सर्दी
की छुट्टियां चल रही थी। दुनिया में शायद ही कोई हो जिसे छुट्टियों का इन्तजार ना होता
हो, मगर मेरे लिये ये बोझ सी ही होती थीं, जिन्हे बस यदा कदा काटना होता था। तीन दिन
से सूरज देवता ने भी दर्शन नही दिये थे, जैसे वो भी इस ठंड में बादलों की रजाई में
दुबक कर सो रहे थे। ड्राइंग रूम में बैठी अखबार पढ रही थी तभी लगा जैसे खिडकी से झांकती
हुयी धूप मुझे लॉन में आने का निमंत्रण दे रही है। लता एक कप चाय बना कर बाहर ही ले
आ, पता नही कितनी देर के लिये निकली है ये धूप, ठंड से तो लगता है हाथ पैर में जान
ही नही है, कहते हुये मै धूप में पडी कुऱसी पर बैठ गयी ।
लता
चाय दे कर फिर अपने काम में लग गयी थी और मैं एक शिवानी का नॉवेल चौदह फेरे पढने लगी
थी। तभी लता ने आवाज दी – दीदी रोटी सेंक दूं या थोडी देर में खायेंगी। कभी दो बजे
से पहले खाती हूं क्या? तुम्हारा सारा काम हो गय क्या? तुमको भूख लगी है तो खा लो मै
बाद में खाऊंगी। क्या दीदी दो तो कब के बज गये, उसके कहते ही मैने रूम में सामने लगी
घडी पर सरसरी सी नजर दौडाई, सच में दो तो कब के बज चुके थे, शायद शिवानी जी को पढते
पढते मुझे समय का पता ही ना चला था। मन ही मन खुद की गलती का अहसास करते हुये मैने
थोडा प्यार से कहा- लता तुम खा लो मेरे लिये बना कर रख दो, मै थोडी देर में खा लूंगी।
ना दीदी अभी हमको भी भूख नही। मै यही आ कर स्वेटर बुन लेती हूँ तब तक आप अपनी ये किताब
भी पूरी कर लीजिये।
मैं
दुबारा से नॉवेल में डूब गयी। और लता अपने काम में। पढते पढते मेरी नजर लता पर गयी,
वो एक पुराने स्वेटर को उधेड रही थी। मैने कहा लता ये क्या कर रही हो – तुमको तो राजू
के जन्म्दिन के लिये स्वेटर बनाना था ना, पुरानी ऊन से बनाओगी क्या? अरे मुझसे कह देती
मैं कल बाजार से नयी ऊन ला देती।
अरे
नही दीदी, इसकी क्या जरूरत है, ये स्वेटर राजू को अब नही होता और कई जगह से फट भी गया
है। इसको उधेड कर ऊन को भाप दे कर उसकी गन्दगी साफ हो जायगी, यही एकदम नयी सी लगने
लगेगी। फिर इस बार कोई नयी सी डिजाय्न डाल दूंगी। बिल्कुल नयी ऊन जैसा बन जायगा ये
भी।
अच्छा
मगर इसमें जो पचासों गांठ लगाओगी तब, मेरे कहते ही वो बोली, अरे दीदी गांठ तो पीछे
रहेंगी ना, देखियेगा तब पूरा तैयार होगा तो आप भी नही पहचान सकोगी कि ये पुरानी जोड्दार
ऊन से बना है।
सही
ही तो कह रही थी लता। मैं ही मूरख थी जो पिछले तीन सालों से अपने हर रिश्ते को थोडी
थोडी उलझनों के कारण तोडती आ रही थी। कब से मन में बना कर रखा है उन टूटे रिश्तों का
गोला जिसमें कितनी ही खट्टी मीठी बातें है। क्यों नही निकाल देती कडवी बातों को मन
से जैसे लता बीच बीच में तोड कर निकाल देती है कमजोर बेकार ऊन को जो बुनाई को कमजोर
बना सकती है। क्यों नही कर रही थी कोशिश रिश्तों को फिर से बुनने की। क्यों नही बुन
सकती मै फिर से आकाश के साथ अपना रिश्ता। क्या प्यार की ऊष्मा में नही उड सकती वो कडवाहटें
जो हम दोनो के मन में बैठ गयी है? क्या मन में बनी चंद गांठो को छुपाया या मिटाया नही
जा सकता?
अब
और इन्तजार नही करूंगी। बुनना मेरा धर्म भी है और कर्तव्य भी। हाँ मुझे भी बुनना होगा
अपने रिश्ते का स्वेटर उसी पुरानी ऊन को लेकर नयी आशाओं की डिजायन के साथ।
* Restoration - पुनरनिर्माण
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (07-06-2015) को "गंगा के लिए अब कोई भगीरथ नहीं" (चर्चा अंक-1999) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
बढ़िया प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया संदेश दिया है आपने....हम छोटी-छोटी बातों को इग्नोर कर दें तो बहुत से रिश्ते बचा सकते हैं।
जवाब देंहटाएंसही कहा, ये बुनावट चलती रहनी चाहिए।
जवाब देंहटाएं............
लज़ीज़ खाना: जी ललचाए, रहा न जाए!!
वाह !!! पुनर्निर्माण... सच में बहुत ज़रूरी है....
जवाब देंहटाएंसार्थक प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंआशाएं बनी रहें !
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंरिश्ते धागों की तरह होते है । उलझे हो तो उन्हें ध्यान से सुलझाना पड़ता है । अच्छी रचना है ।
जवाब देंहटाएंरिश्ते धागों के तरह होते है । ध्यान रखना होता है के कही से टूटे ना। सुंदर ।
जवाब देंहटाएंbahut sundar ma'am ek padha to pura post padhne se khud ko rok ni payi..........
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