दुर्वासा ऋषि दुर्योधन की
कपटता से पूर्णतः अनभिज्ञ थे, दुर्योधन ने उनसे अनुरोध किया कि जैसे आपने हमे अपनी
सेवा का मौका दिया उसी तरह वह उसके पांड़्व भाइयों को भी अपनी सेवा का अवसर देने की कृपा
करें। दुर्वासा जी दुर्योधन के छल को न समझ और अपने अन्य ऋषियों के साथ पांड़्वो के पास
पहुंचने का निश्चय किया। संयोगवश जब वह पांड़्वो की कुटिया पहुँचते हैं, रानी द्रौपदी
भोजन समाप्त कर अक्षयपात्र भी धुल चुका होती हैं। राजा युधिष्ठिर चिंतित होते है कि
अब अतिथियों को भोजन कैसे कराया जायगा, किन्तु रानी द्रौपदी सरलता से कह देतीं है,
आप ऋषियों से स्नान करके आने को कहिये, मै भोजन का प्रबन्ध करती हूँ। युधिष्ठिर विस्मय
में पड जाते हैं, उन्हे समझ नही आता कि द्रौपदी आखिर किस प्रकार भोजन का प्रबन्ध करोगी।
वो अधीर हो द्रौपदी से कहते हैं- प्रिये- तुम अक्षयपात्र तो साफ कर चुकी हो, और एक बार साफ करने के पश्चात एक ही दिन में दुबारा इसमें भोजन पकाना सम्भव नही, फिर किस भांति
तुम अतिथियों के भोजन का प्रबन्ध करोगी, मैं ऋषि श्रेष्ठ से क्षमा याचना कर लेता हूँ।
तब दौपदी ने कहा- आर्यपुत्र – मुझे अपनी आस पर विश्वास है। मेरे कृष्ण मेरी आस हैं, और
उनके रहते चिंतित होने की तनिक भी आवश्यकता नही। मेरे कृष्ण ने तो अब तक कुछ विचार कर
ही लिया होगा। अतएव आप निश्चिन्त हो और अतिथियों के शेष स्वागत की तैयारी कीजिये।
जीवन में कई बार ऐसा होता है जब स्वयं का विश्वास भी पर्याप्त
नही पड़्ता हमे कई काम असम्भव जान पड़्ते हैं, तब हमे जिस पर भी भरोसा होता है उसके विश्वास
के बल पर हम वह असम्भव भी कर जाते हैं।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (14-09-2018) को "हिन्दी दिवस पर हिन्दी करे पुकार" (चर्चा अंक-3094) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हिन्दी दिवस की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सही बात
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