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सोमवार, 20 फ़रवरी 2017

मातृभाषा की शिक्षा संस्कार में उपयोगिता एवं महत्व


मातृभाषा को समझने से पहले समझना होगा भाषा को, भाषा किसे कहते हैं? विचारों और भावनाओं को आदान प्रदान करने का माध्यम है भाषा। विचारों की अभिव्यक्ति कभी शब्दों के द्वारा की जा सकती है कभी सांकेतिक। इस प्रकार से भाषा को दो रूपों मे समझा जा सकता है। प्रकृति में भाषा का प्रयोग केवल मनुष्य मात्र ही नही करते, वरन पशु , पक्षी, यहाँ तक की नदी, झरने, हवा सभी की अपनी एक भाषा है। सुनने समझने की शक्ति रखने वाले मनुष्य शब्दो की भाषा का प्रयोग करते हैं जबकि सांकेतिक भाषा का प्रयोग वह करते हैं जिनमें समझने की तो शक्ति होती है मगर सुनने की क्षमता का अभाव होता है। बहुत सी भाषा के जानकार लोगों के अनुसार जन्म के साथ ही, एक शिशु जिस प्रथम शब्द का उच्चारण करता है वह है माँ, इससे यह समझा जा सकता है कि दुनिया की ज्यादातर हर भाषा में या तो यह शब्द उपलब्ध है या यह पूर्ण रूप से एक प्राकृतिक शब्द है। वो भाषा जिसे सुन कर व्यक्ति विचारों की अभिव्यक्ति करना सीखता है, वह उस व्यक्ति की मातृभाषा कहलाती है। इस बात से यह अभिप्राय निकलता है कि किसी भी विचार या तथ्य को सबसे अधिक सुगमता से किसी व्यक्ति को उसकी मातृभाषा में समझाया जा सकता है। भारत एक विविधताओं का देश है। यहाँ बहुत सी संस्कॄतियों का संगम है। संस्कॄति और मातॄभाषा का बहुत निकट सम्बन्ध है। संस्कॄति के आदान प्रदान में भाषा की अहम भूमिका है। भारत के संविधान में भी भाषा को बहुत आदर का स्थान प्राप्त है। संविधान मे २२ भाषाओं को स्थान दिया गया है जो देश के विभिन्न प्रदेशों में बोली जाता हैं। शिक्षा में भाषा का महत्वपूर्ण योगदान है। ज्ञान का माध्यम यदि मातॄभाषा हो तो विषय को आसानी समझा जा सकता है किन्तु आज हमारे देश में मातृभाषा को किस तरह जबान से, चलन से, गायब कर अंग्रेजी को मातृभाषा बना दिये जाने की पूरी कोशिश की जा रही है।
आज यह सिध्द हो चुका है कि मातृभाषा में शिक्षा बालक के विकास में ज्यादा सहयोगी है। अलग-अलग आर्थिक और सामाजिक परिवेश से आये विघार्थियों में किसी भी विषय को समझने की क्षमता समान नहीं होती। अंग्रेजी में पढ़ाए जाने पर उनके लिये यह एक अतिरिक्त समस्या बन जाती है – विषय ज्ञान के साथ भाषा का ज्ञान। भाषा सीखना अच्छी बात है और लाभदायक भी है। भाषा हमें नये समाज और संसार से जोडती है। लेकिन मातृभाषा की उपेक्षा कर शिक्षा के माध्यम से बलपूर्वक हटा कर अन्य भाषाओं को विशेष स्थान देना निश्चित ही उचित नही।
जापान, रूस जर्मनी जैसे देश आज हम सबके लिये उदाहरण है जिन्होने भाषा की शक्ति से ही स्वयं को विश्व पटल पर स्थापित किया। अक्सर देखा जा सकता है छात्र छत्तीस नहीं समझते मगर थर्टीसिक्स बोलो तो समझ जाते हैं। नवासी और उन्यासी में तो बडे बडे लोग अक्सर सोच में पड जाते हैं। किसी भी भाषा से शब्दों का लेन देन कोई गलत नही। हिन्दी में उर्दू, फारसी, संस्कृत सहित कई लोकभाषाओं के बहुत सारे शब्द हैं जिनका बहुत से जानकार भी आज विभेद नही कर पाते उदाहरण के लिये – आवाज, शुरुआत, दौरा इत्यादि। अंग्रेजी के भी ढेरों शब्द हैं। डेली, रेलगाड़ी, रोड, टाईम शब्द हिन्दी के हो गए हैं। ई-मेल, इंटरनेट, कम्प्यूटर, लैपटॉप, फेसबुक आदि शब्द हिन्दी में चल निकले।  धन अर्जन के लिये यदि हम दूसरे प्रान्त या देश जाते हैं तो वहाँ के लोगो के साथ सम्बन्ध पूर्वक जीने के लिये उनकी भाषा को सीखना हमारी प्राथमिकता होनी चाहिये। लेकिन उसके लिये अपनी मातृभाषा को छोड देना किसी भी परिस्थिति में सम्मान जनक नही।
आज विश्व में मातृभाषा के महत्व को समझा गया है। शायद तभी २१ फरवरी को विश्व मातृभाषा देवस के रूप में स्थापित किया गया।  मातॄभाषा मानव से मानव को जोडने का सबसे सुगम साधन है। हमे केवल अपनी ही नही वरन सेभी की मातॄभाषा का सम्मान करना चाहिये जिससे एक सुदॄढ और स्वस्थ समाज की स्थापना की जा सके।
** चित्र के लिये गूगल का आभार 

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