फूलों को रहने दूं शाखों पे
या गूंथ दूं तेरी जुल्फो मे
चाह रहा मन करूं शरारत
आज प्रकृति के रत्नो से
वो नाम छुपाते है मेरा
कांपते होठों की जुम्बिश मे
चाह रहा मन करूं बगावत
आज जहाँ की रस्मों से
सोंधा सोंधा सा मन हुआ
भींग हुस्न की बारिश मे
चाह रहा मन लिखूं इबारत
आज इश्क की नज्मों से
इल्म नही उनको फ़रो का
बेबाक गुजरते हैं गलियों से
चाह रहा मन करूं गुजारिश
मेरे साथ चले इन शहरों में
छूट गया मन्दिर मस्जिद
बैठा दर पे उसके बरसों
से
चाह रहा मन करूं इबादत
आज सनम की कसमों से
बहुत ही अच्छी रचना.......बहुत अच्छा लगा कई बार दुहराया इन पंक्तियों को!
जवाब देंहटाएंआज 16/मार्च/2015 को आपकी पोस्ट का लिंक है http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
जवाब देंहटाएंधन्यवाद!
सुन्दर रचना पर बधाई!
जवाब देंहटाएंछूट गया मन्दिर मस्जिद
जवाब देंहटाएंबैठा दर पे उसके बरसों से
चाह रहा मन करूं इबादत
आज सनम की कसमों से
अति सुन्दर शब्द और अभिव्यक्ति
अद्भुत अहसास...सुन्दर प्रस्तुति बहुत ही अच्छा लिखा आपने .बहुत ही सुन्दर रचना.बहुत बधाई आपको .
जवाब देंहटाएंखूबसूरत कविता।
जवाब देंहटाएंसुन्दर और निश्छल भावपूर्ण अभिव्यक्ति.....प्रशंसा अनुरूप...
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