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बुधवार, 4 जुलाई 2018

सोशल मीडिया में हमारी भूमिका



आज के समय में ऐसा कोई भी वर्ग नही जो सोशल मीडिया से जुड़ा हुआ न हो, 6-7 साल के बच्चे से लेकर 80-85 वर्ष का वृद्ध भी आपको यहां मिल जायगा। ऐसा कोई भी विषय नही जिसकी चर्चा यहां न होती हो। ऐसे समय में हमारी भूमिका भी अहम हो जाती है, हमारी एक लापरपाही, हमारी एक छोटी सी बात सैकेंड्स मे लाखों करोंड़ो की बात बन जाती है।
आम तौर पर जब हम घर में, या आपसे में बात करते हैं तो हमे यह पता होता है हम किसके मध्य अपनी बात रख रहे हैं, हम यह समझते है कि बच्चों के सामने या बड़ो के सामने किस बात को कहना चाहिये या किस बात को नही कहना चाहिये, क्योकि हर बात को सुनने और समझने की एक उम्र होती है, अपरिपक्व मस्तिष्क या अवयस्क के सामने हम हर बात नही करते। मगर सोशल मीडिया में ऐसा नही है, यहां हर बात खुले पन्नो पर है, सबके सामने हैं।
सोशल मीडिया पर एक सिसट्म जो सबसे ज्यादा काम करता है वह है रिकमेंडर सिसट्म। एक ही पल में बिना कुछ सोचे समझे हम यह मान लेते है कि फलां ने यह बात कही है तो सच ही होगी। हम बस उसका साथ देने में जुट जाते हैं, जाने कितनी बार ऐसा होता है कि पूरी पोस्ट पढ़े बिना ही उसको लाइक और शेयर कर दिया जाता है, बिना उसके दूरगामी परिणाम सोचे।
आज सबसे पहले अगर देश के किसी भी कोने में कोई संवेदनशील घटना घटित होती है तो प्रशासन सबसे पहले उस क्षेत्र का इंटर्नेट बंद करता है क्योकि वह जानता है कि धरातल पर तो वह परिस्थितियों को नियंत्रित कर सकता है मगर यह आभासी दुनिया नियंत्रण से परे है। चंद मिनटों में देश के किसी छोटे से इलाके में घटी मामूली सी लगने वाली घटना ना जाने कौन कौन से रूप धारण करके देश भर में और न जाने कितनी बडी घटनाओं को अंजाम दे।
तकनीक चाहे कोई भी हो, उसके लापरपाह प्रयोग के दूरगामी परिणाम सदैव हानिकारक ही होते हैं।
सभी से तो हम अपेक्षा नही कर सकते किंतु समझदार और जिम्मेदार व्यक्तियों से मेरी अपील है कि सोशल मीडिया हमारे समाज के लिये वरदान भी हो सकता है और विष भी, अत एव इस पर अपनी भूमिका निभाने से पहले सोचे समझे फिर अपनी प्रतिक्रिया दें।
कुछ छोटी छोटी बाते है जिनका अगर ध्यान  हम दें, तो सोशल मीडिया पर गंदगी फैलाने वालों को काफी हद तक रोका जा सकता है।
झूठी बातें झूठी खबरें फैलाने वालों का अच्छा खासा व्यापार चलता है, तस्वीरे इस तरह से इडिट की जाती है, कि सच प्रतीत होती हैं , आपको एक उदाहरण देती हूं

