देखती रहती हूँ गिरते,
इन्सान में इन्सान को
सोचती हूँ जा कर कहाँ,
सोचती हूँ जा कर कहाँ,
रुकेगी ये हैवानियत
शर्म आंखों के किसी
कोने में भी दिखती नही
गिरते मानवी मूल्य देख
गिरते मानवी मूल्य देख
बढती मेरी हैरानियत
छल बल के दम आदमी
गढता है अस्तित्व को
ऐसे पूज्यनीयोंको देख देख
ऐसे पूज्यनीयोंको देख देख
डर रही शैतानियत
मित्र से तो शत्रु ही
फिर भले इस बदलते दौर में
मितत्रा की आड में अक्सर,
मितत्रा की आड में अक्सर,
देखी है बेमानियत
अब तक नही छोडती है
पलाश इस आस को
कब तक चलेगा आदमी,
कब तक चलेगा आदमी,
छोड कर इन्सानियत
सार्थक
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