मै तो मुसाफिर हूँ,
रास्ते घर हैं घर मेरा
मुझे बसने के लिये, दीवार
नही उठानी है
मेरे दोस्त कुछ फूल भी
है, कुछ कांटे भी
मेरी जिन्दगी अखबार नही,
बहता पानी है
रात से दिन कब हुआ है,
चांद के जाने से
यहाँ अंधेरा भी, कुछ महलो
की निशानी है
बहुत हो रहे हैं चर्चे,
गांव में तरक्कियों के
फिर किसी खेत की मिट्टी,
ईट हो जानी है
न बचपन खुश, न बुढापे को सुकून
ओ चैन
जाने किस काम मसगूल, देश
की जवानी है
इज्जतो आबरू से खेल, इस
कदर आम हुआ
कैसे कहे ये मुल्क,
तहजीबों की राजधानी है
पलाश लिखती है इतिहास,
उजडे जज्बातों का
जहाँ जिन्दगी कभी शायरी
तो कभी कहानी है
बढ़िया अभिव्यक्ति , मंगलकामनाएं !
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा रविवार (25-06-2016) को "हिन्दी के ठेकेदारों की हिन्दी" (चर्चा अंक-2649) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
गजब
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंsundar prastuti...badhai
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंवाहः खूब
जवाब देंहटाएंआपके शब्द प्रभावशाली हैं , यूँ ही लिखते रहें
जवाब देंहटाएंजाने कितने ही बार हमें, मौके पर शब्द नहीं मिलते !
बरसों के बाद मिले यारो,इतने निशब्द,नहीं मिलते ! -सतीश सक्सेना
#हिन्दी_ब्लॉगिंग
वाहः बहुत सुंदर
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