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शुक्रवार, 23 सितंबर 2016

स्त्री - भोग्या नही भाग्य है


मेरी मुस्कान, कब बन गयी मौन स्वीकृति
वो स्वीकृति जो मैने कभी दी ही नही
वो स्वीकृति जो चाहता था पुरुष
कभी अनजानी लडकी से, कभी अपनी सहकर्मी से
कभी अपनी शिष्या से, कभी जीवनसंगिनी से
खुद से ही गढ लेता है पुरुष
वो परिभाषायें जैसा वो चाहता है
और परिभाषित कर देता है
स्त्री का पहनावा, उसकी चाल ढाल
अधिकारी बन जाता है समाज
आंचल में ट्कने को अनगिनत नाम
हद की पराकाष्ठा को भी पार करते हुये
अपने हिसाब से रच देता है उसका चरित्र
दोषी बन, नजरें छुपाये ताने सुनती है वो
छलनी की जाती है जिसकी अस्मिता 
तार तार हो जाता है सुहागिन बनने का सपना
और लुटेरा छलता रहता है जाने कितने सुहाग
कब समझेगा दम्भी, अभिमानी पुरुष
बल से मिलती है जय, सिर्फ संग्राम में
स्त्री रण नही, दामिनी है मानिनी है,
शक्ति का प्रतीक, जीवन की निशानी है
लाखों वीर्य करते हैं झुक कर निवेदन,
तब कभी किसी एक को मिलती है अनुमति
अपने अस्तित्व को विकसित करने की
स्त्री की पनाह में पलता है, बनता है
स्त्री करती है पल पल रक्षा
देती है अपना रक्त बनाने को तेरा नैन नक्शा
स्त्री स्वयं जया है, अविजित है
पुरुष तो अस्तित्व के लिये ही आश्रित है
उसे आश्रिता कहने की ना कर भूल
ना कर विवश कर कि बन जाय वो शूल
जिस दिन करेगी वो इन्कार बनने से जननी
पुरुष बिन कुछ किये ही मिट जायगा
धरा का अस्तित्व ब्रहमाडं से मिट जायगा
ना होगा पुरुष, ना होगी स्त्री,

हो जायगी एक पत्थर सी पृथ्वी

6 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही प्रभावपूर्ण और प्रवाहमयी ...आपने सारी भावों को शब्दों में उकेर दिया है अपर्णा जी | बहुत सारी शुभकामनायें आपको , बेहतरीन पोस्ट , साझा कर रहा हूँ ..

    जवाब देंहटाएं
  2. स्त्री पर इतना निर्भर हो कर भी अपने अहं में फूला स्वयं को स्वामी समझे रहता है.

    जवाब देंहटाएं
  3. जिस दिन करेगी वो इन्कार बनने से जननी
    पुरुष बिन कुछ किये ही मिट जायगा
    धरा का अस्तित्व ब्रहमाडं से मिट जायगा
    ना होगा पुरुष, ना होगी स्त्री,

    हो जायगी एक पत्थर सी पृथ्वी
    ..सच हैं स्त्री के बिना संसार का कोई अस्तित्व ही नहीं रहेगा ..
    बहुत सुन्दर रचना ..
    आपको जन्मदिन की बहुत-बहुत हार्दिक शुभकामनाएं!

    जवाब देंहटाएं

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