जब भी ख्याल हुआ, अब
जीने में कुछ नही
जिन्दगी ने कहा, सफर
ऐसे तो खतम नही
माना मिल जाते है साँप, आस्तीन के बाजारों में
न करूं यकी हमनिवालों
का, ये भी तो हल नही
सुना था कानून अन्धा
होता है,
सुना था धर्म आँख खोल
देता है
शुक्र है जमाने में
अभी सब नही बिगडा
जब धर्म हो अन्धा,
कानून सच तोल देता
वो लहू बहाते है, मजहब
ने नाम पर
वो घर जलाते हैं, मजहब
के नाम पर
कौन कहता है, आतंकी
एक कौम के लोगो को
ये सडकों पर हिंसा का नाच, क्या आतंकवाद नही
आवाज सच की धीमी ही
सही
हमारी बात आज तेरी
न सही
क्या रह सकेगा उस आग
से बेखौफ कल भी
जब जलेगा शहर मेरी
जुबां दबाने से
भूल जाओ, कि भूलने कि
आदत है तुमको
क्या हुआ, कल शहर में
तुम्हे क्या करना है
अच्छा किया, जो निकले
नही कल घर से
तेरे अपने बच गये,
मरो का तुम्हे क्या करना है
उफ कहाँ गयी है हया,
मुँह छिपाने अपना
कैसे दरिन्दों को मानते
हो भगवान अपना
रोक लो खुद को, सोचो
जरा रुक कर तुम
क्या जरूरी है, सीखो
सब जला कर अपना
जाने क्या चाहते हैं
वो, देना अपनी नस्लों को
जाने क्या डालते हैं
खेतों में, अपनी फसलों को
नफरत के बीज दे रही
है सियासत, बिना सब्जिडी
आग पेट की बुझाने को
क्यों, किसी का घर जलाते हो
हरियाली भी बिकने लगी, इन्टरनेट की दुकान पर
इन्सानों से ज्यादा, मशीने रहने लगी मकान पर
खुशबुयें समेट रही हैं, अपने जज्बात आज कल
गुलाब खिलते नही, अब बनते है किसी बजार पर
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (28-08-2017) को "कैसा सिलसिला है" (चर्चा अंक 2710) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सुन्दर!!!
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