी। अब आज से मै ही इसकी माँ भी हूँ और बाप भी। जाने कैसी
कठोर दिल की है वो जो इस मासूम की सूरत देख कर भी नही पसीजती। मगर बीबी जी भगवान भी
सबका हिसाब कर ही देते है, तीन बरस मे तीन मरे हुये बच्चों को जनम दे चुकी, पर अकल आज भी नही आयी।
चलूँ काम कर लूँ, आप बस जरा इसको देखे रहियेगा, वैसे तो ये यही कोने मे बैठी रहेगी।
कामता
की बाते सुन कर ऐसा लगा जैसे किसी ने मेरे मुंह पर जोर का तमाचा लगा दिया हो, कि क्या
मै रेनू के लिये माँ जैसी बन सकी, क्या मुझमे और इस बच्ची की सौतेली माँ मे कोई फर्क
नही। क्या इसी कारण से मै भी आज तक माँ नही बन सकी? क्या भगवान मुझे भी माँ जैसे रिश्ते
को अपमानित करने की मुझे सजा दे रहे हैं? क्या मैने रेनू से उसके पिता को नही छीन रखा?
क्या शादी से पहले जब नवीन ने मुझसे वादा लिया था कि तुम रेनू की माँ पहले और मेरी
पत्नी बाद मे होगी, उस वादे को नही तोड दिया था ? क्या अगर आज रेनू की भी कोई मौसी होती
तो वो भी रेनू को यहाँ से ले जाती - मेरे अत्याचारों से मुक्ति दिलाने के लिये।
क्या रेनू इस बच्ची से भी ज्यादा अभागी है जिसके पास कम से कम कामता जैसे मौसी तो है जो उसे माँ
बाप दोनो का प्यार देगी। और एक रेनू है जिसे मैने आज तक माँ कहने का भी अधिकार भी नही
दिया। शुरु शुरु मे तो नवीन ने कई बार मुझे समझाया कि- अरुणा, कहने दिया करो ना रेनू
को माँ, तुम माँ ही तो हो उसकी, मगर मैने ही उसे कभी माँ नही कहने दिया। धीरे धीरे
पिता पुत्री एक के बाद एक समझौते करते गये, और मै उसको अपनी विजय समझती गयी। क्या कामता
परोक्ष रूप से मुझे ही सुना कर गयी थी, कि महलों और झोपडो मे कोई अन्तर नही। दोनो मे
ही रहने वाले लोग छोटे भी हो सकते है और बडे भी। आज कामता मुझसे कही बडी बन गयी थी,
और उसके सामने मै खुद को बहुत बौना महसूस कर रही थी। तभी एकाएक पहली बार मन से अपने अधूरेपन के अहसास मिट गया, आज मैने अपने भीतर छुपी माँ को पा लिया था। तभी ध्यान घडी पर गया। रेनू की बस आने का समय हो गया था, रोज कामता को ही भेज देती थी उसको लाने के लिये। फटाफट
अलमारी से पर्स उठायी, घडी की तरफ देखा, बस आने मे दस मिनट है अभी, कोने की दुकान से
उसके लिये चाकलेट ले लूंगी । कामता को आवाज लगायी- मै जा रही हूँ- रेनू की बस का टाइम
हो रहा है, तुम काम बन्द करके इस बच्ची को देख लो। और तेज कदमों से बस स्टाप की और
चल दी, उसी रफ्तार से जैसे एक माँ अपनी बच्ची को लेने जाती है,.............
ममता सदा ही पल्लवित रहे..
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
जवाब देंहटाएं--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (17-02-2014) को "पथिक गलत न था " (चर्चा मंच 1526) पर भी होगी!
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत खूब !!
जवाब देंहटाएंमंगलकामनाएं !
SUNDARTAM
जवाब देंहटाएंso niceeeeeeee
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