१७ मई , विश्व दूरसंचार दिवस के रूप में मनाया जाता है। आगरा से निकलने वाले अखबार में प्रकाशित इस लेख को आप सबके साथ साझा करते हुये पुष्प सबेरा के एडीटर " श्री प्रकाश शुक्ल जी " की आभारी हूँ, जिहोने मुझे लिखने का मौका दिया।
रोटी कपडा और मकान, कुछ समय पहले तक इन्हे जीवन
के तीन स्तम्भों के रूप में देखा जाता था, किन्तु आज इंटरनेट को जीवन के चौथे स्तम्भ
के रूप में देखा जा रहा है। इंटरनेट आज हम सभी के जीवन में अपनी एक अहम जगह बना चुका
है। आज सुबह की शुरुआत बडों को अभिवादन के साथ नही, फ्रेंड्स को गुड मार्निंग के मैसेज
भेजने के साथ होती है। इंटरनेट, दूरसंचार में एक क्रान्ति का युग लेकर आया। निश्चित
तौर पर पिछले दो दशकों में दूरसंचार ने जीवन को एक नयी गति दी है, पहले हम जहाँ किसी
की खोज खबर पाने के लिये हफ्तों एक पत्र का इंतजार किया करते थे आज स्काइप पर तुरन्त
उससे ना सिर्फ बात कर लेते है बल्कि उसके कार्य कलापों को देख भी सकते हैं।
90 के दशक में हम एस. टी. डी. बात करने के लिये
रात के दस बजने का इन्तजार किया करते थे, क्योकि रात में काल रेट दिन की तुलना में
एक तिहाई हो जाया करता था, आज मोबाइल कम्पनियों ने इस इन्तजार को खत्म कर दिया।
एक समय था जब टेलीग्राम का खर्च शब्दों के हिसाब
से आता था, एक संदेश भेजने से पहले भेजने वाले का आधा ध्यान तो शब्द सीमा पर ही रहता
था, आज ईमेल पर हम चाहे जितना भी लिखने के लिये मुक्त है।
पहले शहर में नौकरी कर रहा लडका मनीआर्डर से अपने
घरवालों को पैसे भेजा पाता था, जरूरत चाहे कितनी जरूरी हो पैसे तो ह्फ्ते दस दिन में
ही मिलेगें, आज देश क्या विश्व के किसी भी कोने में बैठा बेटा, एक तरफ फोन पर बात करता
है दूसरी तरफ ई-बैकिंग से एकाउंट में पैसे ट्रान्सफर कर देता है।
एक दौर था जब खरीददारी का मतलब था- बाजार जाना
और अगर घर आकर सामान अच्छा ना लगे, वापस करना हो तो ढेर सारी टेंशन- पता नही दुकानदार
पैसे वापस करेगा कि नही, या वो कोई और सामान लेने को ही कहेगा। मगर आज शॉपिंग के अर्थ
बदल गये। आज हम घर बैठे अपना मन पसंद सामान ई-शॉपिंग के जरिये खरीद लेते है और पसंद
ना आने पर फ्री वापसी की सुविधा भी।
इतनी सारी सुविधाओं के बाद भी आज हम उतने संतुष्ट
नही जितने पहले थे। ये सोचने का विषय है कि क्या कारण है कि सामाजिक ढाँचा कमजोर हो
रहा है, संदेदनाये कम हो रही है, मानवता पर प्रश्न चिन्ह लग रहा है, बचपना अपनी मासूमियत
खो रहा है। आज पूरा विश्व जब हर्षोल्लास के साथ विश्व दूरसंचार दिवस मना रहा है, तब
यह महत्वपूर्ण हो जाता है कि ये चिंतन भी करे कि हम इस तकनीक की धारा में सिर्फ बहे
जा रहे है, या तकनीक का सोच समझ कर प्रयोग कर रहे हैं।
समय के साथ तकनीक बदलने के साथ साथ सोच और जीने
के तरीके दोनो ही बदले। सबसे बडा फायदा जो हुआ वो है समय की बचत। जब संचार का कोई भी