क्या लगा आपको यह चित्र देख कर, यही न कि चित्र में लिखा गया वाक्य विदेकानंद जी ने कहा है। यह हो अच्छी बात है कि यहां एक सकारात्म्क विचार लिखा गया, मगर सोचनीय यह है कि इस चित्र में कितनी सत्यता है, क्या सच में यह विवेकानंद जी ने कहा था।
हममें से जाने कितनों ने इसे सिर्फ इस लिये लाइक या शेयर कर दिया कि यह बात विवेकानंद जी ने कही है, क्या किसी ने यह सोचने की आवश्यकता समझी कि क्या विवेकान्न्द जी की यह भाषा हो सकती है, किसे पुस्तक या किस लेख या किस भाषण में उन्होने यह कहा  चित्र में इसका उल्लेख क्यो नही किया गया?
मेरी समझ से यदि यह बात या इस तरह की किसी बात को यदि विवेकानंद जी कहते भी तो भी वह औकात शब्द का प्रयोग न करते हुये साहस या हौसले शब्द का प्रयोग करते जो इस वाक्य की कटुता को खत्म करता। विवेकानंद जी जैसे मृदुभाषी की यह भाषा हो ही नही सकती, निश्चित रुप से ऐसे विशलेषण होने चाहिये, हमे सत्य जानना और समझना चाहिये। 
इस तरह की मिलावटें न केवल एक श्रेष्ठ व्यक्तित्व की छवि को धूमिल करती है बल्कि उनके नाम पर अपनी कुंठाओं और नकारात्मकता को समाज में फैलाने का काम करती हैं।
मान लीजिये अगर कुच हद तक सकारात्मक इस बात की जगह कोई ऐसी बात होती जो किसी संप्रदाय या वर्ग विशेष के विपरीत होती। सोचिये जरा क्या होता तब उसका असर?
एक और उदाहरणः एक व्यक्ति किसी प्रतिष्ठित व्यक्ति के चित्र के साथ एक सकारात्मक विचार सोशल मीडिया पर शेयर करता है, कई सप्ताह तक ऐसा करते रहने से लोग उस प्रतिष्ठित व्यक्ति के बारे में अपना विचार बना लेते हैं उसके विचारों का अनुसरण करने लगते हैं, यह व्यक्ति किसी वर्ग विशेष से द्वेश रखता है, अब एक दिन यह व्यक्ति अपनी व्यक्तिगत विचारधारा को फलां प्रतिष्ठित व्यक्ति के चित्र के साथ पोस्ट कर देता है। क्या होगा इसका परिणाम?
कौन भला यह सोचेगा कि जो पोस्ट में लिखा गया है यह व्यक्ति का व्यक्तिगत विचार है या प्रतिष्ठित व्यक्ति का विचार है, असली खेल अब शुरु होता है, अब कुछ लोग प्रतिष्ठित व्यक्ति के सपोर्ट में आयेंगे और कुछ अगेंस्ट में लिखेंगें, जब लिखेंगे तब भाषा की गरिमा भूल कर लिखेंगें, थोडी देर बात बहस के मुद्दे प्राथमिक विचार से बहुत दूर चले जायेंगें, और सिर्फ और सिर्फ जहर ही उगलना शुरु हो जायगा।
जब किसी बात के साथ हम किसी व्यक्ति को जोडते है तो यह उस व्यक्ति की सोच और विचारधारा बन जाती है , और अगर यह व्यक्ति कोई प्रतिष्ठित, सम्मानित, विशेष व्यक्ति हो तब यह इस बात का असर एक दो लोगो पर नही समाज पर पडता है। और पोषित होने लगती है नफरत, दूषित होने लगती है मानसिकता, बढने लगती है समाज में लोगो के बीच की दूरियां।
क्यूं नही हम पढे लिखे, समझदार सभ्य शांतिप्रिय देश की उन्नति देखने वाले लोग, ऐसी चीजों पर अपनी आंख बंद कर लेते हैं, क्यो नही यह सवाल उठाते ऐसी पोस्ट्स की प्रमाणिकता पर? क्यों नही सोचते की एक लाइक य़ा शेयर किसी आग की चिंगारी भी बन सकता है। क्यो नही हतोत्साहित करते ऐसे ग्रुप्स को जिनका काम ही है झूठी खबरें झूठे विचारों को फैलाना।
हमारे आंख बंद करने से समस्या अपना रूप सीमित नही करने वाली।
हम सभी को सोशल मीडिया की सकारात्मक शक्ति को पहचानना होगा, और उसकी सार्थकता को सिद्ध भी करना होगा। तभी हम कह सकेंगे इनफारमेशन टेक्नालॉजी इज द पावर ऑफ इंडिया।

3 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (06-07-2018) को "सोशल मीडिया में हमारी भूमिका" (चर्चा अंक-3023) पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन वयस्क होता बचपन और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...

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  3. अभी तक हम मीडिया पर भरोसा करते थे, क्योंकि वह मॉडरेटेड था। सोशल मीडिया अन-मॉडरेटेड है। विवेकानंद की कही गई बात को जाँचने की सामर्थ्य सामान्य पाठक के पास नहीं होती। वह विशावास करता है कि सच ही कहा गया होगा। फेक न्यूज ने उसके भरोसे को तोड़ा है। इसमें मुख्यधारा के मीडिया की भी भूमिका है, जो व्यावसायिक कारणों से अविश्वसनीय होता जा रहा है। हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था के केन्द्र में जानकारी या सूचना की भूमिका बहुत बड़ी है। अखबार, टीवी और वॉट्सएप केवल औजार हैं। महत्वपूर्ण है सूचना। उसकी पवित्रता भंग नहीं होनी चाहिए।

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