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शुक्रवार, 25 अगस्त 2017

जाने कितने


जाने कितने छूटे हैं जाने कितने छूटेंगें
सोच की तंग गलियों में जाने कितने रूठेंगें

कुछ लोग गले से लगायेगे
फिर खंजर दिल पे चलायेगे
बन करके सबब बर्बादी का
जख्मों पर मरहम लगायेगे
जाल बिछा् अपनेपन का, सब हौले हौले लूटेंगे
जाने कितने छूटे हैं जाने कितने छूटेंगें

बुलंदी पर जश्न मनायेंगें
और जाम में जहर पिलायेंगें
स्वांग रचाके लव सव का
दामन में दाग लगायेंगें
गर सपने सरेआम किये, अरमान यहाँ फिर टूटेंगें
जाने कितने छूटे हैं जाने कितने छूटेंगें

सहमे हैं कभी, कभी सिमट गये
घिनौनी नजरों से घर में भी घिरे
कभी सब खो गहरे पानी में डूबे
कभी बचने को आग में कूद गये
ऐ बदनीयत जा बदल, हम ज्वाला बन फूटेंगें
जाने कितने छूटे हैं जाने कितने छूटेंगें

5 टिप्‍पणियां:

  1. वाह ! ,बेजोड़ पंक्तियाँ ,सुन्दर अभिव्यक्ति ,आभार।"एकलव्य"

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  2. नमस्कार, हम आपकी इस कविता को अपने अख़बार गाँव कनेक्शन में प्रकाशित कर रहे हैं। धन्यवाद

    जवाब देंहटाएं
  3. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल jbfवार (27-08-2017) को "सच्चा सौदा कि झूठा सौदा" (चर्चा अंक 2709) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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