आज एक दिन
घर पर अकेले रहना, इतना मुश्किल लग रहा था कि जैसे इससे ज्यादा मुश्किल तो कुछ भी नही।
निशा बिट्टू के साथ अपनी बहन की शादी में गयी थी।
तीन दिन
कैसे निकल गये पता ही नही चला था, बैंक की नौकरी में मार्च का आखिरी सप्ताह तो बस फाइलों
के ही नाम होता है, रात के ग्यारह बारह तो आफिस में ही बज जाते थे। कल बैंक से आते समय सोचा था कि कल तो सनडे है, देर तक सोउंगा। मगर,
पाँच बजे उठने की आदत ने थोडा और और सोचते सोचते सात तक जगा ही दिया। एक कप चाय बना
कर अखबार बाहर लॉन में आ गया। राजनीति में मेरी खास रुचि नही थी, और आज का सारा अखबार
नेताओं के चर्चों से ही भरा था, सो थोडी देर में ही वापस् ड्राइंग रूम में आ गया। तभी
मेरी नजर अपनी छोटी सी लाइब्रेरी की तरफ गयी। किसी समय किताबे पढने का बहुत शौक हुआ
करता था। और उसके पहले एक ऐसा समय भी था जब मै उपन्यास पढने को बहुत बेकार सा काम समझता
था। ये बात कुछ ३० - ३२ साल पहले की है, जब मैं १२वीं का विघार्थी था, हमारे हिन्दी
के टीचर ने प्रेमचन्द्र जी की जीवनी पढाते समय उनके गोदान उपन्यास की बहुत प्रसंशा
की थी। मेरी हिन्दी में कोई खास रुचि नही थी, मगर नीरु हिन्दी की दीवानी थी। मै और
नीरु एक ही साथ पढते थे। ये जानते हुये भी कि मुझे उपन्यास पढने मे कोई दिलचस्पी नही
है, उसने मेरे जन्म दिन पर मुझे गोदान भेंट में दिया। मुझे मालूम था कि यदि मै उसको
ना पढता तो वो मुझसे खूब झगडा करती, पढना शुरु किया, पता नही वो उपन्यास मुझे पसन्द
आया था या मै नीरु को खुश करना चाहता था, मैने उसी रात पूरा पढ लिया। फिर तो नीरू जब
भी कोई उपन्यास लेती पढ कर मुझे दे देती, और कहती मैने पढ लिया है तुम आराम से पढ लेना।
उसके बाद हम दोनो ने ही बी. एस. सी मे दाखिला लिया, मगर हमारा नावेल पढने के शौक कम
ना हुआ, हाँ एक बात थी मै हमेशा उसका दिया नावेल ही पढता था।
उसके जाने
के बाद ना फिर कोई नया नावेल खरीदा और ना पढा। ये मै आज तक नही समझ सका कि नावेल मै
क्यों पढता था। बरसों से मेरी ये छोटी सी लाइब्रेरी वैसे ही है, ना कुछ कम हुआ ना ज्यादा।
पुरानी यादे दिल को बहुत बेचैन करने लगी थी, सोचा कोई नावेल पढ लेती हूँ, या शायद मै
खुद से ही झूठ बोल रहा था, नावेल पढते समय मुझे हमेशा ही तो ये आभास होता था कि नीरू
मेरी नजरों के सामने है, और इस समय भी मन में उसको सामने देखने की प्रबल इच्छा के कारण
ही नावेल पढने को मन आतुर हो उठा था। लाइब्रेरी की अलमारी का शीशा खोलते ही निगाहे
गोदान पर टिक गयीं। बहुत देर तक किंकर्तव्मूढ सा गोदान को तकता रहा, अचानक ऐसा लगा
जैसे धरती हिल रही है, और मै चक्कर खा कर गिर जाऊंगा, मैने जल्दी से गोदान को हाथ मे
कस कर पकड लिया और कुर्सी पर लगभग गिर सा पडा। तभी मेरे हाथ से गोदान छूट कर गिर पडा,
किताब के पन्ने खुल कर फड्फडा रहे थे, जैसे उसका एक एक शब्द मुझसे कह रहा हो कि तुम्हे
अब मुझे पढने का कोई अधिकार नही। मेरी आंखों से बेबसी के अश्रु निकल् पडे, तभी धुंधली
सी हो आयी नजर कुछ दूर पर ही पडे एक कागज पर गयी जो अभी अभी किताब से निकला था। शरीर
की सारी शक्ति को यत्न पूर्वक एकत्रित करके मैने हाथ बढा कर कागज को उठाने की कोशिश
करी, तभी सामने से आती कूलर की हवा ने उसे मुझसे कुछ दूर कर दिया, उस कागज में मुझे
साक्षात नीरू नजर आ रही थी। उस पर लिखे शब्द मेरे कानों में नीरू के शब्द बन कर सुनाई
देने लगे।
मन्नू मुझे
पता है तुम मुझे बहुत प्यार करते हो, मगर जिस समाज , जिस दुनिया में हम रहते हैं वहाँ
प्यार करने को गुनाह समझा जाता है, तुम एक उ्च्च कुल के ब्राहमण के एक मात्र पुत्र
हो, और मै एक अछूत की कन्या। मुझसे अपने प्रेम को स्वीकर करने से पहले, तुम्हे अपने
माता पिता, अपने रिश्तेदारों, समाज के ठेकेदारों से मुझसे प्रेम करने की अनुमति लानी
होगी। मैं तुम्हे प्रेम करती हूँ और हमेशा करूंगी, मगर मै अपने प्यार को गुनाह का नाम नही दे सकती। यदि
तुम मुझे अपने दिल के साथ साथ अपने जीवन में भी स्थान देने की अभिलाषा रखते हो तो पहले
अपने बडों के आशीर्वाद की मुहर और स्वीकृति के हस्ताक्षर इस प्रेम अनुमति पत्र पर लाने होगें। मै तभी
तुम्हे मुझसे प्यार करने की अनुमति भी दूंगी और तुम्हारे दिल पर अपने प्रेम का हस्ताक्षर
भी। मै तुम्हारा अपनी अन्तिम सांस तक इन्तजार कर सकती हूँ, मगर अपने ही हाथों अपने
प्रेम को समाज के रखवालों के हाथों बिखरते नही देख सकती।
आज तक,
ना मैं अपने प्रेम को हस्ताक्षरित करा सका और ना दिल को....................
मुझसे अपने प्रेम को स्वीकर करने से पहले, तुम्हे अपने माता पिता, अपने रिश्तेदारों, समाज के ठेकेदारों से मुझसे प्रेम करने की अनुमति लानी होगी। सही लिखा आपने अपर्णा जी , प्रेम में बहुत बढ़ाएं होती हैं !
जवाब देंहटाएंसार्थक प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएं--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (22-02-2015) को "अधर में अटका " (चर्चा अंक-1897) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आज 26/फरवरी /2015 को आपकी पोस्ट का लिंक है http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
जवाब देंहटाएंधन्यवाद!
समय के साथ समझ बढ़ती हैं सुनी कहानी, उपन्यास आदि के जीवन अनुभव के साथ मायने बदल जाते है ...
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति ..
बहुत बढ़िया लिखा है
जवाब देंहटाएंअहसासों की कहानी
जवाब देंहटाएंNice Article sir, Keep Going on... I am really impressed by read this. Thanks for sharing with us.. Happy Independence Day 2015, Latest Government Jobs.
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