कितना सुहाना दौर हुआ करता था , जब खत लिखे पढे और भेजे जाते थे । हमने पढे लिखे और भेजे इसलिये कहा क्योकि ये तीनो ही कार्य बहुत दुष्कर लेकिन अनन्त सुख देने वाले होते थे ।
खत लिखना कोई सामान्य कार्य नही होता था , तभी तो कक्षा ६ मे ही यह हमारे हिन्दी के पाठ्यक्रम मे होता था । मगर आज के इस भागते दौर मे तो शायद पत्र की प्रासंगिकता ही खत्म होने को है । मुझे याद है वो समय जब पोस्ट्कार्ड लिखने से पहले यह अच्छी तरह से सोच लेना पडता था कि क्या लिखना है , क्योकि उसमे लिखने की सीमित जगह होती थी , और एक अन्तर्देशीय के तो बँटवारे होते थे , जिसमे सबके लिखने का स्थान निश्चित किया जाता था । तब शायद पर्सनल और प्राइवेट जैसे शब्द हमारे जिन्दगी मे शामिल नही हुये थे । तभी तो पूरा परिवार एक ही खत मे अपनी अपनी बातें लिख देता था । आज तो मोबाइल पर बात करते समय भी हम पर्सलन स्पेस ढूँढते है ।
पत्र लिखने के हफ्ते दस दिन बाद से शुरु होता था इन्तजार – जवाब के आने का ।जब डाकिया बाबू जी को घर की गली में आते देखते ही बस भगवान से मनाना शुरु कर देते कि ये मेरे घर जल्दी से आ जाये । और दो चार दिन बीतने पर तो सब्र का बाँध टूट ही जाता था , और दूर से डाकिये को देखते ही पूँछा जाता – चाचा हमार कोई चिट्ठी है का ? और फिर चिट्ठी आते ही एक प्यारे से झगडे का दौर शुरु होता – कि कौन पहले पढेगा ? कभी कभी तो भाई बहन के बीच झगडा इतना बढ जाता कि खत फटने तक की नौबत आ जाती । तब अम्मा आकर सुलह कराती । अब तो वो सारे झगडे डाइनासोर की तरह विलुप्त होते जा रहे हैं ।
और प्रेम खतों का तो कहना ही क्या उनके लिये तो डाकिये अपनी प्रिय सहेली या भरोसेमंद दोस्त ही होते थे । कितने जतन से चिट्ठियां पहुँचाई जाती थी , मगर उससे ज्यादा मेहनत तो उसको पढ्ने के लिये करनी पडती थी । कभी छत का एकान्त कोना ढूँढना पडता था तो कभी दिन मे ही चादर ओढ कर सोने का बहाना करना पडता था । कभी खत पढते पढते गाल लाल हो जाते थे तो कभी गालो पर आसूँ ढल आते थे । और अगर कभी गलती से भाई या बहन की नजर उस खत पर पढ जाये तो माँ को ना बताने के लिये उनकी हर फरमाइश भी पूरी करनी पडती थी।
खत पढते ही चिन्ता शुरु हो जाती कि इसे छुपाया कहाँ जाय ? कभी तकिये के नीचे , कभी उसके गिलाफ के अंदर , कभी किताब के पन्नो के बीच मे तो कभी किसी तस्वीर के फ्रेम के बीच में । इतने जतन से छुपाने के बाद भी हमेशा एक डर बना रहता कि कही किसी के हाथ ना लग जाय , वरना तो शामत आई समझो ।
अब आज के दौर मे जब हम ई – मेल का प्रयोग करते है , हमे कोई इन्तजार भले ही ना करना पडता हो , लेकिन वो खत वाली आत्मियता महसूस नही हो पाती । अब डाकिये जी मे भगवान नजर नही आते । आज गुलाब इन्तजार करते है किसी खत का , जिनमे वो सहेज कर प्रेम संदेश ले जाये । शायद खत हमारी जिन्दगी मे बहुत ज्यादा अहमियत रखते थे तभी तो ना जाने कितने गाने बन गये थे – चाहे वो – वो खत के पुरजे उडा रहा था हो या ये मेरा प्रेम पत्र पढ कर हो , चाहे चिट्ठी आई है हो या मैने खत महबूब के नाम लिखा हो ।आज चाहे ई –मेल हमारी जिन्दगी का हिस्सा जरूर बन गये हो मगर हमारी यादो की किताब मे उनका एक भी अध्याय नही , शायद तभी आज तक एक भी गीत इन ई-मेल्स के हिस्से नही आया ।
