जाने
कितनी रातें इस उधेड बुन में काट दी कि अपनी आज की स्थिति को अपनी नियति मान ही लूँ
और परिस्थितियों से समझौता कर लूं या फिर जिन्दगी
को कम से कम उस स्थिति में तो लेकर आऊँ जहां पर उसे जिन्दगी तो कहा जा सके। लोगो के
घरों के बर्तन घिसते घिसते शायद मेरे हाथो की लकीरें भी घिस चुकी थी। कभी सोचती और रोती
कि आखिर मेरी तकदीर में है क्या? और जब रो कर चित्त शान्त होता तो सोचने लग जाती कि आखिर क्या लिख सकती हूँ अपनी तकदीर में?
बचपन
से आज तक जो मिला उसको पूरे मन से स्वीकार किया्। काम को मैने उस तरह से लिया जैसे
बच्चे खेल को लेते है। गन्दे बर्तन, झाडू, पोछा ये मेरे प्रिय खिलौने थे या बना दिये
गये थे। बचपन पार कर जब जवानी कि दहलीज पर पहुंची तो उससे बहुत पहले यौवन का मौसम मेरे
जीवन में एक आभासी झोके सा आकर जा चुका था। मेरे साथ की सहेलियां जब अपने भावी पति
के सपने सजाती थी उस समय मैं, घर में दो वक्त की रोटी के जुगाड मे उलझी थी।
शादी
मेरे जीवन के कोई त्योहार नही स्थानान्तरण की तरह आयी थी। सामान्यतः लोग कहेगें इसमे
नया क्या है, शादी के बाद हर लडकी का घर बदलता है । मगर मेरे लिये ये मायके से ससुराल जाना नही था, बदला था मेरा काम करने का घर।
शादी के पहले – बिजली वाले सक्सेना जी का घर था, एक मोटे हलवाई का घर था और एक था मेरी
टीचर दीदी का घर। और अब मेरे पास थे- चक्की वाले गुप्ता जी, एक वर्मा जी का घर, जिनके पागल बेटे से मुझे डर लगता था या उसे मुझसे कह नही सकती मगर रोज ही जाने से पहले
सोचती थी - "हे राम वो सो रहा हो और मै काम निपटा कर निकल लूँ"। मुँह दिखायी में मुझे ये
दो घर मिले थे। शायद हम जैसी लडकियों को यही मिलता होगा, शायद मेरी माँ और मेरी सास
को भी यही मिला होगा, इसलिये ना मै खुश थी ना दुखी।
ना
कोई बडी ख्वाइश थी ना कोई चाहत, ना जाने कहाँ से एक दिन खुद के बारे में सोच बैठी,
बस यही से सब बदल गया। उस दिन मै वर्मा जी के घर से काम करके लौटी तो हाथ मे था महीने
भर का पैसा और ऊपर से दिये गये १०० रुपये। कल उनके पागल बेटे का जनम दिन था, तो न्योछावर
किया गया पैसा, अलाय बलाय सहित मेरे हाथ में दे दिया गया था। कहना मुश्किल था कि मै
फायदे मे थी या नुकसान में। बहुत दिन से एक लिपिस्टिक का मन था सो खरीद लिया, और पूरे
मन से रात में लगा कर पति के सामने आयी, इस उल्लास के साथ की आज की रात बहुत प्यार
भरी होगी, मगर नही जानती थी कि पूनम की रात को एक पल मे अमावस मे बना देने की कला पति
के पास होती है। आरोपो के सिलसिलो से छलनी हुये सीने को अगर कोई देख पाता तो निश्चित
रूप से होठों पर लगी लाली नही हदय की पीडा का रंग नजर आता। मेरा पति जो कल तक मुझे
सब कुछ समझता था , आज मुझे कितने ही अपशब्दों के अलंकारों से सजा चुका था। वो पति जिसे
हर रात मैं परमेश्वर समझ कर उसके तन से शराब की आती दुर्गन्ध को भी उसका प्रसाद समझ
कर माथे सजा लेती थी। मैने भी निश्चय कर लिया था कि किसी भी ऐसे प्रश्न का उत्तर नही
दूँगी जिसको सुनने से मै इन्कार कर सकती हूँ, धीरे धीरे प्रश्नो की तीव्र और तीखी बौछार
होती गयी और अन्ततः शब्दों के बाण जब पति देवता के लिये काफी नही रहे तो उसने प्रहार
का विकल्प चुन लिया। भला कौन था यहाँ मेरी रक्षा को जब रक्षक ही भक्षक बन गया था, सो
मै इसे भी प्रसाद की तरह स्वीकर करती गयी।
रो धोकर इस
उम्मीद के साथ रात बीती कि हर रात का एक सबेरा होता है, शायद कल सब ठीक हो जायगा। मगर
पति की कठोरता के बाद अभी शेष थी वक्त की निष्ठुरता। कितनी ही मनगढन्त कहानियां बना
ली गयी थी मुझे चरित्रहीन सिद्ध करने के लिये और फिर दया का पात्र बनाते हुये मुझे
घर पर रहने की अनुमति दी थी मगर पत्नी शब्द अब सिर्फ मेरी मांग मे सिन्दूर
तक सीमित हो गया। पति के वक्षस्थल की नयी अधिकारिणी अब आ चुकी थी। उसको भले ही मुँह
दिखायी मे दो घर मिले थे मगर उन घरों का जिम्मा मेरे ही पास आया था। मुझमें अब और शक्ति
नही बची थी। स्त्री हो या पुरुष वह यही चाहता है कि उसका जीवनसाथी सदैव उसे प्रेम करे, उसके साथ रहे, विवाह का सम्बन्ध तन का कम मन का ज्यादा होता है, मन में किसी और की छाया का विचार मात्र ही उसे विचलित कर देता है। और यहाँ तो तन मन दोनो से ही मुझे पद्च्युत कर दिया गया था। अब मेरे पास दो ही रास्ते शेष थे - घर छोडूं या दुनिया। मेरे निर्णय से फर्क
किसी को नही पडने वाला था। मगर, मै लाख दुख मिलने के बाद भी अपनी शाख से अलग नही होना
चाहती थी।
इसी
द्वन्द में जाने कितनी राते काट चुकी हूँ, हर रात सोचती हूँ कि कल भोर से पहले मै इस
घर से दूर अपनी एक दुनिया बसाने की यात्रा शुरु कर दूंगी। पर मन हमेशा मेरे पैरो मे
बेडिया डाल देती।
मगर
आज अन्ततः, आज मैने अपनी नयी यात्रा शुरु कर दी, अपनो के बिना अपने लिये। अब ठीक किया या गलत नही जानती, बस इतना जानती हूँ किसी को दुःख नही दे रही अपने को सुखी करने के लिये..................
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (26-02-2017) को
जवाब देंहटाएं"गधों का गधा संसार" (चर्चा अंक-2598)
पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक