समझ नहीं आता हम किधर देखें|
तड़पता जिगर या तेरी नज़र देखें||
मिलन रुखसती तो दस्तूर जग का|
मुड़ मुड़ कर क्यों सूनी डगर देखें||
धूप छांव दोनों ही हैं मुदर्रिस मेरे|
कैसे न फिर हम डूबी सहर देखें||
खो जायें मदहोश जुल्फ़ों के तले|
या कयामत सा हंसीन कहर देखें||
मिले अक्सर ही लोग जरुरतों से|
हमने ओहदों के बड़े असर देखें||
कैसा वादा कर गया बूढ़ी आंखों |से
वापसी तेरी हर घड़ी हर पहर देखें||
पराई मिट्टी में जड़े नहीं जमा करतीं|
लौट कर इक बार अपने शहर देखें||
खिल जाते हैं मोहब्बत से टूटे रिश्ते|
छोड़के जरा जुबां से अब जहर देखें||
मुनासिब नहीं ढूंढूना खामी औरों में|
करके थोडी लोगों की कदर
देखें||
न मिल सके जब सुकूं दौड भाग
से|
कहती पलाश तब, जरा ठहर देखें||
बहुत सुन्दर और सार्थक ग़ज़ल।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर
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