घर आंगन छोड के जाना, कब अच्छा लगता है
आँखों से आँसू छलकाना, कब अच्छा लगता है
रोटी की मजबूरी, अक्सर छुडवा देती अपना देश
पराये देश में व्यापार फैलाना कब अच्छा लगता है
माँ के हाथों की खाये बिना, बस पेट ही भरता है
ऑडर देकर सीमित खाना, कब अच्छा लगता है
बेजान रंगी्न शहरों में, फ्रैंडशिप तो मिल जाती है
गली मुहल्ले के यार छोडना, कब अच्छा लगता है
आँख मिचौली, गिल्ली डंडे, सब राह ताकते देहरी पे
खेलों का वीडियो गेम हो जाना, कब अच्छा लगता है
फीके स्वाद सेवइयो के और , बेनूर दीवाली होती है
दूर अपनो से त्योहार मनाना, कब अच्छा लगता है
बेफिक्र ठ्हाके लगते थे, छत पर गर्मी की रातों में
अदब से नाप कर मुस्कराना, कब अच्छा लगता है
नरम बिस्तरों में छुपकर, बचपन सिसक कर रोता है
नन्हे छुटकू को साहब हो जाना, कब अच्छा लगता है
चाचा चौधरी, बिल्लू पिकीं से बनती थी अपनी दुनिया
आप अपनी दुनिया बिखरा देना कब अच्छा लगता है
Bahut acche se instances ko capture kiya hai ........ in every line 2nd half is amazing, kind of reader waits for it while reading the first line :-)
जवाब देंहटाएंएक अनकही मजबूरी से कब घिर गयी पता है नहीं चला .. वे दिन फिर न आने वाले ..आज सिर्फ यादें बचीं हैं जेहन में हमारे ... बहुत सुन्दर मर्मस्पर्शी रचना
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (07-12-2016) को "दुनियादारी जाम हो गई" (चर्चा अंक-2549) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत सुन्दर।
जवाब देंहटाएंबढियाँ..
जवाब देंहटाएंबचपन, ऐसा शब्द जो अपने आप में ज़िन्दगी का सबसे खूबसूरत उपन्यास है.. अब तो याद करो तो लगता है जैसे किसी पिछले जन्म की बात हो, यकीन भी नहीं होता कि कभी ऐसी ज़िन्दगी थी हमारी...
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर ....
जवाब देंहटाएंभावपूर्ण रचना।
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