मम्मी
पापा तो समझते ही नही कि अब हम बच्चे नही रहे अब हम स्कूल नही कॉलेज जाते हैं, और वहाँ
लोग नोटिस करते हैं कि हमने क्या पहना है, रोज रोज वही कपडे पहन कर जाने से मेरा मजाक
बनता है। मम्मी आप ही कह दो ना पापा से मुझे सिर्फ दो जींस दिला दे, प्लीज मम्मी कह
दोगी ना। हाँ हाँ कह दूंगी, तुम्हारे पापा का मूड देख कर, मगर मैं तेरी फर्माइशों की
गारंटी नही लेती। कह कर वसुधा नाश्ता बनाने में जुट गयी और मलय अपने स्टडी रूम में
चला गया।
उपरोक्त
दॄश्य हर घर में यदा कदा मिल ही जाता है। जिसमें घर की सम्पूर्ण जिम्मेदारी का वहन
करने वाला पिता प्रथम दॄष्टया विलेन ही नजर आता है। बच्चे मासूम उनकी फर्माइशें जायज
और माँ पिता पुत्र के मध्य एक सेतु सी नजर आती है। यहाँ बहुत से पहलू विचार योग्य हैं
जिनकी अनदेखी समाज में एक नये कैंसर को जन्म दे रही है। बहुत से ऐसे सवाल हैं जिनका
समय पर हल मिलना आवश्यक है। बात ना सिर्फ बच्चों की फर्माइशों की है, ना उनके जिद करने
की, यह तो स्वाभाविक है, किन्तु अस्वभाविक है दोनो अभिभावकों में से किसी एक के प्रति
मन में उपजता अविश्वास। ये उस श्रंखला की प्रथम सीढी है जिसका अन्तिम पढाव है- कुंठा,
विद्रोह, छल।
कैसे
बच्चे में यह आस्वश्ति विकास करती है कि वह माता के समक्ष अपनी बात रखते हुये पिता
का अनादर कर सकता है? कैसे उसकी समझ यह कहती है कि उसका पालनहार उसका पिता उसे नही
समझता? कैसे वह इस विश्वास में जीने लगता है कि उसकी हर जिद जायज है और पिता उसका धुर
विरोधी? कैसे एक पत्नी को अपने पति से कुछ कहने के लिये उसके अच्छे मूड को देखना पडता
है? कैसे बच्चे में यह बात घर कर जाती है कि समाज में उसका सम्मान उसके रहन सहन के
स्तर से होगा ना कि उसके गुणों से?
इन
सभी प्रश्नों के होने का मात्र एक कारण है? हमारे पास आज समझ की कमी नही किन्तु सही
समझ का सर्वथा अभाव है।
हम
सभी अपने आप में समझते है कि हम सही ही सोचते समझते हैं। गलती तो सिर्फ दूसरे की है।
फिर यह मै और दूसरे का चक्र चलता रहता है, हर मै दूसरा बनता है हर दूसरा मै। हर मै
दूसरे को गलत और स्वयं को सही समझता है। यहाँ फिर मन में एक सवाल उठता है क्या सही
समझ व्यक्ति दर व्यक्ति निर्भर करती है, क्या यह सार्वभौमिक नही, क्या यह समय और स्थान
से परे नही? क्या सही वास्तव में परिवर्तनशील है?
हर
वह प्रश्न जो मन से उपजता है, मन ही उसके उत्तर का स्रोत बनता है। जब हम स्वयं को खंगालते
है तो अक्सर हम पाते हैं कि जैसे आचरण, जैसे विचार की हम दूसरे से अपेक्षा करते है,
बहुधा हम वैसा नही कर पाते। और यह दूसरा हमसे अलग नही यह या तो मेरी पत्नी है, या भाई,
या मेरा निकट सम्बन्धी या मेरा मित्र या फिर मेरा कोई परिचित। हम साथ रहते हुये भी
विचारों से साथ नही हो पाते, क्योकि हम अपनी समझ से अपने जीवन को गति देते है, सही
समझ की तरफ ध्यान भी नही जाता।
सही
समझ का अर्थ है ऐसा विचार जो सभी के लिये एक सा हो। जो स्थान, काल और व्यक्ति से परे
हो। जिसके किसी के लिये भी गलत होने की सम्भावना शून्य हो। जिसमें पूर्ण आश्वस्ति हो,
विश्वास हो, अपरिवर्तित हो।
आज
हम साथ रहते हुये भी साथ नही, हमारा शरीर तो साथ रहता है मगर विचार नही। हम एक दूसरे
के सम्बन्धी तो बन जाते है मगर सम्बन्ध स्थापित नही कर पाते क्योकिं सम्बन्धों को रीति
रिवाजों से निकट तो लाया जा सकता है मगर जोडने के लिये आवश्यक है, विचारों की विश्वसनीयता।
विश्वास
बनने या करने का कार्यक्रम किसी भौतिक वस्तु के आदान प्रदान के माध्यम से नही किया
जा सकता, यह बनता है सही समझ के विकास से।
एक
शिशु में जब सोचने समझने की शक्ति विकसित होती है, उससे कही पहले उसका अपनी मां के साथ विश्वास का रिश्ता प्रौढ हो चुका होता है,
और पूर्ण विश्वास के साथ वो माँ का अनुकरण करते हुये अपने विकास की यात्रा को आरम्भ
करता है। विश्वास की इस कडी में फिर उसका सम्बन्ध जुडता है अपने पिता फिर परिवार जनों,
और फिर समाज से। धीरे धीरे सम्बन्धों के निर्वाह में साधन अपनी जगह बनाते जाते है,
और इस क्रम में एक समय के अन्तराल के पश्चात सम्बन्ध भाव प्रधान न रह कर साधन प्रधान
होने लगते हैं।
भाव
से साधन की तरफ बढती प्राथमिकता ही वह समय है जहाँ यदि सही समझ से विचार न किया जाय
तो सम्पूर्ण जीवन व्यक्ति सुख की खोज में अपना जीवन व्यतीत करने के उपरान्त यह निष्कृष
निकालता है कि सुख के लिये साधन गौण थे प्राथमिक नही।
सुखी
तो हम सभी होना चाहते है, सारा जीवन इसी प्रयास में निकलता भी है किन्तु सही समझ के
अभाव में भाव की शून्यता होती जाती है और अथक परिश्रम के बाद भी वास्तविक सुख नही मिलता।
तो क्यों ना हम कुछ समय निकाल कर स्वयं को दे और विचार करे कि कैसे सही समझ को विकसित
किया जा सकता है क्योकिं सही समझ ही मात्र एक पथ है जीवन में निरन्तर सुख पाने का।
ये
लेखिका के स्वतंत्र विचार हैं।
प्रकाशन के लिये आदरणीय भोलेश्वर उपमन्यु जी (हमारामैट्रो के सलाहकार सम्पादक) का बहुत बहुत आभार।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (28-03-2017) को
जवाब देंहटाएं"राम-रहमान के लिए तो छोड़ दो मंदिर-मस्जिद" (चर्चा अंक-2611)
पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'