माध्यम नही था तब सिर्फ हम मिलकर ही बाते करते थे। मिलने से ना सिर्फ शब्दों का आदान
प्रदान होता था, भावनाओं का भी लेन देन होता था। आज हम जब एक मैसेज लिखते है - फीलिंग
सैड तो समझ नही आता कि मैसेज भेजने वाला या वाली कितना दुखी है, उसे क्या दुख, क्या
परेशानी है। हम पहले जब कही से घूम कर आते थे तब हफ्तों तक उसके चर्चे सुनाया करते
थे, आज भी घूमने जाते है मगर जगह को अपनी नजर से बाद में देखते है पहले मोबाइल से फोटो
लेकर व्हाट्स एप या फेसबुक पर शेयर करते है। जिसका उद्देश्य अक्सर ये बताना होता है
कि हम फलां फलां जगह पर कितने मजे कर रहे हैं।
आज हम एक व्यक्ति से बात करते है तो उसी समय दूसरे
से चैटिंग भी कर रहे होते हैं। होली दीवाली में मिलते है तो गले मिलने से पहले फोटो
लेना और उसको शेयर करना पहली प्राथमिकता होती है। फोटो ठीक नही आया तो दो तीन बार और
गले मिलेगें। इस मिलन में भावनाओं का संचार दूर दूर तक नही होता, क्या यही उद्देश्य
था दूर संचार की खोज का?
प्रश्न उठता है तकनीक ने हमारा समय निश्चित तौर
पर बचाया फिर भी हर किसी को ये कहते सुना जा सकता है कि यार समय नही है, लाइफ बहुत
बिसी हो गयी है, आखिर कहाँ गया हमारा समय, कहाँ हम इसे खर्च कर रहे हैं, कहाँ उलझा
लिया है हमने इसे?
आज चाहे बच्चे हो, युवा हो या बुजुर्ग कोई भी इंटरनेट
के जाल से अछूता नही। मगर इस जाल मे फंसना या ना फंसना हम पर ही निर्भर करता है। ऑकडे
बताते है कि 9 -10 साल के बच्चे जब ऑनलाइन होते हैं तो उनमें से 57 फीसद बच्चों अश्लील दृश्यों को ही देखना पसंद करते है, 38 फीसद बच्चे ऐसे है जो शिक्षा और ज्ञान की चीजें इंटरनेट पर ढूंढ़ते नजर आए और बाकी के 36 फीसद बच्चे जाने.अनजाने अपने आपको इन दृश्यों में गिरफ्त होते नजर आए।
इंटरनेट एक दुधारी तलवार की तरह है। यहाँ सभी के लिये कुछ न कुछ है ज्ञान का ढेर सारा
भंडार है तो मनोरंजन के लिये अश्लील सामाग्री भी उपलब्ध है। बच्चो के लिये नये नये
गेम्स है तो हिंसा के नये नये तरीकों की जानकारी भी उपलब्घ है। ये इंटरनेट की खूबी है कि इसका इस्तेमाल करने वाला चाहे कोई भी हो, यह सबके लिए खुला रहता है। कितनी ही वेब साइट्स
पर लिखा होता है कि अट्ठारह बर्ष से कम लोग इसे प्रयोग ना करे मगर कहाँ है वो चेक प्वांट
जो यह देख सके कि प्रयोगकर्ता की उम्र क्या है, और उसके लिये साइट नही खुलेगी।
बच्चे समाज का भविष्य होते है, इसलिये महत्वपूर्ण हो जाता है कि हम बडे
इस बात का आकलन करें कि बच्चे इस नयी तकनीक का कैसे प्रयोग कर रहे है, और सही मायनों
में वो आधुनिक बन कर देश की प्रगति का हिस्सा बन सके इसके लिये हमें उनका सही मार्गदर्शन
करना होगा। बच्चे अक्सर वही करते है जो हम बडे करते हैं, इसलिये चाहे मोबाइल हो या
