उडते
पक्षी को देखा तो, याद मुझे भी आ गया
मेरी
खातिर भी है, ये नील गगन ये हरा चमन
भूल
बैठा था खुद को, दुनिया के इस मेले में
जीने
की राह बता गया, इक नन्हा रोता बच्चा
बुरी
सबसे लगती थी किस्मत अपनी मुझे सदा,
हर
शिकवा मिट गया जब निर्भया को याद किया
कीमत
न समझी कभी, हजार, दो हजार की
वक्त
बता गया ये तो महीने भर की रोटी थी
कुछ
भी तो नही किया, ये कहा था जन्मदाता से
पिता
बन अहसास हुआ, उफ क्या मैने कह डाला
कहाँ
करता है कोई कुछ किसी की, खुशी के लिये
खुद
को खुश रखने से भला, किसने फुरसत पायी
sundar shabdo ka chayan
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (18-06-2017) को गला-काट प्रतियोगिता, प्रतियोगी बस एक | चर्चा अंक-2646 पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
वाह
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना
सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंदूसरों के दुःखों पर ध्यान दें तो पता चलेगा कि हमारी स्थिति तो बेहतर ही है... 'संतोषी सदा सुखी'की सीख देती रचना.
जवाब देंहटाएंभूल बैठा था खुद को, दुनिया के इस मेले में
जवाब देंहटाएंजीने की राह बता गया, इक नन्हा रोता बच्चा
सराहनीय रचना आभार। "एकलव्य"
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" बुधवार 28जून 2017 को लिंक की गई है.................. http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंयथार्थपरक भावपूर्ण रचना।
जवाब देंहटाएंवाह! भाव प्रवण !!!
जवाब देंहटाएंवाह!!!
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर...
वाह ! लाजवाब ! बहुत खूब
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