स्त्री और पुरुष- समाज की दो इकाई,
जिनसे मिलकर बनता है समाज। समाज की कल्पना के साथ ही आते है कुछ नियम, कुछ कानून, जो
आवश्यक होते है समाज को सुचरु रुप से चलाने के लिये । जिस तरह से एक घर की पूर्णता
तभी सम्भव है जब उसमें स्त्री और पुरुष दोनो की ही सहभागिता हो , उसी प्रकार आदर्श
सामाजिक व्यवस्था स्थापित करने के लिये दोनो
ही इकाइयों का बराबर अनुपात मे सहभागी होना आवश्यक है ।
एक तरफ जहाँ देश में विभिन्न मंचो
से स्त्रियों को बराबरी का दर्जा देने की बात की जाती है, उसी देश में ३३% आरक्षण की
क्या प्रासंगिकता है। यह एक बहुत अहम विषय है, जिस पर खुले मन से विचार और विवेचना
होनी चाहिये। ये सोचना होगा कि किन लोगो ने महिलाओ को ३३% आरक्षण देने की बात की पहल
की। क्या वास्तव में देश में आरक्षण लागू किये बिना महिलाओं की स्थिति मे सुधार असंभव
है। इसके लिये हमे थोडा सा अपने राजनीतिज्ञों के कथनों और कार्यकलापों के बीच के अनुपात
की सूक्ष्मता से व्याख्या करनी होगी। पिछले एक दशक में देश, दो बार लोकसभा, करीब द्स
बारह विधान सभा के चुनावों को देख चुका है। यदि छोटी और मझले कद की पार्टियों को छोड
दे, और राजनीति मे बडा कद रखने वाली राजनीतिक पार्टियों को देखे, तो कुछ मुख्य बिन्दु
हमारे सामने आते हैः
·
ज्यादातर जिन महिला उम्मीदवारों को टिकट दिया गये, वो
या तो पहले से राजनीति में अपना अहम स्थान रखती थी, या धुरंधर राजनीतिज्ञों के परिवार
से थी।
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किसी भी पार्टी ने ३३ % तो क्या २० % भी महिला उम्मीदवारों
को टिकट नही दिये।
·
किसी नये महिला उम्मीदवार पर वोटरो का भी भरोसा कम होता
है।
उपरोक्त बिन्दुओं के आधार पर कहा जा
सकता है कि आज देश को आरक्षण लागू करने से ज्यादा जरूरत इस बात की है कि वो महिलाओं
की सोच, उनकी कार्यक्षमता, उनकी कार्यशैली पर अपना विश्वास बनाये।
महिला
आरक्षण की त्रासदी
देश में महिलायें, देश आजाद होने के
बाद से ही प्रतिनिधित्व की लडाई लड रही है। करीब दो दशक पहले यह हमारे सामने महिला
आरक्षण बिल के रूप मे सामने आया। ऐसा नही कि यह बिल को केवल महिलाओं का ही समर्थन प्राप्त
था, पुरुष प्रधान राजनीतिज्ञ सामने से तो हमेशा ही बिल के पास होने की वकालत करते रहे
किन्तु मंशा हमेशा यही रही कि उसके राजनीतिक स्थान मे महिलाओं का कम से कम प्रवेश हो।
१९९६ से देवेगौडा जी के कार्यकाल से लेकर आज तक करीब १० बार यह विधेयक संसद पटल पर
रखा गया , और हर बार शोर शराबे मे साथ ही इस बिल का विरोध कर दिया गया। कभी भी एक स्वस्थ
बहस का माहौल नही बना। किसी ने यह तर्क नही दिये कि क्यो इस बिल को पारित नही होना
चाहिये।
ऐसा नही कि केवल भारतीय महिलायें ही
राजनीति मे अपना स्थान बनाने के लिये संघर्षरत हैं, विश्व के ज्यादातर सभी देशो की
लगभग यही स्थिति है। आखिर क्या है इस विडम्बना का समाधान? जब सोच ही स्वच्छ और निरपेक्ष
नही है तो समस्याओ का उल्मूलन एक स्वप्न मात्र ही है।
महिला
आरक्षण की आवश्यकता
बहुत से लोगो का यह सोचना हो सकता
है कि आखिर महिला आरक्षण की जरूरत क्यों है। क्यो राजनीति में महिलाओ की अधिक भागीदारी
आवश्यक है?
आजादी के शुरुआती दौर में देश मे बहुत
सी समस्याये थी, महिलाये और पुरुष दोनो अपने अपने स्तर से देश को उन्नत करने की कोशिश
कर रहे थे। मगर इस समके बीच एक और समस्या जन्म ले रही थी। पुरुष राजनीतिज्ञ चाहता था
कि देश की बागडोर सदैव उअसके ही हाथ रहे। घर की चार दीवारों मे बन्द स्त्री को वह अपने
बराबर देख पाने का हौसला नही कर पा रहा था। धीरे धीरे उसके बढते साहस ने महिलाओं की
राजनीति मे भूमिका को हाशिये पर ला कर खडा कर दिया। एक लम्बे अरसे से यह महसूस किया
जाने लगा कि मानसिकता को बदलना लगभग मुश्किल सा ही है, इसे सिर्फ कानून या आरक्षण से
सहारे ही सुधारा जा सकता है।
·
आकडें बताते है कि राजनीति मे पुरुषों के भ्रष्टाचारी
होने का अनुपात महिलाओं से कई गुना भी ज्यादा है। जिससे साफ अर्थ निकलता है कि महिलाये
स्वच्छ राजनीतिक वातावरण देने में पुरुषों से ज्यादा सक्षम है।
·
महिलाओं की त्याग और समर्पण
की भावनाओं पर प्रश्न चिन्ह नही लगाया जा सकता।
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संसाधनों का इस्तेमाल भी महिलाएँ पुरुषों की तुलना में अधिक बेहतर ढंग से करती हैं। पंचायत राज संस्थानों में 'महिला सरपंच' के लिए स्थान बनाते समय इन्हीं मुद्दों पर गंभीरता से विचार हुआ था। अब संवैधानिक संस्थानों के लिए भी ऐसी व्यवस्था की जरूरत महसूस हो रही है।
संसाधनों का इस्तेमाल भी महिलाएँ पुरुषों की तुलना में अधिक बेहतर ढंग से करती हैं। पंचायत राज संस्थानों में 'महिला सरपंच' के लिए स्थान बनाते समय इन्हीं मुद्दों पर गंभीरता से विचार हुआ था। अब संवैधानिक संस्थानों के लिए भी ऐसी व्यवस्था की जरूरत महसूस हो रही है।
फिलहाल १६वीं लोकसभा में महिलाओं की बढती संख्या एक शुभसंकेत के
रूप मे देखी जा सकती है। और भविष्य में महिला बिल की स्वप्न कथा को हकीकत की धरा पर
देखने की उम्मीदे करना एक दिवा स्वप्न नही होगा।
जिस दिन महिला अपने आपको सक्षम समझने लगे उसी दिन से वो समर्थ हो जाती है...इसी एहसास को जगाना भर है...सार्थक आलेख।
जवाब देंहटाएंबधाई।
आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (07.08.2015) को "बेटी है समाज की धरोहर"(चर्चा अंक-2060) पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, चर्चा मंच पर आपका स्वागत है। सार्थक आलेख।
जवाब देंहटाएंसुंदर प्रस्तुति ...
जवाब देंहटाएंसार्थक प्रस्तुति
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