बडी खामोशी से हमने
चुन ली खामोशी
बेअदबी ही अदब जबसे
जमाने में हुआ
किससे करे शिकायत किसकी
करे शिकायत
दामन में दागों का
फैशन जरा जोरों पे है
खुदा का शुक्र जो बक्शा
भूल जाने का हुनर
कुछ तो बच गया जिगर
लहू लुहान होने से
तबाहियों के मंजर पे
जाता दिखता है जमाना
बर्बादियां जब तरक्की
की नुमांइन्दगी करती है
बडे शौक से दफन किये
जाइये तहजीबो उसूल
नूर परख पाना हर किसी
के बस की बात नही
जिधर भी देखा उधर मुखौटे
ही मिले
एक मुद्दत से हमने
चेहरा नही देखा
तालियों की गडगडाहटें
बता देती हैं
खुशी का मंजर है या
खुशामद का हुजूम
कुदरत गर्म औ लहू का सर्द मौसम हुआ
कुछ बारिशें है जरूरी इन रेगिस्तानों में
जी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना शुक्रवार २४ अगस्त २०१८ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
सुन्दर
जवाब देंहटाएंकुछ यूं ही बह गए दिल के भाव जो लावा है किसी नई ज्वालामुखी का।
जवाब देंहटाएंहर "शेर" या "कुछ और"(मुझे मालूम नहीं)
कुछ बोल रहा है बड़े गहरे में उतार कर छोड़ रहा है।
इस रचना में किस पहलू को आपने नहीं छुआ।
काफी दिनों बाद कुछ ऐसा पढा है जिसे रचना कह सकें।
सच में डा. अपर्णा जी, नूर परख पाना हर किसी के बस की बात नहींं, बहुत खूब कहा आपने
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर रचना
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