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रविवार, 2 दिसंबर 2018

बडा आदमी



बचपन से एक ही सपना था, बडा होकर विदेश जाऊंगा, खूब पैसा कमा कर मै भी बडा आदमी बनूंगा।बचपन से बडा होने तक बहुत कुछ सीखा, बहुत कुछ बदला मगर बडा आदमी बनने की परिभाषा नही बदली। और इसी ललक ने मुझे विदेश में अच्छी नौकरी अच्छा पैसा दिलाया। आज जब यदा कदा अपने देश वापस आता हूँ तो लोगो की आंखो में जो अपनी छवि दिखाई देती है, वो अहसास दिला जाती है कि मै अब थोडा थोडा बडा आदमी बन रहा हूँ। इस बार वापसी के समय माँ बाबू जी की आंखों में मै साफ साफ पढ रहा था कि बेटा बहुत बन लिये बडे आदमी कुछ दिन इन बूढी हड्डियों के लिये बडे बेटे बन जाओ, मगर वापस आते आते और बडे बनने की धुन के सामने बहुत जल्दी वो अनकहे शब्द धुंधले पड गये। धीरे धीरे जीवन फिर से रफ्तार पकड चुका था, दिसम्बर का फर्स्ट वीक चल रहा था, बहुत सारा काम निपटाना था क्योंकि फिर लम्बी छुट्टियां थी, आज सुबह से काम में व्यस्त था, थोडा सर मे भारीपन सा महसूस कर रहा था सो डेविड को काम आगे कन्टून्यू करने को बोलकर मै कैंटीन चला गया। आज मधुर छुट्टी पर था सो अकेले ही चाय का कप ले एक कार्नर सीट पर बैठ गया। तभी कुछ दूर पर बैठे लोगो की बातें जो अस्पष्ट थी सुनाई दी, वो कह रहे थे-
अच्छा ही किया सरकार ने, जो योग्यता के आधार पर दूसरे लोगो को अपने देश में नही रुकने देगें, अब तो बहुत से लोगों को जाना ही होगा, वैसे भी ये लोग सिर्फ पैसा कमाने यहाँ आते है, दूसरे ने बोला- यार ये बताओ इंडिया में योग्य लोगों को पैसा कमाने के साधनों की कमी है क्या? तभी एक अन्य बोला- मुझे तो लगता है इन लोगो को अपने यहाँ इज्जत तभी मिलती है जब ये हमारे देश में काम करते हैं। और यार इसमें अपना और अपने देश का ही तो फायदा है, यहाँ टिके रहने के लिये ये और मेहनत करेंगे, और हमारे देश की और तरक्की होगी। तभी पहला वाला बोला- ह्म्म वो तो है मगर सोचो कि जो लोग यहाँ से निकाले जायेंगे उन्हे न तो उनके देश में पैसा मिलेगा न इज्जत, जिसके लिये बेचारे सब छोड कर आते है और बस अपनी तसल्ली के लिये बोलते रहते है आई लव माई इंडिया, हाउ पुअर दीस पीपुल, और कह कर सब हंसने लगे। मै चाह कर भी उन्हे कोई जवाब नही दे पा रहा था, क्योकि मै खुद कुछ समय से इसी डर में जी रहा था कि क्या इस देश के हिसाब से मै योग्य व्यक्ति हूं या या किसी भी दिन अयोग्य साबित कर निकाल दिया जाऊंगा।
मगर चाय खत्म करते करते मैं यह समझ पा रहा था कि बडा आदमी बनने की जो परिभाषा मैने समझी थी वो कितनी गलत थी, चाय का कप टेबल पर छोडते हुये मैंने निश्चय कर लिया था कि अब मुझे माता पिता का बडा बेटा और अपने देश के लिये बडा आदमी बनना है।



9 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (03-12-2018) को "द्वार पर किसानों की गुहार" (चर्चा अंक-3174) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    राधा तिवारी

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  2. कटु सत्‍य कहा है इस छोटी सी यथार्थवादी कहानी में आपने अपर्णा जी

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  3. आज सलिल वर्मा जी ले कर आयें हैं ब्लॉग बुलेटिन की २२५० वीं बुलेटिन ... तो पढ़ना न भूलें ...


    यादगार मुलाक़ातें - 2250 वीं ब्लॉग बुलेटिन " , में आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  4. आपकी लिखी रचना आज "पांच लिंकों का आनन्द में" बुधवार 5 दिसंबर 2018 को साझा की गई है......... http://halchalwith5links.blogspot.in/ पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!



    .

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  5. सार्थक और यथार्थ।
    मृगतृष्णा सा साबित होता है ये आखिर में महत्वाकांक्षा के जाल का बंधन।

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  6. कटु सत्य बतलाती कहानी। काश ये कटु सत्य विदेश के सपने देखने वाले सभी लोगो के ख्याल में आ जाएं।

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  7. कडवा सच ....विदेश में पैसे कमाने की लालसा में गए लोग बहुत कुछ खोते हैं , जिसका अंदाजा उन्हें उस समय नहीं होता

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