खत लिखना कोई सामान्य कार्य नही होता था , तभी तो कक्षा ६ मे ही यह हमारे हिन्दी के पाठ्यक्रम मे होता था । मगर आज के इस भागते दौर मे तो शायद पत्र की प्रासंगिकता ही खत्म होने को है । मुझे याद है वो समय जब पोस्ट्कार्ड लिखने से पहले यह अच्छी तरह से सोच लेना पडता था कि क्या लिखना है , क्योकि उसमे लिखने की सीमित जगह होती थी , और एक अन्तर्देशीय के तो बँटवारे होते थे , जिसमे सबके लिखने का स्थान निश्चित किया जाता था । तब शायद पर्सनल और प्राइवेट जैसे शब्द हमारे जिन्दगी मे शामिल नही हुये थे । तभी तो पूरा परिवार एक ही खत मे अपनी अपनी बातें लिख देता था । आज तो मोबाइल पर बात करते समय भी हम पर्सलन स्पेस ढूँढते है ।
पत्र लिखने के हफ्ते दस दिन बाद से शुरु होता था इन्तजार – जवाब के आने का ।जब डाकिया बाबू जी को घर की गली में आते देखते ही बस भगवान से मनाना शुरु कर देते कि ये मेरे घर जल्दी से आ जाये । और दो चार दिन बीतने पर तो सब्र का बाँध टूट ही जाता था , और दूर से डाकिये को देखते ही पूँछा जाता – चाचा हमार कोई चिट्ठी है का ? और फिर चिट्ठी आते ही एक प्यारे से झगडे का दौर शुरु होता – कि कौन पहले पढेगा ? कभी कभी तो भाई बहन के बीच झगडा इतना बढ जाता कि खत फटने तक की नौबत आ जाती । तब अम्मा आकर सुलह कराती । अब तो वो सारे झगडे डाइनासोर की तरह विलुप्त होते जा रहे हैं ।
और प्रेम खतों का तो कहना ही क्या उनके लिये तो डाकिये अपनी प्रिय सहेली या भरोसेमंद दोस्त ही होते थे । कितने जतन से चिट्ठियां पहुँचाई जाती थी , मगर उससे ज्यादा मेहनत तो उसको पढ्ने के लिये करनी पडती थी । कभी छत का एकान्त कोना ढूँढना पडता था तो कभी दिन मे ही चादर ओढ कर सोने का बहाना करना पडता था । कभी खत पढते पढते गाल लाल हो जाते थे तो कभी गालो पर आसूँ ढल आते थे । और अगर कभी गलती से भाई या बहन की नजर उस खत पर पढ जाये तो माँ को ना बताने के लिये उनकी हर फरमाइश भी पूरी करनी पडती थी।
खत पढते ही चिन्ता शुरु हो जाती कि इसे छुपाया कहाँ जाय ? कभी तकिये के नीचे , कभी उसके गिलाफ के अंदर , कभी किताब के पन्नो के बीच मे तो कभी किसी तस्वीर के फ्रेम के बीच में । इतने जतन से छुपाने के बाद भी हमेशा एक डर बना रहता कि कही किसी के हाथ ना लग जाय , वरना तो शामत आई समझो ।
अब आज के दौर मे जब हम ई – मेल का प्रयोग करते है , हमे कोई इन्तजार भले ही ना करना पडता हो , लेकिन वो खत वाली आत्मियता महसूस नही हो पाती । अब डाकिये जी मे भगवान नजर नही आते । आज गुलाब इन्तजार करते है किसी खत का , जिनमे वो सहेज कर प्रेम संदेश ले जाये । शायद खत हमारी जिन्दगी मे बहुत ज्यादा अहमियत रखते थे तभी तो ना जाने कितने गाने बन गये थे – चाहे वो – वो खत के पुरजे उडा रहा था हो या ये मेरा प्रेम पत्र पढ कर हो , चाहे चिट्ठी आई है हो या मैने खत महबूब के नाम लिखा हो ।आज चाहे ई –मेल हमारी जिन्दगी का हिस्सा जरूर बन गये हो मगर हमारी यादो की किताब मे उनका एक भी अध्याय नही , शायद तभी आज तक एक भी गीत इन ई-मेल्स के हिस्से नही आया ।
आज भी मेरे पास कुछ खत है जिन्हे मैने बहुत सहेज कर रक्खा है , मै ही क्यो आप के पास भी कुछ खत जरूर होंगे (सही कहा ना मैने) और उन खतों को पढने से मन कभी नही भरता जब भी हम अपनी पुरानी चीजों को उलटते है , खत हाथ में आने पर बिना पढे नही रक्खा जाता ।
आज भी तेरा पहला खत
मेरी इतिहास की किताब में हैं
उसका रंग गुलाबी से पीला हो गया
मगर खुशबू अब भी पन्नो में है
उसके हर एक शब्द हमारी
प्रेम कहानी बयां करते है
और तनहाई में मुझे
बीते समय में ले चलते हैं
वो खत मेरी जिन्दगी का
हिस्सा नही ,जिन्दगी है
हिस्सा नही ,जिन्दगी है
हर दिन पढने की उसे
बढती जाती तृष्णगी है
खतों के बारे में सही लिखा ...आज सच ही खत लुप्त हो गए हैं ...शादी या किसी ऐसे ही अवसरों के कार्ड आते हैं ...
जवाब देंहटाएंकविता ने मन की भावनाओं को खूब कहा है ..सुन्दर रचना .
बहुत खूब... खतोकिताबत का अन्त नजदीक लगता है..
जवाब देंहटाएंआप का ख़त मिला बड़ी प्रसन्नता हुई ,यहाँ सब कुशल मंगल है , बाकी अगले बार आने पे हाल बताऊंगा .आप का धन्यवाद
जवाब देंहटाएंअपर्णा जी
जवाब देंहटाएंसच पूछें तो मैं कुछ ख़ास प्रियजनों की मेल का जवाब भी देर से देता हूं ,
ताकि पुराना प्यार भरा ख़तो-क़िताबत का ज़माना याद आता रहे :)
वो खत मेरी ज़िंदगी का
हिस्सा नही ,ज़िंदगी है
… लेकिन नई ज़िंदगी को भी भरपूर जीना ज़रूरी है ! … है ना ?
शुभकामनाओं सहित
- राजेन्द्र स्वर्णकार
पहले पोस्ट कार्ड , अंतर्देशीय और लिफाफे थे अपनी बात को विस्तार से लिखने के लिए और अब एस ऍम एस कितना फर्क है अच्छी पोस्ट बधाई
जवाब देंहटाएंमेरे पास भी है खत कैसे जान ली
जवाब देंहटाएंपोस्ट -कार्ड आदि की याद आपने की ,वाकई उस पत्राचार में जो आत्मीयता थी वह आज के संदेशों में नहीं है.काव्याभिव्यक्ति भी सशक्त है.
जवाब देंहटाएंतेरे खुशबू से भरे ख़त मै जलाता कैसे?
जवाब देंहटाएंक्या मेल में वो खुशबू मिलेगी?
या मेल को गंगा में बहाया जा सकता है ?
नहीं ना
फिर
अवशेष के रूप में ये बाते रह जायेगी
किस्से कहानियो में प्रेमीजन इन की चर्चा करेगे
एक ख़त आया था किसी के नाम , उसमे लिखा था एक पैगाम
जवाब देंहटाएंपढकर ख़ुशी हुई वो अच्छे है , चलो इतना तो है की वो यादों के सच्चे है
वरना आजकल किसी को किसी की याद कहाँ आती है ,
जिंदगी की सरपट दौड़ में मानसी कुचल जाती है
आगे देखें तो भागती जिंदगी , पीछे यादों की धूल नजर आती है
कुछ धुंधला धुंधला सा नजर आता है कोई
दूर छ्क्तिज पे कोई सूरत दिख आती है
हे नियंता ये तेरा क्या है खेल ,मिलने वाले मिलते नहीं
मिल जाते बेमेल .....
