चांद की तरह वो अक्सर, बदल जाते हैं।
मतलब अली काम होते निकल जाते हैं॥
स्वाद रिश्तों का कडवा, कहीं हो जाय ना
छोटे मोटे से कंकड, यूं ही निगल जाते है
शौक तिललियों का हमने पाला ही नहीं
बस दुआ सलाम करके निकल जाते हैं
हौसले की पतवार हों, हाथों में जिनके।
तूफानों में भी वो लोग, संभल जाते है॥
वो बिछाते है जाल, दिलकश अदाओं से।
जानते है अच्छे अच्छे, फिसल जाते हैं॥
व्यापार चौराहों पर, बच्चों से ये सोचकर।
मासूमों से सख्तदिल भी, पिघल जाते हैं॥
बारिश की बूंदो में छिपी, बचपन की रवानी।
संग बच्चों के जवांदिल भी, मचल जाते हैं॥
शोर बर्तनों का सुनें, हमारे अडोसी पडोसी।
उससे पहले थोडा मकां से, टहल जाते हैं॥
सोच लो तुम पलाश, सच लिखने से पहले।
बडीं बेरहमी से लोग कलम, कुचल जाते हैं॥
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (08-07-2020) को "सयानी सियासत" (चर्चा अंक-3756) पर भी होगी।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंखूबसूरत शब्द
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज बुधवार 08 जुलाई 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंउत्कृष्ट
जवाब देंहटाएंख़ूबसूरत ग़ज़ल!
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