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रविवार, 3 अक्तूबर 2021

आज का आदमी

 


जिंदगी नही, जिंदगी का भरम, जी रहा आज का आदमी

जिंदगी की ख्वाइश में जिंदगी, खो रहा आज का आदमी

सुबह सबेरे उठके तडके, करने लगता जुगाड दो रोटी का

खुशी की तलाश में, खुद से दूर हो रहा आज का आदमी

क्या चाहिये जीने के लिये, क्या ला रहे है अपने घर में हम

क्या चाहा, क्या हो गया, ये सोच रो रहा आज का आदमी

चंद सिक्कों, ओहदों की खातिर, कुछ भी करने को राजी

ले फूलों के दो हार हाथ में, काटें बो रहा आज का आदमी

चेहरे चमके दिखते पर, मुस्कान अधूरी फीकी फीकी सी

थोडी से चैन को कितनी पीड़ा, ढो रहा आज का आदमी

मन के मैल का अंत नही, माया और तॄष्णा  दो हाथों में

तीरथ मंदिर में घूम घाम, पाप धो रहा आज का आदमी

पशु को इंसानों का दुलार, मनुजों से बर्ताव गुलामों सा

सह जुल्म बेइंतेहा जाने कैसे, सो रहा आज का आदमी

मुश्किल पलाश आदम का बचना, दोपाये ही जी जायेंगें

दानव और मानव का अंतर, खो रहा आज का आदमी

5 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन  में" आज सोमवार 04 अक्टूबर 2021 शाम 3.00 बजे साझा की गई है....  "सांध्य दैनिक मुखरित मौन  में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  2. सादर नमस्कार ,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार(5-10-21) को "एक दीप पूर्वजों के नाम" (चर्चा अंक-4208) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
    ------------
    कामिनी सिन्हा

    जवाब देंहटाएं
  3. आम आदमी का हलफनामा...। बहुत खूब लिखा है आपने...।

    जवाब देंहटाएं
  4. एक एक शब्द सत्य कहा आपने! हकिकत को बयां करती बहुत ही उम्दा रचना!

    जवाब देंहटाएं

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