इंटरनेट इसका प्रयोग हमे भी संयमित होकर ही करना होगा।
विशेषज्ञों के मुताबिक, आधुनिक प्रौद्योगिकी वाले गैजेटों
के अतिशय उपयोग से अभिभावकों और बच्चों के बीच तनावपूर्ण संबंध, सामाजिक जान-पहचान
की कमी और साधारण कार्यो में अकुशलता जैसे परिणाम सामने आते हैं। नेशनल इंडियन पब्लिक
हेल्थ एसोसिएशन के अध्यक्ष जे. रवि कुमार कहते है कि यह सिर्फ किसी बच्चे की नहीं पूरे
समाज के लिए एक चिंता का विषय है। इंटरनेट, स्मार्टफोन और इलेक्ट्रॉनिक गैजेट विकास
के लिए जरूरी हैं, लेकिन इनके अतिशय उपयोग से होने वाला दुष्प्रभाव पूरे समाज के लिए
चिंता का विषय है। अभिभावकों को भी यह समझने की जरूरत है कि उन्हें कितना समय इन गैजेटों
के साथ बिताना चाहिए । "बच्चे वही करना चाहते हैं, जो उनके माता-पिता करते हैं.
इसलिए जब वे देखते हैं कि उनके माता-पिता घंटों लैपटॉप पर बिताते हैं, तो उनके बच्चे
भी वैसा ही करना चाहते हैं।" नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरो साइंसेज, बेंगलुरु
में क्लिनिकल साइकोलॉजी विभाग के सहायक प्रोफेसर मनोज कुमार शर्मा कहते है छोटे बच्चे
जहां वीडियो गेम और गेमिंग एप्स पर अधिक ध्यान देते हैं, वहीं किशोरों का मन सोशल नेटवर्किंग
और इंटरनेट में अधिक रमता जा रहा है। वो बताते है कि संस्थान के सर्विस फॉर हेल्दी
यूज ऑफ टेक्नोलॉजी (एसएचयूटी) क्लिनिक को हर सप्ताह देश के दूसरे राज्यों से तीन-चार
मेल मिलते हैं। ये मेल किशोरों के माता-पिता
के होते हैं, जो संस्थान की सेवाओं और उससे मिलने वाली मदद के बारे में जानना चाहते
हैं। ये माता पिता 14-19 वर्ष की उम्र के ऐसे किशोरों के होते हैं, जो विडियो गेमिंग,
मोबाइल, सोशल नेटवर्किंग साइट तथा पोर्नोग्राफी की लत से प्रभावित होते हैं। बच्चों
का स्कूलों में प्रदर्शन तथा आचरण बिगड़ने के बाद माता-पिता परामर्श लेने के लिए आगे
आते हैं।
आज के युग में बच्चों को पूरी तरह से गैजेटों का उपयोग करने
से रोका नहीं जा सकता है। इसके बिना आज पूरी शिक्षा हासिल नहीं की जा सकती है इसलिये
चाहे माता पिता हो या विघालय में अध्यापक, दोनो की ही यह जिम्मेदारी बन जाती है कि
इंटरनेट का प्रयोग करते बच्चों पर हमेशा अपनी एक नजर बनाये रखे ताकि इन्हे दिशा भ्रमित
होने से पहले रोक जा सके।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (18-05-2015) को "आशा है तो जीवन है" {चर्चा अंक - 1979} पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
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सार्थक और विचारपूर्ण
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया.... हार्दिक शुभकामनाएं!
जवाब देंहटाएंदो टाइम रोती न मिले तो चलेगा पर फोन और इन्टरनेट के बिना तौबा है
जवाब देंहटाएंविचारपूर्ण
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