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रविवार, 4 मई 2014

कुछ कहना है ...............


बेटा, जरा ध्यान से सब काम देखना, तुम तो जानते ही हो ये मजदूर लोग जब तक इनके सामने रहो काम करते हैं, वरना तो बस राम ही मालिक। तुम्हारी माँ भी अकेले सब नही कर सकती, और मेरी छुट्टियां खतम हो चुकी हैं। फिर ये तुम्हारा ही तो घर है अपने हिसाब से काम कराओ, ये ही तो उम्र है सीखने की। पापा मुझे आपसे कुछ बात करनी थी, निखिल ये बात बहुत मुश्किल से और बहुत धीमे से कह पाया था, मगर पिता जी ने उसकी बात की गम्भीरता शायद नजरंदाज कर दी थी, या उन्हे ये समझ ही नही आया था कि परेशानियों का उम्र से कोई नाता नही, किसी को भी हो सकती है, वो बोले बेटा अगली बार आऊंगा तो बात करूगां, जो चाहिये हो अपनी माँ से कह देना।
पिता जी के जाने के बाद, निखिल जी जान से घर बनवाने में दिन भर जुटा रहा, वो अपनी परेशानियों को सोचना भी नही चाहता था, मगर शायद ऐसा होता नही। दिन मे तो व्यक्ति अपने को काम में उलझा कर कुछ देर के लिये अपनी परेशानियों से मुंह मोड लेता है, मगर रात के सन्नाटों में जब वही अपने विकराल रूप में सामने आ जाती है, तब आँखे मूंद लेने पर भी नजर आती हैं।
निखिल को कुछ समझ नही आ रहा था क्या करे, आज उसे अकेले होना बहुत बुरा लग रहा था, सोच रहा था, अगर कोई बडा भाई या बहन होती तो शायद वो अपनी बात कह कर मन का बोझ तो हल्का कर लेता, उसका कोई ऐसा दोस्त भी तो नही। उसे थोडा सा गुस्सा अपनी माँ पर भी आ रहा था, कभी उन्होने उसे किसी के साथ ज्यादा घुलने मिलने ही नही दिया। फिर माँ से भी वो कुछ कह ही नही सकता था, वो तो उसे जरा सा एक कांटा चुभ जाने पर भी ऐसे व्याकुल हो जाती थी मानो दुनिया की बहुत बडी आपत्ति आ गयी हो, रो रो कर बुरा हाल कर लेती थी, सलाह देने लगती थी - बेटा अब उधर से फिर ना जाना, और ना जाने किस किस तरह से समझाती।
उसे याद था, एक बार जब माँ बीमार थी और उससे चाय बनाने को कहा था, चाय लाते समय जाने कैसे कप उसके हाथ से गिर गया था, और हाथ जल गया था, उस दिन का दिन था और आज का दिन है माँ ने उसे कभी किचेन में एक काम नही करने दिया।
फिर जब आज वो सचमुच ही बडी आपत्ति मे था, तो कौन था जो उसकी मदद करता, एक मात्र पिता जी से ही आशा थी, तो उनके पास भी पुत्र के लिये समय नही था।
बिस्तर पर लेटा निखिल धीरे धीरे घूमते सरकारी पंखे को देख रहा था । जो हवा कम ध्वनि ज्यादा दे रहा था। इतनी आवाज थी कि रोते निखिल को अपनी ही प्रतिध्वनि सुनाई नही दे रही थी। मगर ना जाने कैसे उसने अपने मन की बात सुन ली । मन ने कहा निखिल तुम्हारे पास मरने के सिवाय कोई और रास्ता नही। फिर तो ये बात उसके कानों में तब तक गूंजती रही जब तक निखिल ने अपने मन की बात मान नही ली।
सुबह कमरे में निखिल की माँ को सब कुछ वैसा ही मिला जैसा मिला जैसा कल था, एक निखिल को छोड कर। पिता और माँ के पास कुछ भी नही था कहने के लिये, सिर्फ प्रश्न था कि आखिर क्यों निखिल ने ऐसा किया। पिता के कानों मे बार बार निखिल के शब्द सुनाई दे रहे थे " पापा मुझे आपसे कुछ बात करनी थी "

अब तो सिर्फ ईश्वर ही जाने कि वो क्या कहना चाह्ता था, मगर माथुर साहब जिस बेटे की धीमे से कही बात को उस दिन अनसुना कर गये थे, अब वो बात हर पल उन्हे एक चीख के साथ सुनाई दे रही थी, "पापा मुझे आपसे कुछ बात करनी थी"। वो लाख कोशिशों के बाद भी नही समझ पा रहे थे कि एक सत्रह साल के बच्चे को ऐसी क्या बात परेशान कर रही थी, कि वो आत्महत्या करने को मजबूर हो गया। अब उन्हे याद आ रहा था कि कैसे पिछले तीन दिनो से वो मेरे आगे पीछे घूम रहा था, वो मेरे आस पास था लेकिन मै उसे समझ नही पा रहा था, अपनी व्यस्तता के बीच कैसे मै अपने बच्चे की परेशानियों को नही देख पाया। क्या एक बच्चा जिस समस्या को अंतहीन समस्या के रूप मे देख रहा था, मेरे पास भी क्या उसका कोई हल ना होता। क्या माँ का प्यार उसकी ममता ने उसके पुत्र को उससे दूर कर दिया था, क्या वो ये समझ गया था कि माँ उसका सम्बल नही बन सकेंगी। ना जाने ऐसे ही कितने सवाल थे जो रह रह कर माथुर जी के जेहन में उठते थे और जवाब में सिर्फ आंसू के कतरे उनके ह्दय को भिगोते जाते थे।

5 टिप्‍पणियां:

  1. इतनी संवादहीनता..ह्रदय भींग गया ..

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  2. आत्महत्या, शायद एक विकल्प के रूप में देखने लगे हैं आज कल लोग.... अगर परस्पर संवाद बना रहे तो रुक सकता है ये कदम....

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  3. बच्चों के व्यक्तित्वहीन क्यों समझ लेते हैं लोग !

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  4. संवाद कितना आवश्यक है पर जीवन शैली ने इस हद तक प्रभावित किया है.........

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  5. व्यस्तता इतनी कही न हो की अपने ही बच्चों के लिए समय न बचे , लेकिन निखिल को भी अपने जीवन के प्रति इतना निर्दयी नहीं होना चाहिए था !

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