एक ख़त आया था किसी के नाम , उसमे लिखा था एक पैगाम
जवाब देंहटाएंपढकर ख़ुशी हुई वो अच्छे है , चलो इतना तो है की वो यादों के सच्चे है
वरना आजकल किसी को किसी की याद कहाँ आती है ,
जिंदगी की सरपट दौड़ में मानसी कुचल जाती है
एक ख़त आया था किसी के नाम , उसमे लिखा था एक पैगाम
पढकर ख़ुशी हुई वो अच्छे है , चलो इतना तो है की वो यादों के सच्चे है
वरना आजकल किसी को किसी की याद कहाँ आती है ,
जिंदगी की सरपट दौड़ में मानसी कुचल जाती है
आगे देखें तो भागती जिंदगी , पीछे यादों की धूल नजर आती है
कुछ धुंधला धुंधला सा नजर आता है कोई
दूर छ्क्तिज पे कोई सूरत दिख जाती है
हे नियंता ये तेरा क्या है खेल ,मिलने वाले मिलते नहीं
मिल जाते बेमेल .....
आगे देखें तो भागती जिंदगी , पीछे यादों की धूल नजर आती है
कुछ धुंधला धुंधला सा नजर आता है कोई
दूर छ्क्तिज पे कोई सूरत दिख आती है
हे नियंता ये तेरा क्या है खेल ,मिलने वाले मिलते नहीं
मिल जाते बेमेल .....
खत तो अब कहाँ आते...सही भावाव्यक्ति!
जवाब देंहटाएंकविता ने मन की भावनाओं को खूब कहा है ..सुन्दर रचना .
जवाब देंहटाएंयाद नहीं पड़ता कि पिछला पत्र कब और किसको लिखा था।
जवाब देंहटाएंnice...
जवाब देंहटाएंसही भावाव्यक्ति! धन्यवाद|
जवाब देंहटाएंसही लिखती हैं आप.
जवाब देंहटाएंआज सच में खत लुप्त हो गए हैं,कविता और आलेख अच्छा लगा.
सत्य है , जब कभी किसी अपने का पत्र आता था तो वह कई महीनो तक के कई बार पढ़ा जाता था जब तक की उस का दूसरा ख़त न आ जाये .
जवाब देंहटाएंआपके भावों का सच्चाई का पुट और एहसासों की गंध है, जो आपकी लेखनी को प्रभावशाली बनाती है। इस शमा को जलाए रखें।
जवाब देंहटाएं---------
आपका सुनहरा भविष्यफल, सिर्फ आपके लिए।
खूबसूरत क्लियोपेट्रा के बारे में आप क्या जानते हैं?
बिल्कुल सही कहा आपने. ख़त हमेशा एक नया एहसास दिलाता था ......सुंदर कविता
जवाब देंहटाएंसृजन शिखर पर ---इंतजार
bahut sunder.........
जवाब देंहटाएंखतोकिताबत के नए और पुरानी दोनों तरीकों पर बेहतरीन पोस्ट है.
जवाब देंहटाएंऔर ये शेर-
उसके हर एक शब्द हमारी
प्रेम कहानी बयां करते है
और तनहाई में मुझे
बीते समय में ले चलते हैं
लाजवाब है
आपका लेख तो काफी प्रभावी है. ख़त आने भले ही कम हो गए हों, पर इसने लोगों की संवेदनाएं भी कम कर दी हैं. हर कुछ फास्ट हो गया है, शायद रिश्ते भी...
जवाब देंहटाएंफ़िलहाल आपके इस लेख को हमने साभार 'डाकिया डाक लाया' ब्लॉग पर प्रकाशित किया है.
ये पढ़ कर तो वो सभी भाव सामने आ गए जो कभी रोज उमड़ा करते थे .... वो चाहे ख़त लिखने कि प्लानिंग करने पर हो ..... ख़त लिखते वक़्त या, ख़त को पोस्ट करना या फिर भेजने के बाद की बेचैनी और या फिर ख़त आते ही जल्दी से पढ़ लेने की लालसा और एक बात और वो ये की सबसे पहले ख़त आने पर ये देखना की ख़त में कितनी लिखावट है ...... जितना ज्यादा लिखा है उतना मन खुश हो जाता था :-) बहुत अच्छे रूप में व्यक्त किया है काफी भावों को
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