बहुत दिनों से सोच रही थी कि कुछ दिन के लिये कही घूम आऊं, मगर न तो अविजीत को ऑफिस से छुट्टियां मिल पा रहीं थीं और ना ही माँ जी की तबियत इतनी अच्छी थी कि उन्हे छोड कर जा सकती। कहने को तो शादी को अभी एक साल ही हुआ था मगर लगता था जैसे बरसों से इस दहलीज से बंधी हुयी हूँ। शादी से पहले तो जब मन आता था छुट्टी ले लेती थी। साल में दो तीन बार तो घूमना हो ही जाता था, कभी घर वालों के साथ तो कभी दोस्तों के। शादी के बाद नौकरी के साथ साथ छुट्टी लेने की आजादी भी जाती रही। कहाँ मिलती है छुट्टी हम घर संभालने वाली औरतों को। बचपन से लिखने पढने का तो ऐसा शौक था कि पापा ने घर में मेरे लिये एक लाइब्रेरी ही बनवा दी थी। शादी से पहले, सनडे की दोपहर मेरी लाइब्रेरी में ही बीतती थी। रेहाना, कहने भर को ही काम वाली थी, सारे घर पर उसका हुकुम चलता था। जब मायके जाती तो कहती- बीबी जी कहो तो आपकी ये किताबे आपकी ससुराल पहुंचा दे, यहाँ तो किताबें अब धूल ही खाती हैं, और मैं हँस कर कह देती, अरे! रेहाना बेगम अब तो हम भी तुम से ही हो गये हैं, वहाँ भी किताबें अब धूल ही खायेंगीं।
शादी
की सौगात में मुझे मिला था – एक लाडला देवर जिसका मेरे बगैर कोई काम ना चलता था, माँ
जैसी सांस जिनका बस चलता तो मुझे पल भर को नजरों से ओझल ना होने देती और पति जिनका
पहला जीवनसाथी था – उनका काम। यूँ तो महीने में दो तीन टूर उनके हो ही जाते थे,
मगर मुझे कभी साथ ले जाने की शायद उन्होने कल्पना भी नही की थी। अगर कभी मैं कह देती
कि इस बार मुझे भी साथ लेते चलो तो कह देते- क्या करोगी चल कर मै दिन भर काम और शाम
को पार्टीज में बिजी रहूंगा, और तुम बोर होती रहोगी।
कहने
को कोई दुःख ना था, मगर शायद इन जिम्मेदारियों के बीच मैं खुद को खोती जा रही थी। एक अजीब सा भय मन को घेरने लगा था। महीनों हो जाते थे अपना नाम सुने, कभी कभी सोचती कही
एक दिन मै खुद अपना नाम ही ना भूल जाऊं।
कभी
सोचती कि आखिर मेरे बिना कैसे चलता था ये घर, क्या दो चार दिन अब नही चल सकता। क्यो
कोई मेरे मन को जानने की कोशिश नही करता। मुझे काम करने या गॄहस्थी संभालने से कोई
गुरेज ना था, बस खुद को खो देने से डरती थी।
आज
अचानक सफाई करते करते जब मुझे एक पुराना अखबार मिला, जिसमे मेरी कहानी छपी थी, तो एक बार फिर से मन व्याकुल हो उठा। शादी के बाद बस यही एक कहानी लिखी थी| सभी ने तारीफ
जरूर की थी मगर प्रोत्साहन कभी किसी से ना मिला।
सफाई
करते करते मन की धुंध भी साफ हो रही थी। मैने खुद को खुद में खोजने का निश्चय। किसी
से अपेक्षा करने से बेहतर था मै स्वयं ही स्वयं की अपेक्षायें पूरी करूं। मुझे स्वयं
के लिये समय निकालना ही होगा। कुछ पल खुद को देने ही होंगे।
आज अपने
जीवन की दूसरी पारी की शुरुआत कर रही हूँ, इस आशा के साथ की अपनों से भले ही प्रोत्साहन
मिले ना मिले, मगर स्वयं को दुबारा जरूर पा रही हूँ।
जिन खोज तिन पाइए गहरे पानी पैठ
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