सोचा न था कभी मैने
होगा कष्टकारी इतना
उनसे अंतिम विदा लेना
उनसे दूर चले जाना
अब जब जाने की वेला
में
बस दो क्षण ही शेष
रहे
जीवन के कुछ स्वर्णिम पल
इन आंखों में तैर
रहे
गुस्से में अक्सर कह देता था
अब साथ नही रहना मुझको
हे ईश्वर मुझ पर दया
करो
अब अपने पास बुला भी
लो
उधर द्वार पर यमदूत मुझे
ले जाने को आतुर दिखते
इधर शोकाकुल पत्नी के
नैनों से निर्झर नीर बहे
नैनों से निर्झर नीर बहे
है याद मुझे वो दिन
आता
जब बिछडे थे हम भगदड में
और बच्चे
सी रो वो बोली थी
न छोडना
कभी अब जीवन में
हे ईश्वर तुम ही मदद
करो
न साथ मेरा, उसका तोडो
हम जन्मों जन्मों के
साथी है
यूं विरह में न, उसको
छोडो
अंतिम इच्छा समझ मेरी
अंतिम मुझ पर उपकार
करो
मै आधा हूं, आधी वो
है
दोनो पर अपना हाथ धरो
दोनो पर अपना हाथ धरो
आपकी अंतिम विदा को मेरे आंसुओं का प्रणाम।
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (08-06-2018) को "शिक्षा का अधिकार" (चर्चा अंक-2995) (चर्चा अंक 2731) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
जन्म -मृत्यु का पर्व दुनिया में है सबसे बड़ा
जवाब देंहटाएंइस विषय पर सोचता हूँ मैं खडा-खडा |
सौगात भी देते हैं और भरा पूरा देते हैं घडा
आना -जाना लगा है तो सवाल क्यों पडा |
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, सपने हैं ... सपनो का क्या - ब्लॉग बुलेटिन “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंसादर
भावपूर्ण रचना...एक न एक दिन तो वियोग झेलना ही होगा..
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